लेखक पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के नतीजों में निहित संदेश को रेखांकित कर रहे हैं…
पश्चिम बंगाल, केरल, असम, तमिलनाडु एवं केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी के विधानसभा चुनावों के अप्रत्याशित नतीजे सामने आए हैं। जिस भारी अंतर से ममता बनर्जी की पश्चिम बंगाल में और जयललिता की तमिलनाडु में जीत हुई उसकी उम्मीद शायद उन्हें भी न रही हो। असम में भी किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि यहां कांग्रेस तीसरी बार दो तिहाई बहुमत से सत्ता में लौट आएगी। वैसे तो कांग्रेस इन चुनाव नतीजों से खुशी जाहिर कर रही है, लेकिन कांग्रेस के रणनीतिकारों ने तमिलनाडु में जिस तरह डीएमके का दामन पकड़े रखा उसकी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी। कांग्रेस ने यूपीए के दूसरे कार्यकाल में डीएमके के साथ गठबंधन कर सरकार चलाना शुरू ही किया था कि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला सामने आ गया। यही घोटाला तमिलनाडु में कांग्रेस के लिए खराब नतीजे लेकर सामने आया। कांग्रेस न जाने क्योंडीएमके का साथ छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुई, जबकि सपा जैसे राजनीतिक दल, जिनके पास पर्याप्त सांसद भी थे, उसे समर्थन देने के लिए तैयार बैठे थे। वैसे तो तमिलनाडु में पिछले कुछ दशक से लगभग हर चुनाव में अन्नाद्रमुक और द्रमुक के बीच सत्ता परिवर्तन होता आया है, लेकिन इस बार वहां की जनता ने स्पेक्ट्रम घोटाले के कारण करुणानिधि के परिवार को धूल चटा दी। नतीजे बता रहे हैं कि तमिलनाडु की जनता भ्रष्टाचार में लिप्त करुणानिधि परिवार को किसी कीमत पर स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी। ये चुनाव नतीजे करुणानिधि के राजनीतिक कॅरियर को समाप्त करने वाले साबित हो सकते हैं, क्योंकि उनके परिवार के झगड़े सतह पर आने की प्रबल आशंका है। चूंकि कांग्रेस डीएमके के कुशासन के बावजूद उससे रिश्ते बनाए रही इसलिए जब यह लग रहा था कि तमिलनाडु में उसका उदय हो सकता है तब उसे दस सीटें भी नहीं मिल सकीं। तमिलनाडु में प्रचार करने गए कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी अपनी युवा ब्रिगेड के किसी भी प्रत्याशी को जीत नहीं दिलवा पाए। यह उनके लिए एक बड़ा धक्का है। उन्हें ऐसा ही धक्का केरल में भी लगा, जहां उनकी युवा टीम के 18 में से सिर्फ आठ प्रत्याशी ही चुनाव जीत सके। इसकी एक वजह रही पूर्व मुख्यमंत्री वीएस अच्युतानंदन की लोकप्रियता। राहुल गांधी ने इन्हीं अच्युतानंदन की बढ़ती उम्र को लेकर कटाक्ष किया था, जिस पर उन्हें अमूल बेबी का जुमला सुनना पड़ा। केरल में कांग्रेस सरकार बनाने में अवश्य सफल रही, लेकिन तमिलनाडु और पुडुचेरी में उसकी दुर्गति छिपी नहीं और न ही यह छिपा है कि इसकी एक बड़ी वजह डीएमके का साथ देना रहा। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने वामपंथी दलों के 34 वर्षो के शासन को ध्वस्त कर दिया। एक समय पश्चिम बंगाल के बारे में कहा जाता था कि वामदलों ने यहां के गली कूचों तक में अपने कार्यकर्ताओं का बैठा रखा हुआ है और वे अपने मतदाताओं को छिटकने नहीं देते, लेकिन ममता बनर्जी के जुझारूपन के आगे वामदल नतमस्तक हो गए। