किसी देश या समाज में जब किसी क्रांतिकारी बदलाव की आहट सुनाई पड़ने लगती है तो प्रतिक्रियावादी शक्तियां उसका छिद्रान्वेषण करके उसे रोकने का हरसंभव प्रयास करती हैं। विश्व इतिहास यही बताता है। पहली बार आम आदमी के सहयोग से बन रहे लोकपाल बिल को इसी नजरिये से देखने की जरूरत है। यह भ्रष्टाचार से युक्त वर्तमान व्यवस्था को बदलने का मजबूत हथियार हो सकता है। लेकिन जिस वरिष्ठ मंत्री कपिल सिब्बल को अनशन पर बैठे अन्ना से बातचीत की कमान सौंपी गई थी अगर वही इस प्रस्तावित कानून की बखिया उघेड़ने लगें तो शंका उठने लगती है। अन्ना ने अपना अनशन तोड़ा तो सरकार के साथ-साथ कपिल सिब्बल की भूमिका की भी प्रशंसा की गई। लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करने वाली संयुक्त समिति में उन्हें सरकार की ओर से नामित भी किया गया है। अगर कपिल सिब्बल संयुक्त समिति की बैठक से पहले यह कहते हैं कि यदि कोई बच्चा अशिक्षित है, यदि एक गरीब आदमी बीमार है तो यह लोकपाल विधेयक उसकी मदद कैसे करेगा, तो इससे अचरज कम आशंका ज्यादा होती है क्योंकि इस बिल के प्रति सरकार ने जो सदिच्छा जतायी है उस पर सवाल खड़ा होता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों के मद्देनजर सरकार ने अन्ना की सभी मांगों को आनन-फानन में महज इसलिए मान लिया ताकि इस आंदोलन की आंच चुनाव नतीजों को प्रभावित न कर पाये। अगर ऐसा नहीं है तो कपिल सिब्बल को अपनी वाणी पर संयम रखना चाहिए क्योंकि वह सरकार में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी का निर्वहन कर रहे हैं। पहले भी सिब्बल टू जी स्पैक्ट्रम के आवंटन में हुए घोटाले के मामले में यह बयान देकर विवाद में फंस गये थे कि इसमें रुपये-पैसे की कोई हेरा-फे री नहीं हुई है। कहते हैं जुबान से निकली बात और कमान से निकला तीर कभी वापस नहीं आता। पेशे से नामी-गिरामी वकील कपिल सिब्बल को इस बात का पता नहीं होगा, ऐसा तो बिल्कुल नहीं कहा जा सकता। दरअसल, हमारी संवैधानिक संस्थाओं और समाज में अभी भी ऐसे अनेक तत्व हैं जिनकी मानसिकता और पृष्ठभूमि सामंती रही है और वे किसी भी प्रगतिशील कदम का विरोध करके यथास्थितिवाद बनाये रखना चाहते हैं जबकि परिस्थितियां संवैधानिक सुधारों की मांग करती हैं। दरअसल, जिसे हम लोकपाल कह रहे हैं, उसे लोक प्रशासन की भाषा में ओम्बड्समैन कहते हैं। विश्व के कुछ देशों में जहां लोकतंत्र है वहां ओम्बड्समैन पद की भी व्यवस्था है। जिसका काम जनहित की सुरक्षा करना है। इसलिए लोकपाल बिल का पारित होना जनपक्षीय कदम साबित होगा इसमें संदेह नहीं है। यह सच है कि अकेले लोकपाल बिल से समूचे सामाजिक- राजनीतिक भ्रष्टाचार का अंत नहीं होगा। यह क्रमिक सुधारों की मांग करता है जिससे मूल्य और नैतिकता आधारित राजनीति बहाल हो सके। इस दिशा में लोकपाल बिल पहला कदम हो सकता है। इसलिए इसके पारित होने तक सरकारी और आंदोलनकारी दोनों पक्षों को अपनी जुबान पर नियंतण्ररखने की जरूरत है। इसमें ही वास्तविक देशहित निहित है।
Wednesday, April 13, 2011
जुबान संभाल कर
