लेखक राज्यपाल की केंद्रीय सत्तादल के प्रति वफादारी को कर्नाटक संवैधानिक संकट की वजह बता रहे हैं….
कांग्रेस अजब-गजब संयोगों का पर्याय है। प्रधानमंत्री अर्थशास्त्र के विद्वान हैं लेकिन देश मुद्रास्फीति और महंगाई की गिरफ्त में है। वह ईमानदार कहे जाते हैं लेकिन पूरी सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी हुई है। विधिमंत्री रहे प्रख्यात विधिवेत्ता कर्नाटक के राज्यपाल हंसराज भारद्वाज संविधान प्रमुख होकर भी बहुमत प्राप्त राज्य सरकार की बर्खास्तगी पर आमादा हैं। वह उच्चतम न्यायालय की सदन को ही विश्वासमत का श्रेष्ठ स्थान बताने की स्थापना से असहमत हैं। वह सदन आहूत करने और विश्वासमत लेने के मुख्यमंत्री के अनुरोध को भी टाल चुके हैं। वह जैसे-तैसे कर्नाटक सरकार का वध चाहते हैं। वह महामहिम हैं लेकिन कांग्रेस के सामान्य कार्यकर्ताओं की तरह भाजपा सरकार के खिलाफ हैं। संवैधानिक ढांचा विफल हो जाने की उनकी अपनी व्याख्या है। ताजा सिफारिश विवाद का विषय है। केंद्र उनकी सिफारिश नहीं मानता तो भी वह लज्जित नहीं होते। वह राज्यपाल जैसी संवैधानिक संस्था की साख गिराने वाले महामहिमों की सूची के चमकते नायक हैं। आश्चर्य है कि बावजूद इसके केंद्र उन्हें वापस नहीं बुलाता। राज्यपालों का आचरण संविधान निर्माण के समय से ही विवादों के घेरे में हैं। रोहिणी कुमार चौधरी ने संविधान सभा में राज्यपालों की नियुक्ति प्रक्रिया पर आशंका जताई और कहा कि प्रधानमंत्री के परामर्श से राष्ट्रपति राज्यपाल की नियुक्त करेंगे। प्रधानमंत्री राजनीति में डूबा व्यक्ति होगा। उसके विचार तटस्थ नहीं होंगे। उड़ीसा के विश्वनाथ दास ने भी शंका व्यक्त की-ब्रिटिश साम्राज्यवाद के गवर्नर जो कुछ करते थे, वही अब सत्तारूढ़ दल करेगा। जवाहरलाल नेहरू ने बहस में हस्तक्षेप किया और कहा, इस पद के लिए हम एक पूर्ण तटस्थ व्यक्ति रखेंगे जो प्रांत की सरकार को मान्य हो। अगर ऐसा नहीं हुआ तो वह अपने प्रकार्य अच्छी तरह नहीं कर सकेगा। संविधान सभा केंद्र में सत्तारूढ़ दल के पिट्ठू राज्यपाल नहीं चाहती थी। बावजूद इसके अधिकांश राज्यपालों ने संविधान की मर्यादा भंग की। पहले आम चुनाव में कांग्रेस मद्रास प्रेसीडेंसी में हार गई। टी प्रकाशम ने सरकार गठन का दावा किया। राज्यपाल ने अल्पमत के बावजूद सी राजगोपालाचार्य को शपथ दिलाई, जोड़तोड़ हुई, बहुमत बना। यह सब पंडित नेहरू के समय हुआ। लोकतंत्र जवाबदेही से चलता है। सारी संवैधानिक संस्थाएं जवाबदेह हैं। राज्यपाल की कोई जवाबदेही नहीं। राज्यपाल केंद्रीय सत्तादल के अनुसार ही चलते हैं। राज्य सरकारों की बर्खास्तगी संवेदनशील मसला है। डॉ. अंबेडकर ने संविधान सभा में कहा था कि इस अस्त्र का प्रयोग कम से कम किया जाएगा लेकिन संविधान प्रवर्तन 1950 से अब तक मात्र 61 वर्ष में लगभग 115 दफा राज्य सरकारों की बर्खास्तगी की जा चुकी है। 1970 में उत्तर प्रदेश विधानसभा का अधिवेशन प्रस्तावित था, लेकिन राज्यपाल ने बहुमत के लिए सदन की प्रतीक्षा नहीं की और चरण सिंह सरकार बर्खास्त हो गई। हरियाणा के राज्यपाल तपासे ने बहुमत दल के नेता देवीलाल को विधायकों की परेड के लिए 24 मई, 1982 की तारीख दी और इसी बीच भजनलाल को मुख्यमंत्री की शपथ भी दिला दी गई। आंध्र के राज्यपाल रामलाल ने बहुमत के बावजूद एनटी रामाराव सरकार का वध (1984) किया। रामाराव सारे विधायकों सहित राष्ट्रपति भवन पहुंचे। विधायकों को राष्ट्रपति भवन ले जाने की परंपरा शुरू