कांशीराम सत्ता की गुरुकिल्ली यानी मास्टर चाबी की बात किया करते थे। यह गुरुकिल्ली दलितों को मिली जरूर, पर मायावती ने यह गुरुकिल्ली लखनऊ के मुख्यमंत्री कार्यालय के पंचम तल को खोलने भर के लिए सीमित कर दी..
कांशीराम सत्ता की गुरुकिल्ली यानी मास्टर चाबी की बात किया करते थे। यह गुरुकिल्ली दलितों को मिली जरूर, पर मायावती ने यह गुरुकिल्ली लखनऊ के मुख्यमंत्री कार्यालय के पंचम तल को खोलने भर के लिए सीमित कर दी..न दिनों डॉ. अंबेडकर के रिपब्लिकन आंदोलन के गृह प्रदेश महाराष्ट्र में भीमशक्ति और शिवशक्ति के संभावित गठबंधन को लेकर रिपब्लिकन राजनीति सुर्खियों में है। डॉ. अंबेडकर कांग्रेस विरोधी थे, लेकिन रिपब्लिकन आंदोलन डॉ. अंबेडकर के जीवन काल के बाद कांग्रेसी चक्रव्यूह में उलझ गया। उससे मुक्ति पाने के लिए उसमें एक अरसे से कसमसाहट है। बाबासाहेब दलितों को गुलामी से मुक्ति दिलाकर सत्ताधीश बनने के लिए ललकारते थे। आजन्म उन्होंने कांग्रेस को एक जलता हुआ घर माना और जिस दिशा में उस घर से बहने वाली बयार आती हो, वहां न खड़े रहने के लिए अपने अनुयायियों को सचेत करते रहे। लेकिन जैसा कि हर महापुरुष के साथ होता है, उसके अनुयायी अक्सर वही सब करते हैं जिसका उनके युगावतार ने विरोध किया हो। इस सच से कोई इंकार नहीं कर सकता कि महाराष्ट्र का रिपब्लिकन आंदोलन डॉ. अंबेडकर के बताए मार्ग से भटका और जिस व्यक्ति ने उनके बताए मार्ग को पहचाना, वह अकेले कांशीराम थे। कांशीराम ने अंबेडकर जयंती के दिन ही 1984 में बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की और सिर्फ नौ वर्षो की कालावधि में उत्तर प्रदेश जैसे राज्य की सत्ता में साझेदारी की। राजनीतिक अस्पृश्यता से दूरी बनाने की उनकी नीति ने दो दशक के अंतराल में बसपा को अकेले के बूते उत्तर प्रदेश की सत्ता दलितों के हवाले कर दी। जिन कांशीराम ने डॉ. अंबेडकर के स्वप्न को मूर्तिमान किया, क्या उनका राष्ट्रीय स्तर पर उचित मूल्यांकन हुआ? क्या कांशीराम की राजनीतिक वारिस मायावती कांशीराम की नीतियों का अनुसरण कर रही हैं? क्या महाराष्ट्र के दलित नेता कांशीराम के दलित आंदोलन की बारीक समझ रखते हैं? बीते सप्ताह कांशीराम के परिजनों ने अंबेडकर जयंती पर बहुजन संघर्ष पार्टी की स्थापना की। ‘बामसेफ’ और ‘डीएस-4’ के जमाने के कांशीराम के साथी मायावती पर बहुजन आंदोलन को भटकाने का आरोप लगाते हैं। बहुजन संघर्ष पार्टी की स्थापना दलित आंदोलन की कांशीराम धारा की पुनर्जागृति का संकेत है। रिपब्लिकन नेता रामदास आठवले जिस अंदाज में अभी तक शिवशक्ति और भीमशक्ति के गठबंधन पर अड़े हुए हैं, वह दलित समाज द्वारा कांशीराम की धारा को मान्यता देने का प्रमाण है।
