Sunday, May 1, 2011

संसदीय परंपरा का उपहास


लेखक लोक लेखा समिति की बैठक में हुए हंगामे को संसदीय परंपरा में एक अप्रिय प्रसंग के रूप में देख रहे हैं

स्पेक्ट्रम घोटाले में डॉ. मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता में लोक लेखा समिति की ओर से तैयार मसौदा रपट को लेकर इस समिति में शामिल सत्तापक्ष के सांसदों ने जिस तरह हंगामा किया उससे लोकतांत्रिक मूल्यों और मर्यादाओं को गहरा आघात लगा है। स्पेक्ट्रम घोटाले में यह पहले से स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री कार्यालय से गंभीर चूक हुई और उसके चलते दूरसंचार मंत्री ए.राजा को मनमानी करने का मौका मिला। बावजूद इसके कांग्रेस इस कोशिश में लगी रही कि इस मामले में प्रधानमंत्री या उनके कार्यालय का नाम न आने पाए। घोटाला उजागर होने पर पहले कांग्रेसी नेताओं के साथ-साथ खुद प्रधानमंत्री ने यह बताने की कोशिश की कि स्पेक्ट्रम आवंटन में कोई गड़बड़ी नहीं हुई और नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) का यह आकलन सही नहीं कि राजा की मनमानी के कारण पौने दो लाख करोड़ रुपये की राजस्व हानि हुई है। सत्तापक्ष के नेताओं की ओर से सीएजी के इस आकलन को मनगढ़ंत साबित करने के साथ ही यह भी कहा गया कि स्पेक्ट्रम आवंटन में हुई राजस्व हानि तो शून्य है। इस आशय का बयान किसी और ने नहीं, राजा का स्थान लेने वाले नए दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल ने दिया। इस सबके बाद भी सच्चाई छिप नहीं सकी। खुद सीबीआइ ने राजस्व क्षति से सहमति जताई। इसके बाद विपक्ष ने भी सत्तापक्ष पर दबाव बनाया और उच्चतम न्यायालय ने भी सीबीआइ जांच की निगरानी शुरू कर दी। इसके अतिरिक्त कारपोरेट लाबिस्ट नीरा राडिया के टेपों के खुलासे ने भी यह जाहिर किया कि 2जी स्पेक्ट्रम के आवंटन को लेकर दूरसंचार कंपनियों और दूरसंचार मंत्रालय के बीच किसी न किसी स्तर पर साठगांठ थी। बाकी कसर उच्चतम न्यायालय की इस टिप्पणी ने पूरी कर दी कि राजा के खिलाफ कार्रवाई करने के मामले में प्रधानमंत्री की निष्कि्रयता विचलित करने वाली है। हालांकि कांग्रेस ने राजा का इस्तीफा लेकर अपनी और केंद्र सरकार की छवि को सुधारने की कोशिश की, लेकिन बात बनी नहीं, क्योंकि सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका की सुनवाई करते समय उच्चतम न्यायालय इस नतीजे पर पहुंचा कि स्पेक्ट्रम आवंटन में गड़बड़ी से अवगत होने के बाद भी प्रधानमंत्री कार्यालय राजा पर लगाम नहीं लगा सका। कांग्रेस अपने बचाव में चाहे जैसे तर्क दे, इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि गठबंधन राजनीति की मजबूरियों के चलते वह न तो राजा को दूरसंचार मंत्री बनने से रोक सकी और न ही उन्हें मनमानी करने से। अब तो यह किसी से छिपा ही नहीं कि 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन में किस तरह तमिलनाडु के मुख्यमंत्री की पत्नी और बेटी के स्वामित्व वाले टीवी चैनल को डीबी रिएल्टी से पैसा मिला, जिसकी एक कंपनी स्वान टेलीकॉम को स्पेक्ट्रम आवंटित किए गए थे। आमतौर पर बड़े घपले-घोटालों की सीबीआइ जांच नतीजे पर नहीं पहुंच पाती, लेकिन स्पेक्ट्रम घोटाले की पूरी कहानी परत-दर-परत सामने आती दिख रही है। इसका मुख्य कारण यह है कि उसके काम की निगरानी खुद उच्चतम न्यायालय कर रहा है। सत्तापक्ष ने स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच को लेकर विपक्ष के दबाव में न आने की पूरी कोशिश की थी, लेकिन उसे तब हथियार डालने पड़े जब संयुक्त संसदीय समिति के गठन की विपक्ष की मांग के चलते संसद का शीतकालीन सत्र बाधित हो गया। जब सत्तापक्ष को लगा कि विपक्ष बजट सत्र भी नहीं चलने देगा तो वह जेपीसी के गठन के लिए राजी हो गया। इसी के साथ उसने यह कोशिश शुरू कर दी कि लोक लेखा समिति स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच बंद कर दे, लेकिन इस समिति के अध्यक्ष डॉ. जोशी ने किसी दबाव में आने से इंकार किया। डॉ. जोशी दबाव में आने के लिए जाने भी नहीं जाते और शायद यही कारण है कि वह उस समय भी तेजी दिखा रहे थे जब भाजपा संयुक्त संसदीय समिति की मांग कर रही थी और यह चाह रही थी कि लोक लेखा समिति का काम गति न पकड़े। लोक लेखा समिति का कामकाज 14 अप्रैल तक सामान्य तरीके से हो रहा था लेकिन जब डॉ.