Thursday, May 19, 2011

राष्ट्रीय राजनीति में नए संकेत


लेखक पिछले लोकसभा चुनाव में दक्षिणी राज्यों में मिली बढ़त संप्रग के हाथ से फिसलती देख रहे हैं
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजों के विश्लेषण से एक रोचक तस्वीर उभरती है। कांग्रेस के पास यह संतोष करने का कारण है कि उसने असम और केरल में जीत हासिल की और पश्चिम बंगाल में उसकी सहयोगी तृणमूल कांग्रेस को भारी सफलता हासिल हुई, लेकिन नतीजों के गहन विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि कांग्रेस के पास चिंतित होने के लिए भी बहुत कुछ है। केरल में कांग्रेस की बड़ी जीत की संभावना जताई जा रही थी, लेकिन मुख्यमंत्री वीएस अच्युतानंदन की साफ-सुथरी छवि और संप्रग के इर्द-गिर्द फैले घोटालों ने भ्रष्टाचार को मुख्य भूमिका में ला दिया। परिणाम यह हुआ कि वामदलों के गठबंधन के सफाए का सपना देख रहा कांग्रेस के नेतृत्व वाला गठबंधन यूडीएफ बस किसी तरह जीत हासिल कर सका। अगर वाम दलों के पास दो सीटें और आ जातीं तो चुनावों का समग्र परिणाम एकदम अलग होता और उसे संप्रग के लिए बहुत बड़ा धक्का माना जाता। संप्रग केरल, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में अपने मजबूत प्रदर्शन के दम पर केंद्र की सता में आया था, लेकिन आंध्र प्रदेश के उपचुनावों ने यह दिखा दिया है कि जगनमोहन रेड्डी की बगावत के बाद कांग्रेस कमजोर हुई है। तमिलनाडु में भी हनीमून समाप्त हो गया है। केरल में कांग्रेस के पास बेहद मामूली बढ़त है। छत्तीसगढ़ और कर्नाटक के उपचुनावों से यह संकेत मिलता है कि भाजपा इन राज्यों में अपनी मजबूत पकड़ बनाए हुए है। कुल मिलाकर संप्रग की राष्ट्रीय स्थिति लचर नजर आ रही है। अगर चार दक्षिणी राज्यों के चुनावों से मिले संकेतों को लोकसभा चुनावों के दृष्टिकोण से देखा जाए तो संप्रग को अकेले दक्षिण में 45 संसदीय सीटों का नुकसान होने जा रहा है। पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम वामदलों के खिलाफ निर्णायक जनादेश है। वामदलों ने इस राज्य पर 34 वर्षो तक शासन किया। उसने अनेक चुनाव जीते। यह जीत उसे इसलिए हासिल नहीं हुई कि वामदलों ने सुशासन की कोई मिसाल पेश की, बल्कि एक प्रकार से उन्हें गलती से जीत हासिल होती रही। वामदलों का कोई विकल्प नहीं था। लोगों के मत तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस और भाजपा के बीच बंटते रहे। कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के गठबंधन ने गैर वामपंथ ताकत का एक चित्र लोगों के सामने प्रस्तुत किया। सिंगुर और नंदीग्राम के घटनाक्रम से पश्चिम बंगाल में वामपंथी विचारधारा का विरोध एक नए स्तर पर पहुंच गया। पिछले लोकसभा चुनाव से यह स्पष्ट हुआ कि वामदलों को उनके गढ़ में पराजित किया जा सकता है। इन सभी कारकों का समग्र असर वामदल विरोधी भावना के मजबूत होने के रूप में सामने आया। ममता बनर्जी के नेतृव में तृणमूल कांग्रेस ने निर्णायक जीत हासिल की। ममता बनर्जी के पक्ष में चल रही लहर से कांग्रेस भी लाभान्वित हुई। वामपंथी विचारधारा का वैश्रि्वक स्तर पर पराभव हो चुका है। मा‌र्क्सवाद का राजनीतिक और आर्थिक मॉडल पूरे विश्र्व ने खारिज कर दिया है। बंगाल के हालिया चुनाव से यह उजागर हो गया कि इस मामले में भारत भी अब शेष दुनिया की राह पकड़ चुका है। पश्चिम बंगाल के