किसी देश या समाज में जब किसी क्रांतिकारी बदलाव की आहट सुनाई पड़ने लगती है तो प्रतिक्रियावादी शक्तियां उसका छिद्रान्वेषण करके उसे रोकने का हरसंभव प्रयास करती हैं। विश्व इतिहास यही बताता है। पहली बार आम आदमी के सहयोग से बन रहे लोकपाल बिल को इसी नजरिये से देखने की जरूरत है। यह भ्रष्टाचार से युक्त वर्तमान व्यवस्था को बदलने का मजबूत हथियार हो सकता है। लेकिन जिस वरिष्ठ मंत्री कपिल सिब्बल को अनशन पर बैठे अन्ना से बातचीत की कमान सौंपी गई थी अगर वही इस प्रस्तावित कानून की बखिया उघेड़ने लगें तो शंका उठने लगती है। अन्ना ने अपना अनशन तोड़ा तो सरकार के साथ-साथ कपिल सिब्बल की भूमिका की भी प्रशंसा की गई। लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करने वाली संयुक्त समिति में उन्हें सरकार की ओर से नामित भी किया गया है। अगर कपिल सिब्बल संयुक्त समिति की बैठक से पहले यह कहते हैं कि यदि कोई बच्चा अशिक्षित है, यदि एक गरीब आदमी बीमार है तो यह लोकपाल विधेयक उसकी मदद कैसे करेगा, तो इससे अचरज कम आशंका ज्यादा होती है क्योंकि इस बिल के प्रति सरकार ने जो सदिच्छा जतायी है उस पर सवाल खड़ा होता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों के मद्देनजर सरकार ने अन्ना की सभी मांगों को आनन-फानन में महज इसलिए मान लिया ताकि इस आंदोलन की आंच चुनाव नतीजों को प्रभावित न कर पाये। अगर ऐसा नहीं है तो कपिल सिब्बल को अपनी वाणी पर संयम रखना चाहिए क्योंकि वह सरकार में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी का निर्वहन कर रहे हैं। पहले भी सिब्बल टू जी स्पैक्ट्रम के आवंटन में हुए घोटाले के मामले में यह बयान देकर विवाद में फंस गये थे कि इसमें रुपये-पैसे की कोई हेरा-फे री नहीं हुई है। कहते हैं जुबान से निकली बात और कमान से निकला तीर कभी वापस नहीं आता। पेशे से नामी-गिरामी वकील कपिल सिब्बल को इस बात का पता नहीं होगा, ऐसा तो बिल्कुल नहीं कहा जा सकता। दरअसल, हमारी संवैधानिक संस्थाओं और समाज में अभी भी ऐसे अनेक तत्व हैं जिनकी मानसिकता और पृष्ठभूमि सामंती रही है और वे किसी भी प्रगतिशील कदम का विरोध करके यथास्थितिवाद बनाये रखना चाहते हैं जबकि परिस्थितियां संवैधानिक सुधारों की मांग करती हैं। दरअसल, जिसे हम लोकपाल कह रहे हैं, उसे लोक प्रशासन की भाषा में ओम्बड्समैन कहते हैं। विश्व के कुछ देशों में जहां लोकतंत्र है वहां ओम्बड्समैन पद की भी व्यवस्था है। जिसका काम जनहित की सुरक्षा करना है। इसलिए लोकपाल बिल का पारित होना जनपक्षीय कदम साबित होगा इसमें संदेह नहीं है। यह सच है कि अकेले लोकपाल बिल से समूचे सामाजिक- राजनीतिक भ्रष्टाचार का अंत नहीं होगा। यह क्रमिक सुधारों की मांग करता है जिससे मूल्य और नैतिकता आधारित राजनीति बहाल हो सके। इस दिशा में लोकपाल बिल पहला कदम हो सकता है। इसलिए इसके पारित होने तक सरकारी और आंदोलनकारी दोनों पक्षों को अपनी जुबान पर नियंतण्ररखने की जरूरत है। इसमें ही वास्तविक देशहित निहित है।
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