Monday, April 4, 2011

सिंगुर व नंदीग्राम को समझने में हुई भूल


वाम मोर्चे के राजनीतिक भविष्य के संदर्भ में जागरण के सवालों के जवाब दे रहे हैं माकपा पोलित ब्यूरो के सदस्य सीताराम येचुरी
साढ़े तीन दशक पुरानी वाम मोर्चा सरकार को देखते-देखते बड़े हुए पश्चिम बंगाल के युवा मतदाता अब बदलाव चाहते हैं, जबकि केरल में माकपा के भीतर बड़े नेताओं के बीच की धड़ेबाजी ने इस चुनावी समर को और कठिन बना दिया है। इन दोनों राज्यों की सत्ता से उखड़ते पांवों की आहट वाम मोर्चा को हो गई है। विधानसभा चुनावों और पार्टी की रणनीति पर माकपा पोलित ब्यूरो सदस्य सीताराम येचुरी से जागरण के विशेष संवाददाता सुरेंद्र प्रसाद सिंह ने लंबी बातचीत की। प्रस्तुत है इसके अंश- राजनीतिक गठबंधन बनते हैं और बिखर जाते हैं, पर वाम मोर्चा को कौैन-सा जोड़ है जोड़े रखता है? राजनीतिक गठबंधन दो तरह के होते हैं- पहला, चुनावी जोड़तोड़ की राजनीति और दूसरा विचारधारा व सिद्धांतों का गठबंधन। वाम दलों का गठबंधन दूसरी तरह का है। इसके अपने स्पष्ट सिद्धांत हैं। विचारधारा के अनुरूप देश की नीतियां तय करने के लिए जन आंदोलन ही माध्यम बनता है। पश्चिम बंगाल के चुनाव में वाम मोर्चा पिछड़ रहा है। क्या इसे संप्रग-1 को समर्थन देने के खामियाजा के रूप में देख रहे हैं? यह भी एक वजह है। संप्रग-एक को समर्थन देने का नुकसान यह हुआ कि पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा विरोधी राजनीतिक दल एकजुट हो गए। इससे मोर्चा को कड़ी टक्कर मिल रही है। तृणमूल व कांग्रेस गठबंधन मजबूत हुआ है। 2006 के चुनाव में वाम मोर्चा को तीन-चौथाई बहुमत मिला था। उस समय हमें 51 फीसदी मत मिला और विपक्ष को 49 फीसदी। विरोधी दलों में बिखराव के कारण उसका फायदा उन्हें नहीं मिला। पश्चिम बंगाल चुनाव में युवा मतदाताओं की भूमिका अहम होने वाली है। सत्तारूढ़ वाम मोर्चा से क्या उनका मोहभंग नहीं हुआ है? लगातार सात बार से सरकार बना रहे वाम मोर्चा के शासनकाल में राज्य के दो-तिहाई मतदाता पैदा हुए हैं। इन युवा मतदाताओं ने अपने जीवनकाल में किसी और दल की सरकार देखी ही नहीं है। वे परिवर्तन के बारे में स्वाभाविक तौर पर सोचने लगे हैं। लेकिन उसको ध्यान में रखते हुए हमने कुछ कदम उठाएं हैं, जिन्हें चुनाव में सराहा जा रहा है। क्या उपाय किए हैं? हमने चुनाव में मोर्चे के 151 उम्मीदवारों को बदल दिया है। बदलाव देखने वालों को इससे राहत मिली है। सरकार से नाराजगी या पुराने चेहरों से ऊबे मतदाताओं के लिए यह एक बड़ा परिवर्तन है। क्या इतने भर से मतदाता वाम मोर्चा सरकार को फिर से समर्थन देंगे? हमने अपनी गलतियों को पहचाना है। इससे निपटने के लिए कई और भी उपाय किए हैं, जो कारगर साबित होंगे। खासतौर पर 2006 के चुनाव के बाद हमने मान लिया था कि जनता ने हमारी नीतियों को स्वीकार कर लिया है। यही हमारी सबसे बड़ी गलती थी। इससे जनता व जन प्रतिनिधियों के बीच की दूरी लगातार बढ़ती चली गई, लेकिन अब डैमेज कंट्रोल के सभी उपाय किए गए हैं। आखिर आप अपनी सरकार की गलतियां किसे मान रहे हैं? सिंगुर और नंदीग्राम को समझने में गंभीर चूक हुई। बंगाल में बेरोजगारी बड़ी समस्या है। वहां के गरीब किसानों के पास जो जमीन है, अब उससे