जोशी ने गवाही के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय के शीर्ष अधिकारियों को बुलाया तो विरोध शुरू हो गया। अंतत: ऐसी स्थिति बनी कि यह समिति दो हिस्सों में बंट गई। जहां सत्तापक्ष के सांसद इस कोशिश में थे कि यह समिति अपने कार्यकाल में रिपोर्ट ही न दे सके वहीं डॉ. जोशी तमाम विरोध के बावजूद 30 अप्रैल के पहले अपनी रिपोर्ट तैयार करने के लिए अडिग बने रहे। अंतत: वह इसमें सफल भी रहे और उन्होंने जांच रपट लोकसभा अध्यक्ष को सौंप दी। समिति की बैठक में सत्तापक्ष के सांसदों ने सपा और बसपा के सदस्यों से मिलकर बहुमत का हवाला देते हुए न केवल डॉ. जोशी की मसौदा रपट खारिज कर दी, बल्कि अपना अध्यक्ष भी चुन लिया। हालांकि यह सारी कार्यवाही अवैधानिक रही, क्योंकि अध्यक्ष चुनने और रपट खारिज करने का काम बैठक की कार्यवाही स्थगित करने के बाद हुआ। यदि सत्तापक्ष और विपक्ष आम सहमति के आधार पर काम करने के लिए राजी होते तो इस अप्रिय प्रसंग से बचा जा सकता था। इस अप्रिय प्रसंग के लिए सत्तापक्ष के सांसद तो जिम्मेदार हैं ही, समिति के अध्यक्ष डॉ. जोशी भी जल्दबाजी के आरोपों से बच नहीं सकते। उन्होंने जो तेजी दिखाई वह बहस का मुद्दा है, लेकिन इसके आधार पर सत्तापक्ष के सांसदों को अवैधानिक काम करने की छूट नहीं मिल जाती। लोक लेखा समिति में जो कुछ हुआ उससे संसदीय परंपराओं को गहरा धक्का लगा है, क्योंकि समिति में वोटिंग निषेध होने के बावजूद अनुचित तरीके से इसका सहारा लिया गया और यहां तक कि सत्तापक्ष के राज्यसभा सांसद को कथित तौर पर अध्यक्ष भी चुन लिया गया। यह आचरण तो संसदीय परंपराओं की खिल्ली उड़ाने वाला है। यह पहला अवसर है जब लोक लेखा समिति की किसी रपट को खारिज करने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाए गए। इस समिति में हुए हंगामे से संसदीय प्रक्रिया को जो क्षति पहुंची उसके लिए सत्तापक्ष के सांसद इसलिए कठघरे में खड़े किए जाने चाहिए, क्योंकि वे सारी सीमाएं लांघ गए। ऐसा लगता है कि उन्होंने ऐसा इसलिए किया, क्योंकि वे समिति की रिपोर्ट में प्रधानमंत्री का नाम किसी भी सूरत में नहीं आने देना चाहते थे। वे चाहते तो इस पर अपनी आपत्ति को रपट का हिस्सा बनवा सकते थे, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। लोक लेखा समिति में हुआ हंगामा संसद की एक मजबूत समिति की गरिमा को गिराने वाला है। कांग्रेस का बेचैन होना स्वाभाविक है, लेकिन उसे मनमानी करने की इजाजत नहीं दी जा सकती। लोक लेखा समिति में जो कुछ हुआ उसे देखते हुए इसका अनुमान लगाया जा सकता है कि संयुक्त संसदीय समिति के लिए आम सहमति से काम करना कितना कठिन होगा? सत्तापक्ष को यह समझना होगा कि 2 जी स्पेक्ट्रम आवंटन में हुआ घोटाला एक यथार्थ है और उससे मुंह मोड़ना व्यर्थ है। यदि पक्ष-विपक्ष के नेता इस घोटाले के दोषियों को दंडित करने पर अपना ध्यान केंद्रित नहीं करते तो वे देश को निराश ही करेंगे। यदि कांग्रेस को इस घोटाले से पीछा छुड़ाना है तो उसे आगे की ओर देखना होगा। यदि वह इसलिए विपक्ष से झगड़ती रहेगी कि स्पेक्ट्रम घोटाले में उसका दामन साफ है तो उसकी प्रतिष्ठा को और आघात ही लगेगा।


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