Friday, April 29, 2011

सच को छिपाने वाला शोरगुल


लोक लेखा समिति की रपट पर कांग्रेस और द्रमुक के सदस्यों के हंगामे को शर्मनाक बता रहे हैं लेखक
लोक लेखा समिति की संभावित रिपोर्ट का जो अंश लीक हुआ है उस पर कांग्रेस एवं द्रमुक सदस्यों का हंगामा भले उनके राजनीतिक नजरिए को देखते हुए अस्वाभाविक नहीं है, लेकिन व्यापक स्तर पर यह पूरे देश को स्तब्ध करने वाला है। प्रधानमंत्री से लेकर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी तक बार-बार देश को यह आश्वासन दे चुके हैं कि किसी भ्रष्टाचारी को बख्शा नहीं जाएगा और दूध का दूध एवं पानी का पानी होगा। क्या यही रवैया दूध का दूध और पानी का पानी करने वाला है? इतने बड़े भ्रष्टाचार का अपराधी केवल एक व्यक्ति नहीं हो सकता। वास्तव में 2 जी स्पेक्ट्रम भ्रष्टाचार पूरे सरकारी तंत्र की शर्मनाक संस्थानिक विफलता का परिणाम है और लोक लेखा समिति की रिपोर्ट में भी यही साबित होता है। सच यही है कि लोकलेखा समिति ने अपनी छानबीन में जो कुछ पाया है उसमें आश्चर्य का कोई तत्व नहीं है। केवल अपने निष्कर्ष के विश्लेषण के लिए उसके प्रयुक्त शब्दों पर कहीं-कहीं आपत्ति हो सकती है, लेकिन कांग्रेस, सरकार या संप्रग सदस्य इसकी आलोचना के बजाय अपने गिरेबान में झांकें। वे न भूलें कि इसके पूर्व महालेखा नियंत्रक भी लगभग यही बात कह चुके हैं। क्या कांग्रेस या संप्रग के सदस्य यह उम्मीद करते थे कि 2 जी स्पेकट्रम भ्रष्टाचार की जांच करने वाली समिति केवल ए. राजा, कुछ वर्तमान एवं पूर्व सरकारी अधिकारियों, निजी कंपनियों को अपराधी मानकर जांच की इतिश्री कर लेगी? लोक लेखा समिति ने प्रधानमंत्री, प्रधानमंत्री कार्यालय, तत्कालीन वित्तमंत्री पी. चिदंबरम से लेकर महाधिवक्ता, दूरसंचार विभाग आदि सभी की भूमिका को खजाने की लूट के लिए जिम्मेदार समझा है और यही सच है। आखिर प्रधानमंत्री एवं प्रधानमंत्री कार्यालय के बारे में यही कहा गया है कि प्रधानमंत्री द्वारा प्रधानमंत्री कार्यालय को इससे दूर रखने की इच्छा के कारण ही दूरसंचार मंत्री को अस्वच्छ, अनुचित और मनमाने तरीके से काम करने में सहायता मिली। 3 जनवरी 2008 को प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा राजा के पत्र को केवल प्राप्त करना उन्हें अपनी योजना एवं निर्णय पर आगे बढ़ने के लिए हरी झंडी देना नहीं तो और क्या था? अगर दूरसंचार मंत्री इतनी हडबड़ी में थे तो प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा 12 दिनों बाद फाइल प्रधानमंत्री के सामने लाने का कोई वाजिब कारण नहीं हो सकता। इसी को तो संस्था की विफलता कहते हैं। समिति ने यह प्रश्न उठाया है कि मंत्रिमंडल के निर्णय को लागू करने का दायित्व प्रधानमंत्री कार्यालय या कैबिनेट सचिवालय का नहीं है तो फिर यह जिम्मेदारी किसे दी जा सकती है? मंत्रिमंडल का जो निर्णय था उसे लागू होना चाहिए था या किसी एक मंत्री की इच्छा? 