Sunday, May 15, 2011

चुनाव में कॉमनसेंस की जीत


अब मेरा यह विश्वास पक्का हो गया है कि हर चुनाव में कॉमनसेंस की ही जीत होती है। 1977 से मैं चुनाव परिणामों पर गौर करता आ रहा हूं। तब भी यही लगा था और अब फिर लग रहा है कि जनता में कॉमनसेंस भरपूर मात्रा में है पर हमारे राजनीतिक दलों और नेताओं में बिल्कुल नहीं है। वे जब सत्ता में आते हैं तो अपने को भगवान समझने लगते हैं, जबकि उन्हें भी पता होता है कि असली भगवान कौन है? चुनाव से पहले आम जनता को वह भगवान बताते हैं और चुनाव के बाद खुद को भगवान मानने लगते हैं। पता नहीं भगवान गलती करता है या नहीं, लेकिन ये पार्थिव भगवान हमेशा चूक करते आए हैं और इसी कारण वह इसका फल भी भुगतते रहते हैं। अचरज की बात यह है कि तब भी इन्हें बुद्धि नहीं आती। न तो चुनाव हारने का सच्चा पश्चात्ताप होता है और न चुनाव जीतने पर इन्हें उस जनता के प्रति अपना कर्तव्य याद रहता है जिसने उन्हें वोट देकर जिताया होता है। केरल और तमिलनाडु की जनता में अपने नेताओं के प्रति बहुत सहानुभूति पायी जाती है। यह अलग बात है कि इन दोनों ही राज्यों की जनता हमेशा छली जाती है। इस सबके बावजूद वह जनता इन्हें बार-बार चुनने के लिए खुद को मजबूर पाती है। दक्षिण के कुछ राज्यों में राजनीतिक दलों और उनके नेतृत्व की हालत यह है कि 1967 के बाद से जनता के पास दो ही विकल्प मौजूद हैं। मजे की बात यह है कि दोनों एक ही दल के दो धड़े हैं। हालांकि यहां एकमात्र मूल पार्टी डीएमके थी जिसका तमिलनाडु की जनता पर असाधारण प्रभाव था। उसने एक तरह से तमिल भूमि से कांग्रेस को उखाड़ फेंका था। तब से लेकर आज तक वहां कांग्रेस का पैर फिर कभी जम नहीं पाया। बाद में डीएमके का विभाजन हुआ और जयललिता के नेतृत्व में अन्ना डीएमके नाम से एक अलग पार्टी का गठन हुआ। इस तरह एक ही विकल्प दो राजनीतिक विकल्पों में बंट गया और जनता के पास आज तक इनके अलावा तीसरा कोई विकल्प नहीं मिल सका है। आज हालत यह है कि तमिलनाडु की जनता की नियति फुटबाल जैसी हो गई, जिसे दो राजनीतिक दलों के खिलाड़ी अपने मुताबिक कभी इधर तो कभी दूसरी तरफ खींचते रहते हैं। वह एक धड़े से निराश होकर जनता दूसरे धड़े को वोट देती है और फिर जब उससे भी निराश हो जाती है तो अपने पहले धड़े की ओर लौट आती है। इस तरह एक कभी न खत्म होने वाला सिलसिला चलता रहता है और आश्चर्य नहीं कि इस बार के चुनाव में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला है। कहा जा सकता है कि करुणानिधि और जयललिता, दोनों में कुछ कॉमनसेंस है। दोनों को ही सरकारी राजकोष को दुहकर राज्य की जनता में उपहार बांटने की प्रतियोगिता शुरू करने का श्रेय जाता है। ये राजनेता इस बात को बहुत अच्छी तरह समझते हैं कि राज्य की भोली-भाली और आवश्यक आवश्यकताओं की पहुंच से भी वंचित गरीब जनता मंगलसूत्र या कलर टीवी पाकर अभिभूत हो जाएगी और इन राजनीतिक दलों को अपने वोटों से मालामाल कर देगी। दरअसल, इसके पीछे कॉमनसेंस यह है कि पैसा सभी को खींचता है। इस दर्शन में कहीं कुछ गलत नहीं है, लेकिन राजनेता भूल जाते हैं कि जनता को सुशासन भी चाहिए और भ्रष्टाचार पर उसे गुस्सा भी आता है। इसलिए जनता प्रलोभन में नहीं आती और अपने विवेक के अनुसार ही वोट देती है। देशभर के दूसरे चुनाव क्षेत्रों में भी यही होता है। इस बात को हमारे राजनेता न समझते हों ऐसी बात नहीं है। वह जानते हैं कि मतदाता पैसा ले