बेरोजगारों की भारी फौज, पलायन कर चुका उद्योग जगत, बेतहाशा कर्ज का दबाव और चरमराती वित्तीय स्थिति। यह तस्वीर है पश्चिम बंगाल की। छठे दशक तक जबकि यह देश का सबसे महत्वपूर्ण राज्य था और देश के कुल रोजगार में इसकी हिस्सेदारी 24 फीसदी के करीब थी। ऐसे में ममता बनर्जी के लिए यहां आर्थिक बदलाव करना राजनीतिक बदलाव से कम चुनौतीपूर्ण साबित नहीं होगा। राज्य की वित्तीय बदहाली की एक मिसाल देखिए। जहां बिहार, त्रिपुरा जैसे राज्यों ने अपने कर्मचारियों के वेतन आदि के खर्चो पर नियंत्रण पाने में सफलता हासिल की है, वहीं पश्चिम बंगाल ने वर्ष 2010-11 में 23,213 करोड़ रुपये इस मद में खर्च किए जो सरकार के कुल खर्च का 36.3 फीसदी था। पांच वर्ष पहले राज्य सरकार कुल खर्च का 31.8 फीसदी वेतन में खर्च कर रही थी। वर्ष 2008-09 में पश्चिम बंगाल का राजकोषीय घाटा 13,558 करोड़ रुपये का था जो अगले वर्ष 23,323 करोड़ रुपये का हो गया। वित्तीय कुशासन का यह एक बड़ा प्रमाण है। राजस्व संग्रह वृद्धि के मामले में यह राज्य फिलहाल बिहार और उत्तर प्रदेश से भी पीछे छूट गया है। अगस्त, 2010 में जारी केंद्र सरकार की रिपोर्ट के मुताबिक देश में सबसे ज्यादा बेरोजगार पश्चिम बंगाल में हैं। उस समय राज्य के रोजगार कार्यालयों में 70 लाख बेरोजगार पंजीकृत थे। वर्ष 2009 की अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2002 वर्ष 2007 के बीच सबसे ज्यादा कल-कारखाने पश्चिम बंगाल में बंद हुए। इससे 1.77 लाख लोगों ने नौकरी से हाथ धोया। वर्ष 1990 में आर्थिक उदारीकरण लागू होने के बाद पश्चिम बंगाल में सरकार सिर्फ 91 हजार नौकरियां दे सकी है। जबकि इस दौरान 3.66 लाख नौकरियां दे कर आंध्र प्रदेश सरकार पहले स्थान पर है। सिंगुर की घटना ने राज्य की रही-सही छवि भी धूमिल कर दी। आश्चर्य नहीं कि इंफोसिस, टाटा, रिलायंस सहित तमाम बड़ी कंपनियों ने राज्य में विस्तार की अपनी योजनाओं पर विराम लगा दिया है।सीआइआइ के महानिदेशक चंद्रजीत बनर्जी का मानना है कि ममता बनर्जी की सरकार को सबसे पहले ब्रांड पश्चिम बंगाल पर ध्यान देना चाहिए। इसमें समय लगेगा। दूसरा काम कृषि क्षेत्र में व्यापक सुधार का एजेंडा लागू करके किया जा सकता है। केंद्र सरकार पूर्वी राज्यों के जरिए दूसरी हरित क्रांति लाने की योजना लागू कर चुकी है। नई सरकार इसका फायदा उठा कर बंगाल के ग्रामीण क्षेत्रों में व्यापक सुधार कर सकती है। उद्योग चैंबर एसोचैम के महासचिव डीएस रावत का कहना है कि बेरोजगारी दूर करने के लिए लघु व मझोली इकाइयों का क्लस्टर विकास व खाद्य प्रसंस्करण को बढ़ावा देने को प्राथमिकता देनी चाहिए। उधर फिक्की के महानिदेशक राजीव कुमार का कहना है कि पिछले कुछ दशक में राज्य की आर्थिक रीढ़ टूट चुकी है, लेकिन अभी भी बहुत कुछ किया जा सकता है। मानव संसाधन व बेहतरीन भौगोलिक स्थिति का फायदा उठाने की कोशिश होनी चाहिए। नई सरकार राज्य को नई आर्थिक गतिविधियों का केंद्र बना सकती है। पूर्वी एशियाई देशों के साथ जिस तरह से भारत का कारोबार बढ़ रहा है उसे देखते हुए नई सरकार को यहां ढांचागत सुविधाएं विकसित करनी चाहिए।
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