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य अपने अनेक मंत्रियों और विशेष रूप से वित्तमंत्री, उद्योगमंत्री समेत जिस तरह चुनाव हारे उससे वाम दलों की करारी हार का पता चलता है। वाम दलों का नेतृत्व करने वाली माकपा अब तीसरे स्थान पर है। वामपंथियों के लिए यह पीड़ादायक होगा कि जिस राज्य में वह 34 वर्षो तक सत्ता भोगते रहे वहां अब उन्हें सड़कों पर उतरना होगा। वामपंथियों ने बंगाल की सत्ता तब संभाली थी जब आपातकाल के कारण इंदिरा गांधी के विरोध में पूरे देश में लहर चल रही थी। अब खुद वामपंथियों के खिलाफ लहर चल रही है। वाम दलों ने जिस तरह बंगाल में विकास ठप किया वह किसी से छिपा नहीं। आज बंगाल को न केवल विकास की आवश्यकता है, बल्कि वामपंथी विचारधारा से दूर हटने की भी जरूरत है। जिस विचारधारा का अंत खुद सोवियत संघ में हो गया उसे भारतीय वामपंथी बंगाल के दम पर जिंदा रखे हुए थे। बंगाल की अधिकांश जनता के लिए यह पहला अवसर होगा जब उसे एक नए तरीके का शासन देखने को मिलेगा। स्पष्ट है कि तृणमूल कांग्रेस पर जनता की अपेक्षाओं का भारी बोझ होगा। ममता बनर्जी ने चुनाव जीतने के लिए कुछ हद तक माओवादियों का भी समर्थन लिया है। ऐसे में वह माआोवादियों के विरुद्ध चलाए जा रहे केंद्र के अभियान को कंुद करने के लिए दबाव बढ़ा सकती हैं। ममता केंद्र में कई बार मंत्री रही हैं, लेकिन राज्य की बागडोर पहली बार उनके हाथों में आई है। वामपंथी विचारधारा से जकड़ी रही बंगाल की नौकरशाही को वह कितने दिनों में बदल पाएंगी, इस पर पूरे देश की निगाह रहेगी। वह तेज-तर्रार हैं तो तुनकमिजाज भी। सिंगुर में भूमि अधिग्रहण के विरोध में उनके रवैये के कारण टाटा को जिस तरह नैनो कारखाना गुजरात ले जाना पड़ा उससे भले ही किसानों को फर्क न पड़ा हो, लेकिन उसके कारण बंगाल में औद्योगिक निवेश के बहुत से रास्ते बंद भी हो गए हैं। अगर असम में कांग्रेस को अप्रत्याशित सफलता मिली है तो तरुण गोगोई के कारण। असम की जनता ने एक बार फिर उन लोगों को सत्ता से दूर रखा जो एक समय अपने हिंसक आंदोलन के बाद भारी बहुमत से सत्ता में आए थे। वहां के लोग शांति चाहते हैं और यह शांति पिछले 15 वर्षाे से कांग्रेस देती आ रही है। पांच राज्यों में भाजपा ने बड़ी संख्या में अपने प्रत्याशी उतारे थे, लेकिन दक्षिण के राज्यों और पश्चिम बंगाल में उसका खाता भी नहीं खुला तथा असम में पांच सीटों पर संतोष करना पड़ा।प्रणब मुखर्जी ने भाजपा की इस पराजय पर चुटकी भी ली और भाजपा ने उसका जवाब भी दिया, लेकिन यह समय उसके लिए आत्ममंथन का है। आखिर वह 20 वर्षो में अपने तमाम प्रयासों के बावजूद इन राज्यों में अपनी पहचान क्यों नहीं स्थापित कर सकी? भाजपा एक राष्ट्रीय दल है और आगामी लोकसभा चुनाव में उसका भविष्य काफी कुछ इस पर निर्भर करेगा कि वह गैर हिंदी भाषी प्रदेशों में कैसा प्रदर्शन करती है? भले ही केंद्र सरकार यह मान रही हो कि इन चुनावों के बाद उसकी राजनीतिक मुश्किलें कम हो जाएंगी, लेकिन ऐसा फिलहाल होता हुआ दिख नहीं रहा। माना जाता है कि अगर वामपंथियों ने यूपीए-एक को दबा कर रखा तो तृणमूल कांग्रेस के कारण यूपीए-दो सरकार आर्थिक सुधारों को आगे नहीं बढ़ा सकी। रेल मंत्री की हैसियत से ममता ने देश का भला नहीं किया। उन्होंने रेल मंत्रालय को चुनावी लाभ केलिए इस्तेमाल किया। अब जब तृणमूल कांग्रेस को बंगाल में सरकार बनाने के लिए कांग्रेस की जरूरत नहीं पड़ेगी तो केंद्र में कांग्रेस को उनके और अधिक नखरे सहने पड़ सकते हैं। बड़ी बात नहीं कि वह बंगाल के विकास के लिए केंद्र में एक-दो और मंत्रालय अपने अधीन ले लें। इस सबसे आने वाले दिनों में केंद्र की मुश्किलें बढ़ सकती हैं। कांग्रेस जिन नीतियों पर केंद्र सरकार को चलाना चाह रही है उनमें तृणमूल कांग्रेस की दखलंदाजी और बढ़ सकती है। यदि ऐसा हुआ तो इसके दुष्परिणाम कांग्रेस को ही सबसे अधिक भोगने पड़ेंगे।
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