कांशीराम सत्ता की गुरुकिल्ली यानी मास्टर चाबी की बात किया करते थे। यह गुरुकिल्ली दलितों को मिली जरूर, पर मायावती ने यह गुरुकिल्ली लखनऊ के मुख्यमंत्री कार्यालय के पंचम तल को खोलने भर के लिए सीमित कर दी। कांशीराम संसाधन विहीनता की स्थिति में जिस गुरुकिल्ली का निर्माण कर गए, संसाधन संपन्न बसपा आज उसका विस्तार कर पाने में असमर्थ है। कांशीराम ने कभी अपने राजनीतिक गॉडफादर की तलाश में समय नहीं जाया किया। जब बसपा का उदय हुआ, तब सत्ता की राजनीति में बाबू जगजीवन राम सफलतम दलित माने जाते थे। 1970 के दशक में उनका नाम प्रधानमंत्री पद के लिए चर्चा में आया था। 1985 के बिजनौर के उपचुनाव में कांशीराम ने सबसे पहले इस स्थापित दलित नेतृत्व को ही चुनौती दी। उन्होंने भारतीय विदेश सेवा छोड़कर राजनीति के मैदान में उतरी जगजीवन राम की पुत्री मीरा कुमार के सामने मायावती को बिजनौर के चुनाव मैदान में उतारा। मायावती के जरिए बसपा ने बिजनौर की लड़ाई में साबित कर दिया कि कांग्रेसी दलित नेताओं का जमाना लद चुका है। मायावती बिजनौर का चुनाव जरूर मीरा कुमार से हारी थीं पर उन्होंने 61 हजार वोट हासिल कर 1984 में उस सीट से कांग्रेस की 95 हजार मतों की जीत के अंतर को केवल पांच हजार पर ला पटका था। चुनाव मैदान में दूसरे दिग्गज को चुनौती भी कांशीराम ने इसी स्टाइल में 1987 में दिया। उस समय राम विलास पासवान जनता दल का दलित चेहरा थे। उनके नाम पर रिकॉर्ड मतों से लोकसभा चुनाव जीतने का श्रेय था। पासवान को विश्वनाथ प्रताप सिंह जगजीवन राम द्वारा छोड़े गए शून्य को भरने का योग्यतम पात्र मानते थे। कांशीराम को कबूल नहीं था कि कोई अगड़ा दलित नेतृत्व का निर्णय ले। 1987 में राम विलास पासवान हरिद्वार से लोकसभा का उपचुनाव लड़ने के लिए उतरे। यदि पासवान चुनाव जीत जाते तो राष्ट्रीय स्तर पर वे दलितों के नेता के रूप में उभरते, लेकिन कांशीराम ने मायावती को हरिद्वार के चुनाव मैदान में उतारकर पासवान के मंसूबे को ध्वस्त कर दिया। मायावती को उस समय एक लाख 35 हजार 225 वोट मिले। लगभग 15 हजार वोटों से कांग्रेस प्रत्याशी जीत गया। कांग्रेस की ताकत के खिलाफ 23 दलों का संयुक्त विपक्ष पासवान के साथ था। हरिद्वार के इस चुनाव को 1981 के लोकसभा चुनावों का निर्देश माना जा रहा था। कांशीराम 1980 के दशक में यह चमत्कार अकेले अपने सांगठनिक बूते पर कर रहे थे। इलाहाबाद के ऐतिहासिक उपचुनाव में विश्वनाथ प्रताप सिंह को 2,03,000 वोट तो कांग्रेस को 90 हजार वोट मिले थे। इस सीधे मुकाबले में भी कांशीराम को 71,586 वोट मिले। यह सब कांशीराम निरंतर प्रचार यात्राओं और आंदोलनकारी कार्यक्रमों के बूते कर पा रहे थे। उन्होंने बसपा का गठन करने के लिए पूरे देश को सौ डिवीजनों में बांटा। पूरे देश में साढ़े तीन हजार से ज्यादा दफ्तर खोले। यह सब करने तक कांशीराम के अलावा बसपा में कोई पदाधिकारी नहीं होता था। प्रांतीय और स्थानीय स्तर पर पार्टी के प्रमुख कार्यकर्ता को संयोजक कहा जाता था। हर मंडल में एक मंडीलय संयोजक बनाया गया। कांशीराम नियुक्ति के समय ही कह देते थे कि हर संयोजक की जवाबदेही सीधे उनके प्रति है। उन्होंने सांगठनिक विस्तार के साथ-साथ बसपा की एक अनुसंधान शाखा बनाई।