लिए यह महत्वपूर्ण है कि ममता बनर्जी सफल हों। इस मामले में लोगों के तर्क-वितर्क आरंभ हो चुके हैं। क्या पश्चिम बंगाल का नतीजा कांग्रेस को राहत देने वाला है? कांग्रेस ममता बनर्जी की राजनीतिक शली से भली-भांति वाकिफ है। कांग्रेस को वह स्थिति पसंद आती जब ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में अपने भविष्य के लिए कांग्रेस पर निर्भर होती। एक स्वतंत्र ममता बनर्जी को बंगाल में कांग्रेस की जरूरत नहीं है। केंद्र सरकार में उनके हित अलग तरह के हैं। कांग्रेस के लिए यह स्थिति चिंता का विषय है। तमिलनाडु का जनादेश भ्रष्टाचार और परिवारवाद के खिलाफ लोगों की प्रतिक्रिया का नतीजा है। भ्रष्टाचार केवल 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले तक ही सीमित नहीं था। करुणानिधि सरकार अनेक लोकलुभावन योजनाओं के बावजूद भ्रष्टाचार के अनेक गंभीर आरोपों में घिरी थी। यह राज्य करुणानिधि परिवार के सदस्यों के बीज कामकाजी और भौगोलिक रूप से बंट गया था। क्या कोई राज्य इतना कमजोर हो सकता है कि उस पर एक परिवार विशेष अपना नियंत्रण कायम कर ले? मतदाताओं ने यह सिद्ध किया कि उन्हें यह स्थिति स्वीकार नहीं। जयललिता खुद एक समय भ्रष्टाचार के आरोपों से घिर चुकी हैं, लेकिन आज वह भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन का चेहरा बन गई हैं। एआइडीएमके ने तमिलनाडु में वैसी ही विशाल जीत हासिल की जैसी बिहार में नीतीश कुमार गठबंधन को मिली थी। तमिलनाडु का संदेश स्पष्ट है। आप को चुनाव में जीत हासिल करने के लिए ईमानदार छवि और टिकाऊ विकास की जरूरत होती है। असम का परिणाम नि:संदेह असम गण परिषद और भाजपा के लिए एक झटका है। यह तथ्य विशेष रूप से निराशाजनक है कि एयूडीएफ और बोडो प्युपिल फ्रंट को इन दोनों दलों से अधिक सीटें हासिल हुई। भाजपा असम गण परिषद के साथ खुला गठबंधन चाहती थी, लेकिन अगप भाजपा के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों के बावजूद गठबंधन के लिए तैयार नहीं हुई। विरोधी दलों के मतों के इस विभाजन के कारण ही कांग्रेस की राह आसान हो गई। अगर अगप और भाजपा ने मिलकर चुनाव लड़ा होता तो कांग्रेस की सीटों में काफी कमी आ सकती थी। कांग्रेस असम में सरकार बनाएगी और एयूडीएफ को नेता विपक्ष चुनने का मौका मिलेगा। असम की राजनीति के लिए यह शुभ संकेत नहीं। इसलिए नहीं, क्योंकि एडीयूएफ ने बांग्लादेशी घुसपैठियों के मतों के आधार पर चुनावी सफलता हासिल की। केरल में नजदीकी और असम में प्रभावशाली जीत के बावजूद संप्रग के लिए असली चुनौती अब शुरू हुई है। शक्तिशाली ममता बनर्जी कांग्रेस के साथ किस तरह निपटेंगी? डीएमके घायल है। करुणानिधि परिवार के सदस्य कानून के शिकंजे में आ रहे हैं। क्या डीएमके इस घटनाक्रम से नाखुश होगी या बेचैन होगी? कोई भी स्थिति हो, कांग्रेसनीत संप्रग के लिए शुभ संकेत नहीं है। संप्रग को सर्वाधिक सफलता राजस्थान, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश में मिली थी। इन राज्यों में उसकी ताकत घटने के स्पष्ट संकेत नजर आ रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं कि चुनाव नतीजों का जो असर दिखाई दे रहा है और उनके वास्तविक परिणामों में बहुत अंतर है। ( लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं)


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