उत्तर प्रदेश का मौजूदा राजनीतिक माहौल यह आभास कराता है कि सभी दलों के नेता किसान हितों की चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि किसानों की आड़ में राजनीतिक रोटियां सेंकी जा रही हैं। ग्रेटर नोएडा के जिस भट्टा पारसौल गांव में हर दल के नेता हाजिरी लगाने को बेकरार हैं वहां के किसान 17 जनवरी से आंदोलनरत हैं, लेकिन किसी भी दल ने तब तक उनकी सुधि नहीं ली जब तक पुलिस से उनकी खूनी भिड़ंत नहीं हुई। इस भिड़ंत में दो पुलिस कर्मियों और तीन किसानों के मारे जाने के बाद जहां राज्य सरकार भूमि अधिग्रहण और मुआवजे संबंधी किसी तरह के विवाद से ही कन्नी काट रही है वहीं विरोधी राजनीतिक दल उसे कठघरे में खड़ा करने के साथ खुद को पाक-साफ बताने में जुटे हुए हैं। इस कोशिश में हर दल बाकी दलों में मिलीभगत होने के हास्यास्पद आरोप लगा रहा है। इन आरोपों से यह और अधिक स्पष्ट हो जाता है कि कोई भी दल सच्चाई का सामना करने और उसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं। सच्चाई यह है कि सभी राजनीतिक दल किसानों की अनदेखी के लिए जिम्मेदार हैं। क्या इससे अधिक आश्चर्यजनक और कुछ हो सकता है कि सभी दलों के भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन के लिए एकमत होने के बावजूद 1998 से यह काम अटका पड़ा है? किसानों के मुद्दे पर राजनीति के गर्माने और उसकी आंच को महसूस करने के बाद केंद्र सरकार ने जिस तरह यह कहा कि भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन के लिए एक अध्यादेश भी लाया जा सकता है उससे यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि उसे अभी तक ऐसी कोई जरूरत क्यों महसूस नहीं हुई? क्या कारण है कि पिछले वर्ष खुद प्रधानमंत्री की ओर से भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक लाने का वायदा करने के बावजूद उसे पूरा नहीं किया गया? इन सवालों के जवाब चाहे जो हों, यह जाहिर करने का कोई मतलब नहीं कि भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन से जमीन अधिग्रहण संबंधी समस्याओं का समाधान हो जाएगा। ऐसा तब तक नहीं होने वाला जब तक किसानों के हितों की रक्षा वास्तव में नहीं की जाएगी। यह समझना कठिन है कि राजनीतिक दल यह देखने से क्यों इंकार कर रहे हैं कि विकास के नाम पर औने-पौने दाम देकर किसानों से उनकी उपजाऊ भूमि छीनना उनके साथ किया जाने वाला घोर अन्याय तो है ही, खाद्यान्न सुरक्षा संबंधी खतरे की अनदेखी करना भी है। निश्चित रूप से विकास के लिए जमीन चाहिए ही होगी, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि न तो किसानों की परवाह की जाए और न ही इसकी कि किस तरह बड़े पैमाने पर कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण हो रहा है। भले ही वर्तमान में सभी दल किसानों के साथ खड़े नजर आ रहे हों, लेकिन कोई भी इस सवाल का जवाब देने के लिए तैयार नहीं कि उन किसानों के साथ न्याय कौन करेगा जिनकी जमीनें मामूली मुआवजा देकर अधिग्रहीत कर ली गई हैं? यह सही है कि भट्टा पारसौल के किसान मुआवजा उठा चुके हैं, लेकिन यदि वे संतुष्ट नहीं तो फिर उनके साथ बातचीत करने में क्या हर्ज है? यह शुभ संकेत नहीं कि न तो राज्य सरकार इस मुद्दे पर कुछ कहने के लिए तैयार है और न ही अन्य राजनीतिक दल।
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