पांच राज्यों के चुनाव नतीजों ने द्रमुक नेता एम. करुणानिधि को छोड़कर शायद ही किसी को चौंकाया हो। वह चुनावी हार झेलने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं दिखते थे। मतदाताओं को लुभाने के लिए हर किस्म के वायदे करने और चुनाव प्रचार में अपनी सारी ताकत झोंकने के बावजूद द्रमुक अपनी चिर प्रतिद्वंद्वी अन्नाद्रमुक की तुलना में एक-चौथाई से भी कम सीटों पर आ गिरी। प. बंगाल में वामपंथी दलों का वही हश्र हुआ जैसा तमिलनाडु में द्रमुक का। अपने कैडर के दम पर लगभग तीन दशकों से राज्य की सत्ता पर काबिज वाम मोर्चे को हरा पाना ममता बनर्जी जैसी जीवट वाली नेता के ही वश में था, जिन्होंने माकपा को उसी की भाषा में जवाब देने की हिम्मत दिखाई। व्यापक गरीबी और माकपा कैडर के आतंक के बावजूद हर चुनाव में वाम मोर्चा जीत कर आता रहा तो दो कारणों से। पहला, मतदाता के सामने ऐसा कोई दमदार विकल्प मौजूद नहीं था जो राज्य के सर्वशक्तिमान वाम मोर्चे के लिए मजबूत चुनौती खड़ी कर सके। दूसरा, माकपा कैडर के हिंसक तौर-तरीकों ने नियमित रूप से मतदान प्रक्रिया और चुनाव परिणामों को प्रभावित किया। इस बार स्थितियां अलग थीं और ममता बनर्जी का परिवर्तन का नारा जन-आकांक्षाओं से मेल खाता था। असम में कांग्रेस का लगातार तीसरी बार सत्ता में लौटना बड़ी घटना है। असम की जनता के लिए मौजूदा हालात में अलगाववाद का मुद्दा भाजपा के बांग्लादेशी नागरिकों के मुद्दे से ज्यादा महत्वपूर्ण है। उल्फा, बोडो और दूसरे उग्रवादियों के हाथों हजारों निर्दोष नागरिकों को खोने वाले असम को अब हिंसा और अस्थिरता से मुक्ति चाहिए। कई साल की नाकामियों के बाद तरुण गोगोई सरकार उग्रवादी गतिविधियों को नियंत्रित करने में सफल हुई है। उल्फा के साथ सुलह के संदर्भ में हाल के महीनों में कुछ बड़ी कामयाबियां हासिल हुई हैं, जिन्होंने इस समस्या के स्थायी समाधान की उम्मीद जगाई है। वहां बिखरे हुए विपक्ष और उग्रवाद विरोधी कामयाबियों ने मतदाता के फैसले को प्रभावित किया है। पुद्दुचेरी आम तौर पर तमिलनाडु के चुनावी ट्रेंड्स के अनुकूल प्रदर्शन करता है। वहां इस बार भी कमोबेश वही सूरत दिखाई दे रही है। हर चुनाव में पत्ते बदलने वाला केरल भी अपनी परंपरा पर कायम रहा। हालांकि वहां कांग्रेस की जीत का अंतर बहुत कम रहा। कांग्रेस के लिए चुनाव नतीजे मिश्रित उपलब्धियों वाले रहे। पार्टी को उम्मीद थी कि पांचों राज्यों में चुनाव नतीजे उसके अनुकूल रहेंगे, लेकिन अंतत: संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन को तीन राज्यों की जनता से ही मंजूरी मिली। पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को पछतावा हो रहा होगा कि उसने कुछ महीने पहले तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक के साथ गठजोड़ का मौका खो दिया। जहां तक देश के मुख्य विपक्षी दल भाजपा का प्रश्न है तो उसके लिए इन चुनावों में कुछ विशेष नहीं था, फिर भी नतीजों ने उसे निराश ही किया होगा। असम में उसकी सीटें पिछली बार की तुलना में आधी से भी कम हो गई हैं। पश्चिम बंगाल में जरूर वह अपना खाता खोलने में सफल रही, लेकिन वोटों के प्रतिशत में गिरावट के साथ। केरल, तमिलनाडु और पुद्दुचेरी में भी पार्टी की कोई भूमिका नहीं है। इन चुनावों ने यह प्रश्न एक बार फिर खड़ा कर दिया कि क्या भाजपा अगले लोकसभा चुनावों में सत्ता में लौटने की उम्मीद रख सकती है? संप्रग की लोकप्रियता जरूर घट रही है, लेकिन सवाल यह है कि क्या भाजपा इस माहौल का लाभ उठाने की स्थिति में है? पांच राज्यों के चुनावों में उसका नामो-निशान तक न होना स्पष्ट करता है कि देश के बड़े भूभाग में उसकी राजनीतिक भूमिका बहुत सीमित है। इन हालात में 2014 के चुनावों से पहले राष्ट्रीय राजनीति में बनने वाला माहौल भाजपा के पक्ष में बड़े राष्ट्रीय परिवर्तन के अनुकूल होगा या नहीं, कहना मुश्किल है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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