उनके परिवार का भरण पोषण नहीं होने वाला है। सिंगुर में 1000 एकड़ जमीन के लिए 12,000 लोगों को मुआवजा दिया गया। यानी एक एकड़ जमीन के मालिक 12 लोग हो चुके हैं। जमीन की जोत छोटी हो गई है। उनकी जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए औद्योगिकीकरण ही एकमात्र रास्ता बचा था। पिछले चुनाव में सत्ता में लौटने के बाद हमें लगा कि जनता ने हमारी नीतियों पर मुहर लगा दी है। यही हमारी बड़ी चूक थी। पश्चिम बंगाल में किसानों की जमीन के अधिग्रहण का क्या यह सही तरीका था? बिल्कुल नहीं। चूक के कारण हमने अपनी ही कार्यप्रणाली को दरकिनार कर दिया। बंगाल में जमीन के अधिग्रहण के पहले हर गांव में एक कमेटी बनती थी, जिसकी राय को प्राथमिकता दी जाती थी। इसके बाद मुख्यमंत्री खुद शनिवार व रविवार को गांव वालों के बीच जाते थे। पार्टी के होमवर्क की इस चूक से लोगों की नाराजगी बहुत बढ़ गई। बढ़ती नाराजगी को पहचाने में भी देर हुई। क्या यही चूक चुनाव में वाम मोर्चा पर भारी नहीं पड़ रही है? इसी चूक को विपक्ष ने लपक लिया, जिसे पहचानने में हमने देरी की, लेकिन अपनी गलतियां हम स्वीकार कर रहे हैं। सिंगुर का उल्टा प्रभाव नंदीग्राम पर पड़ा। वहां राज्य सरकार ने एक इंच जमीन का अधिग्रहण नहीं किया। केंद्र सरकार जरूर वहां केमिकल हब बनाना चाहती थी। विपक्ष के प्रचार से लोगों को लगा कि सरकार उनकी जमीन लेने जा रही है, जो वाम मोर्चा को भारी पड़ा। क्या यह काडर की विफलता हैं? हम इसे अपने काडर की विफलता मानते हैं। विधानसभा चुनाव जीतने के साथ ही काडर भी मुगालते में आ गया। जनता के साथ उनका तालमेल खत्म हो गया। पार्टी नीतियां भी आम लोगों तक नहीं पहुंच पा रही थीं। क्या वजह है कि केरल व पश्चिम बंगाल में माकपा के भीतर जबर्दस्त धड़ेबाजी खुलकर सामने आई है? पार्टी में धड़ेबाजी दिखी जरूर, पर ऐसा है नहीं। खासतौर से चुनाव में उम्मीदवारों के चयन में पार्टी की आंतरिक व्यवस्था है, जिसके माध्यम से हम निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। राज्य कमेटी की सूची को जिला कमेटियों की मंजूरी के बाद ही अंतिम रूप दिया जाता है। केरल में अच्युतानंदन के टिकट के लिए हर बार पोलित ब्यूरो को ही क्यों हस्तक्षेप करना पड़ता है? उम्मीदवारों की सूची को राज्य कमेटी तय करती है। केरल की अंतिम सूची में अच्युतानंदन का नाम नहीं था। यह सही है कि जिला कमेटियों की राय से पोलित ब्यूरो ने उनका नाम सूची में शामिल किया, जिस पर राज्य कमेटी ने कोई विरोध नहीं किया। दरअसल पहले अच्युतानंदन की 87 साल की उम्र को देखते हुए उनका नाम शामिल नहीं किया गया था। पी. विजयन और अच्युतानंदन के बीच की रस्साकशी क्या पार्टी पर भारी पड़ेगी? यह मीडिया में बनाई गई छवि है। पार्टी में किसी मुद्दे पर दो राय हो सकती है, जो हमारी पार्टी की जान भी है, लेकिन पार्टी के भीतर की अलग-अलग राय को गुटबाजी के रूप में देखना उचित नहीं है। हमारी पार्टी चुनाव अपने काडर के बूते लड़ती है। प्रकाश करात चुनावी राजनीति से रिटायरमेंट की बात सोच रहे हैं। इस पर विचार होगा? फिलहाल विधानसभा चुनाव अहम हैं। पार्टी के सामने इसके अलावा और कोई मुद्दा नहीं है|

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