लेता है, मुफ्त में मिला शराब पी लेता है और चुनावी उपहार के रूप में मिली चांदी की तश्तरी भी रख लेता है, लेकिन जब वोट देने की बारी आती है या कहें जब वह बटन दबाने पहुंचता है तो मत अपने विवेक से देता है। कह सकते हैं यह जनता का कॉमनसेंस है जो नेताओं के कॉमनसेंस पर भारी पड़ता है। यही बात केरल और असम पर भी लागू होती है। तमिलनाडु की तरह ही केरल में भी कांग्रेस और सीपीएम के दो मोचरें के बीच सत्ता की अदला-बदली चलती रहती है। जो मोर्चा सत्ता में आ जाता है, वह मतदाताओं को निराश करना शुरू कर देता है। सो अगले चुनाव में वहां की जनता उसे दफा कर देती है और पहले वाले को चुन लेती है। असम की कहानी भी यही है, इस फर्क के साथ कि वहां का प्रतिद्वंद्वी नायक असम गण परिषद काफी कमजोर है। इसलिए वह कांग्रेस को हर बार चुनौती नहीं दे पाता। इस बार के चुनाव परिणामों में सबसे दिलचस्प है पश्चिम बंगाल में वामपंथ का पराभव। वहां वामपंथ चुनाव जीतने का इतना अभ्यस्त हो चुका है कि हार की आशंका उसे होती ही नहीं है। इसके पीछे यह आत्मविश्वास रहा है कि मतदाता आखिर जाएंगे कहां उनके पास कोई और विकल्प ही नहीं है। यह सच भी है। अगर कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में विकल्प खड़ा करने की ईमानदार कोशिश की होती तो वाम मोर्चा 1977 के बाद दूसरे विधानसभा चुनाव में ही हार सकता था। कांग्रेस में सीपीएम का विकल्प बनने का कॉमनसेंस इसलिए पैदा नहीं हो सका, क्योंकि वह कम्युनिस्टों को अपना गुप्त सहयोगी मानती है। संकट काल में कम्युनिस्ट उसकी सहायता करते भी रहे हैं। नई आर्थिक नीति और अमेरिका के साथ परमाणु शक्ति के समझौते ने दोनों चचेरे भाइयों को अलग कर दिया, वरना कम्युनिस्ट अभी भी मनमोहन सिंह की सरकार का समर्थन करते होते। आज जिन ममता बनर्जी की जय जयकार हो रही है वह पहले कांग्रेस में ही थीं, लेकिन कांग्रेस ने उनके नेतृत्व को आगे बढ़ने नहीं दिया, बल्कि उन्हें कुंठित करने की पूरी कोशिश की। ममता बनर्जी के राजनीतिक व्यक्तित्व का वास्तविक विकास होना तब शुरू हुआ, जब उन्होंने कांग्रेस से हटकर तृणमूल कांग्रेस बना ली। उसके बाद से वह लगातार संघर्ष करती रहीं। सिंगुर और नंदीग्राम में अपने कॉमनसेंस के बल पर ही उन्होंने असंतुष्ट किसानों का साथ दिया। वामपंथ का कॉमनसेंस इतना भोथरा हो चुका है कि उन्होंने हालात की नजाकत को नहीं पहचाना और अपनी हिंसक जिद पर अड़ा रहा। ममता बनर्जी की इस भारी जीत के पीछे उनकी कॉमनसेंस की बढि़या राजनीति का निर्णायक हाथ है। वास्तव में ममता बनर्जी कॉमनसेंस की राजनीति का अद्भुत उदाहरण हैं। उनके पास कोई राजनीतिक विचारधारा नहीं है। कोई सुनिश्चित कार्यक्रम भी नहीं है। उनकी तृणमूल कांग्रेस भी इंदिरा कांग्रेस की तरह ही आला कमान के मूड पर चलती है, लेकिन ममता में जबरदस्त कॉमनसेंस है। उनके सतत संघर्ष की प्रेरणा भी यही रही है। इस समय देश में कोई विचारधारा नहीं है। हिंदुत्व की राजनीति काम करने की कोई नई शैली पैदा नहीं कर सकी। इसलिए फिलहाल तो वही राजनीति सफल होगी जिसके साथ कॉमनसेंस की शक्ति है। इसका एक और उदाहरण बिहार है, जहां नीतीश कुमार ने दूसरी बार सफलता हासिल की। ममता ऐसा कर पाएंगी या नहीं, यह इस पर निर्भर है कि अपने कॉमनसेंस को वह कितना बचाए रखती हैं। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)


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