26 दिंसंबर 2007 को राजा ने प्रधानमंत्री को जो पत्र लिखा उसकी भाषा मंत्रिमंडल के सदस्य की अपने प्रधानमंत्री के लिए नहीं हो सकती थी। राजा ने उसमें यह इरादा स्पष्ट कर दिया था कि वह 15 दिनों के अंदर लाइसेंस देने की दिशा में आगे बढ़ने को कृत संकल्पित हैं। ऐसे दो टूक जवाब के बाद प्रधानमंत्री यदि कहते हैं कि उन्हें जानकारी नहीं थी या उनका कार्यालय अनभिज्ञ बता रहा है तो क्या कोई जांच समिति इस पर मुहर लगा देगी? वित्त मंत्री के रूप में पी. चिदंबरम के बारे में कहा गया है कि उनके रवैये से समिति स्तब्ध एवं निराश है। वित्तमंत्री की भूमिका देश के खजाने के अभिभावक की है। यह समझने के बावजूद कि 2 जी स्पेक्ट्रम दुर्लभ है, उन्होंने एक अनूठा और कृपालु सुझाव दिया कि इस मामले को बंद समझा जाए। क्यों? मामले को बंद करने का सुझाव देकर यह कहना कि इसमें हमारा कोई दोष नहीं था, देश कतई स्वीकार नहीं कर लेगा। यह बात गले नहीं उतर सकती है कि 2 जी स्पेक्ट्रम आवंटन के पीछे धन का बड़ा खेल चल रहा था और उसका केंद्र तमिलनाडु था, पर बतौर वित्त मंत्री एवं राजनेता चिदंबरम को इसकी भनक तक नहीं थी। इस संदर्भ में समिति की यह सिफारिश बिल्कुल उचित है कि इसकी जांच होनी चाहिए। इस मामले की सरसरी छानबीन भी यह भयावह तथ्य उजागर कर देती है कि सरकार की प्रत्येक मशीनरी भ्रष्टाचार की गति के अनुसार अपनी लय ताल बदल रही थी। दूरसंचार विभाग एवं महाधिवक्ता गुलाम वाहनवती ने क्या किया? इन्होंने भी पूरी प्रक्रिया न अपनाकर स्वान को समर्थन देने की भूमिका अपनाई। स्वान का स्वामित्व रिलायंस एडीएजी के पास था और इस कारण यह लाइसेंस की पात्र नहीं थी। इसकी मिल्कियत का मामला वाहनवती जानते थे। समिति का यह प्रश्न बिल्कुल वाजिब है कि उन्हें भी इस बात का स्पष्टीकरण देना चाहिए कि उन्होंने दूरसंचार विभाग को यह विषय कॉरपोरेट मामले से संबंधित मंत्रालय भेजने से क्यों रोका? ये सारे तथ्य पहले से देश के सामने आ चुके हैं। लोक लेखा समिति का मुख्य दायित्व ही यह देखने का है कि आम जनता के कर की जो राशि संसद ने जिस काम के लिए आवंटित की उसका सही प्रकार और जितनी आवश्यकता है उतना ही उपयोग हुआ या नहीं। इसमें अपव्यय, हानि एवं निरर्थक व्यय की ओर ध्यान दिलाना भी शामिल है। जो लोग लोक लेखा समिति में सर्वसम्मति नहीं होने की बात उठा रहे हैं उन्हें भी यह भान होगा कि यह किसी सूरत में संभव नहीं। संयुक्त संसदीय समिति के गठन के बाद जिस तरह कांग्रेस के सदस्यों एवं उसके अध्यक्ष पीसी चाको ने लोक लेखा समिति की प्रासंगिकता पर गैर वाजिब प्रश्न उठाना शुरू किया वह देश के सामने है। भ्रष्टाचार के इतने बड़े मामले पर तीखे राजनीतिक ध्रुवीकरण से ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण देश के लिए कुछ नहीं हो सकता। पराकाष्ठा यह कि इसका नेतृत्व सरकार एवं उससे जुड़ी पार्टियां कर रहीं हैं। इस मानसिकता में संयुक्त संसदीय समिति से भी विशेष उम्मीद बेमानी होगी। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं).

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