पश्चिम बंगाल में वाममोर्चे का चौंतीस वर्षो का अखंड राजयोग खत्म हो गया। बंगाल में इसे वाम युग का अवसान कहना चाहिए। राज्य की राजनीति में बंगाल गौरव के प्रतीक वाले तीन युग हैं। एक नेताजी सुभाष चंद्र बोस युग, दूसरा विधान चंद्र राय युग और तीसरा वाम युग। वाममोर्चा ने पहली बार 21 जून 1977 को बंगाल की बागडोर थामी थी, उसके बाद राज्य विधानसभा चुनावों में बहुमत पाकर लगातार सात बार सरकार बनाने का प्रतिमान उसने बनाया। लगातार आठवीं बार सत्ता हासिल करने का इतिहास रचने का गौरव उसे इस बार नहीं मिला, क्योंकि इस मर्तबा जनता ने वाम की जगह ममता बनर्जी की अगुवाई वाली तृणमूल कांग्रेस को अपने भरोसे का साथी माना। मतदाताओं द्वारा वाम को नकारे जाने का एक आशय यह भी है कि वाममोर्चा जनता से कट गया है। बंगाल में वाम को नकारने की शुरुआत तो तीन साल पहले जून 2008 के त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों से ही हो चुकी थी। पंचायत चुनावों के बाद हुए लोकसभा चुनाव, विधानसभा की दस सीटों के उपचुनाव और 81 पालिकाओं के चुनावों में भी जनादेश वाममोर्चा के विरुद्ध गए थे। वाम नकार की वह धारावाहिकता इस विधानसभा चुनाव में भी अक्षुण्ण रही। इसकी एक नहीं, अनेक वजहें हैं। सबसे बड़ी वजह मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की औद्योगिक लाइन रही है। नंदीग्राम, सिंगूर, लालगढ़ और राजारहाट में स्थानीय आबादी ने वाम की औद्योगिक लाइन के विरोध में विद्रोह किया तो उसे कुचलने के लिए वाम सरकार ने दमन चक्र चलाया, तब तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता संकट में पड़ी जनता के साथ खड़ी हुई। सिंगुर के किसानों की जमीन बचाने के लिए ममता ने 26 दिनों का अनशन भी किया था और तभी वे बंगाल के किसानों के भरोसे की स्वाभाविक मित्र बन गई। ग्रामीण पश्चिम बंगाल को लगा कि उनकी जमीन ममता ही बचा सकती हैं। जमीन बचेगी तो जीविका और जीवन बचेगा। ग्रामीण बंगाल ही वाममोर्चे की भित्ति रहा है। वाममोर्चे से उसके आंखें फेरने से परिवर्तन की बुनियाद पुख्ता पड़ गई थी। ममता के मां, माटी और मानुष के नारे में किसानों व आदिवासियों को उद्धार नजर आया। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने और रिजुवानुर रहमान की हत्या के बाद तो राज्य के अल्पसंख्यकों का भी वाममोर्चे से मोहभंग होने लगा। राज्य की आबादी के 27 प्रतिशत मुसलमान हैं और उनके मोहभंग से सत्ता से माकपा की विदाई बिल्कुल तय हो गई। इस आबादी ने भी ममता पर विश्वास किया तो इसलिए कि ममता ने पश्चिम बंगाल की जनता की पीड़ा से खुद को लंबे समय से जोड़े रखा है। जहां पीडि़त जनता, वहीं ममता। याद रखना चाहिए कि लंबे समय से सड़क से लेकर संसद तक अपने ढंग से लड़ने-भिड़ने वाली ममता व्यक्तिगत राजनीतिक लड़ाई के बल पर ही एक बड़ी जननेता के रूप में उभरी हैं। उनका संग्राम इस नाते भी बेहद महत्वपूर्ण है कि वह जातिवाद, क्षेत्रवाद या धर्मवाद से परे हैं। यही ममता की राजनीतिक क्षमता है। ममता की राजनीतिक क्षमता और उनके करिश्माई व्यक्तित्व के आगे माकपा के कई दिग्गज तक इस चुनाव में नहीं टिक पाए। मुख्यमंत्री बुद्धदेव, उद्योग मंत्री निरूपम सेन, आवासन मंत्री गौतम देव, वित्तमंत्री असीम दासगुप्त, शहरी विकास मंत्री अशोक भट्टाचार्य, स्वास्थ्य मंत्री सूर्यकांत मिश्र, सुंदरवन विकास मंत्री कांति गांगुली जैसे दिग्गज वाम नेता चुनाव हार गए हैं। भारी बहुमत पाने के बाद तृणमूल कांग्रेस के सामने अब सबसे बड़ी चुनौती जनता के विश्वास पर खरा उतरने की है। वाममोर्चे को हराने की चुनौती से ज्यादा बड़ी चुनौती उसके सामने बंगाल में सत्ता में टिके रहना और उसे सुचारू रूप से चलाते जाना है। इस प्रचार को झूठा साबित करने की चुनौती ममता के समक्ष है कि उनकी पार्टी में सरकार चलाने लायक लोग नहीं हैं। सत्ता में परिवर्तन चूंकि ममता के कारण आया है, इस परिवर्तन की वाहक चूंकि खुद ममता हैं, इसलिए उनसे उम्मीदें ज्यादा हैं। सबसे पहले तो राज्य की बिगड़ी कानून-व्यवस्था की स्थिति पर उन्हें काबू पाना होगा। हर तरह के रक्तपात को बंद करना होगा। चुनाव प्रचार के दौरान जिस तरह माकपा नेता गौतम देव, अनिल बसु व सुशांतो घोष द्वारा ममता के बारे में लगातार अशोभनीय बातें कही गई, लेकिन किसी पर ममता ने प्रतिक्ति्रया नहीं देकर अपार संयम का परिचय दिया, इसी तरह की राजनीतिक परिपक्वता वह आगे भी दिखाएंगी, यह उम्मीद लाजिमी है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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