हुई। राज्यपाल संविधान की संरक्षक संस्था है लेकिन तमाम राज्यपालों ने संविधान को भी शर्मसार किया है। गुजरात के राज्यपाल कृष्णपाल ने शंकर सिंह बाघेला के पक्ष में भाजपा सरकार की बर्खास्तगी की। अयोध्या हादसे के दिन बहुमत प्राप्त मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने त्यागपत्र दिया। लेकिन राज्यपाल ने उत्तर प्रदेश सरकार की बर्खास्तगी ही की। केंद्र ने अयोध्या कांड के बहाने तीन अन्य भाजपाई राज्य सरकारें भी बर्खास्त करवाईं। राज्यपाल रोमेश भंडारी ने उत्तर प्रदेश में नया रिकॉर्ड बनाया। कल्याण सिंह ने 21 अक्टूबर, 1997 को बहुमत सिद्ध किया। बावजूद इसके महामहिम ने कल्याण सिंह को हटाकर जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री बनाया। न्यायालय के निर्देश पर विधानसभा का विशेष सत्र 26 फरवरी, 1998 को हुआ। कल्याण सिंह जीत गए। बिहार सरकार की बर्खास्तगी पर न्यायालय का आदेश जगजाहिर है। कांग्रेस ने प्रतिबद्ध राज्यपाल की परंपरा चलाई। 1977 की जनता पार्टी सरकार भी उसी रास्ते चली। उसने नौ विधानसभाएं भंग कीं। 1980 में केंद्र की कांग्रेसी सरकार ने भी नौ विधानसभाएं बर्खास्त कीं। मूलभूत प्रश्न यह है कि क्या राज्यपाल केंद्र में सत्तारूढ़ दल के ही एजेंट हैं। 1970 के राज्यपाल सम्मेलन में आचार संहिता पर सहमति बनी। राष्ट्रपति ने जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल की अध्यक्षता में राज्यपालों की पांच सदस्यीय समिति बनाई। समिति ने तय किया, बहुमत का प्रश्न विधानसभा ही तय करेगी, मुख्यमंत्री अधिवेशन न बुलाए तो बहुमत समाप्त माना जाएगा। वैकल्पिक सरकार की संभावनाओं के खत्म होने पर सदन भंग ही रास्ता है। गठबंधन सरकारों में किसी घटक के अलग हो जाने पर भी सरकार पर कार्रवाई नहीं होनी चाहिए। मुख्यमंत्री से विधानसभा बुलाकर बहुमत सिद्ध करने को कहा जाना चाहिए। फिर सरकारिया आयोग (1983) ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि राज्य का शासन जब संविधान के उपबंधों के अनुसार नहीं चल रहा है तब तथ्यों सहित राज्य सरकार को पहले चेतावनी दी जानी चाहिए और सरकार के उत्तर पर गंभीरतापूर्वक विचार करके ही कोई कार्रवाई की जानी चाहिए। सन् 1997 के राज्यपाल सम्मेलन में भी आचरण संबंधी सात सूत्रीय दिशानिर्देश तय हुए। राजग सरकार के संविधान समीक्षा आयोग ने भी कई मूल्यवान सिफारिशें की थीं लेकिन प्रतिबद्ध राज्यपाल अपने काम पर हैं। कर्नाटक के राज्यपाल ने केंद्र के ईमानदार प्रतिनिधि के रूप में काम नहीं किया। उन्होंने राज्य सरकार के विरुद्ध दो बार केंद्र को रिपोर्ट दी। केंद्र ने पहली रिपोर्ट खारिज की, दूसरी पर असमंजस है। बुनियादी सवाल यह है कि बार-बार केंद्र को गुमराह करने और केंद्र व राज्य दोनों को ही विषम परिस्थितियों में झोंकने वाले राज्यपाल के प्रति केंद्र के मन में खास तरह की ममता क्यों है? क्या केंद्र ने ही उन्हें कर्नाटक सरकार को अस्थिर करने या उसका वध करने की सुपारी दी है? अनेक राज्यपालों के आचरण से संविधान की गरिमा को चोट पहुंची है। राज्यपालों की नियुक्ति व आचरण पर ठोस कार्रवाई की जरूरत है। इस पद पर राजनेताओं की नियुक्ति बंद होनी चाहिए। निवर्तमान राज्यपाल को बाद में किसी लाभ के पद पर नियुक्त न किए जाने का प्रावधान भी जरूरी है। संवैधानिक चीरहरण का धारावाहिक आचरण बर्दाश्त के बाहर है। (लेखक उप्र विधानपरिषद के सदस्य हैं )
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