कांशीराम सत्ता की गुरुकिल्ली यानी मास्टर चाबी की बात किया करते थे। यह गुरुकिल्ली दलितों को मिली जरूर, पर मायावती ने यह गुरुकिल्ली लखनऊ के मुख्यमंत्री कार्यालय के पंचम तल को खोलने भर के लिए सीमित कर दी। कांशीराम संसाधन विहीनता की स्थिति में जिस गुरुकिल्ली का निर्माण कर गए, संसाधन संपन्न बसपा आज उसका विस्तार कर पाने में असमर्थ है। कांशीराम ने कभी अपने राजनीतिक गॉडफादर की तलाश में समय नहीं जाया किया। जब बसपा का उदय हुआ, तब सत्ता की राजनीति में बाबू जगजीवन राम सफलतम दलित माने जाते थे। 1970 के दशक में उनका नाम प्रधानमंत्री पद के लिए चर्चा में आया था। 1985 के बिजनौर के उपचुनाव में कांशीराम ने सबसे पहले इस स्थापित दलित नेतृत्व को ही चुनौती दी। उन्होंने भारतीय विदेश सेवा छोड़कर राजनीति के मैदान में उतरी जगजीवन राम की पुत्री मीरा कुमार के सामने मायावती को बिजनौर के चुनाव मैदान में उतारा। मायावती के जरिए बसपा ने बिजनौर की लड़ाई में साबित कर दिया कि कांग्रेसी दलित नेताओं का जमाना लद चुका है। मायावती बिजनौर का चुनाव जरूर मीरा कुमार से हारी थीं पर उन्होंने 61 हजार वोट हासिल कर 1984 में उस सीट से कांग्रेस की 95 हजार मतों की जीत के अंतर को केवल पांच हजार पर ला पटका था। चुनाव मैदान में दूसरे दिग्गज को चुनौती भी कांशीराम ने इसी स्टाइल में 1987 में दिया। उस समय राम विलास पासवान जनता दल का दलित चेहरा थे। उनके नाम पर रिकॉर्ड मतों से लोकसभा चुनाव जीतने का श्रेय था। पासवान को विश्वनाथ प्रताप सिंह जगजीवन राम द्वारा छोड़े गए शून्य को भरने का योग्यतम पात्र मानते थे। कांशीराम को कबूल नहीं था कि कोई अगड़ा दलित नेतृत्व का निर्णय ले। 1987 में राम विलास पासवान हरिद्वार से लोकसभा का उपचुनाव लड़ने के लिए उतरे। यदि पासवान चुनाव जीत जाते तो राष्ट्रीय स्तर पर वे दलितों के नेता के रूप में उभरते, लेकिन कांशीराम ने मायावती को हरिद्वार के चुनाव मैदान में उतारकर पासवान के मंसूबे को ध्वस्त कर दिया। मायावती को उस समय एक लाख 35 हजार 225 वोट मिले। लगभग 15 हजार वोटों से कांग्रेस प्रत्याशी जीत गया। कांग्रेस की ताकत के खिलाफ 23 दलों का संयुक्त विपक्ष पासवान के साथ था। हरिद्वार के इस चुनाव को 1981 के लोकसभा चुनावों का निर्देश माना जा रहा था। कांशीराम 1980 के दशक में यह चमत्कार अकेले अपने सांगठनिक बूते पर कर रहे थे। इलाहाबाद के ऐतिहासिक उपचुनाव में विश्वनाथ प्रताप सिंह को 2,03,000 वोट तो कांग्रेस को 90 हजार वोट मिले थे। इस सीधे मुकाबले में भी कांशीराम को 71,586 वोट मिले। यह सब कांशीराम निरंतर प्रचार यात्राओं और आंदोलनकारी कार्यक्रमों के बूते कर पा रहे थे। उन्होंने बसपा का गठन करने के लिए पूरे देश को सौ डिवीजनों में बांटा। पूरे देश में साढ़े तीन हजार से ज्यादा दफ्तर खोले। यह सब करने तक कांशीराम के अलावा बसपा में कोई पदाधिकारी नहीं होता था। प्रांतीय और स्थानीय स्तर पर पार्टी के प्रमुख कार्यकर्ता को संयोजक कहा जाता था। हर मंडल में एक मंडीलय संयोजक बनाया गया। कांशीराम नियुक्ति के समय ही कह देते थे कि हर संयोजक की जवाबदेही सीधे उनके प्रति है। उन्होंने सांगठनिक विस्तार के साथ-साथ बसपा की एक अनुसंधान शाखा बनाई।
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