Saturday, April 9, 2011

संवेदनहीन सरकार


भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने और सक्षम लोकपाल विधेयक लाने के लिए आमरण अनशन पर बैठे सुप्रसिद्ध समाजसेवी अन्ना हजारे के प्रतिनिधियों से तीसरे दौर की वार्ता के बाद सरकार जिस तरह कुछ और नरम पड़ी और जिसके चलते समाधान की राह नजर आई उससे यह साफ हुआ कि उसे अपनी फजीहत के बाद ही इसका भान होता है कि क्या किया जाना चाहिए और क्या नहीं? ध्यान रहे कि उसने ऐसा ही आचरण स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति गठित करने के मामले में भी किया था। यह भी सभी को अच्छी तरह याद है कि वह दागदार केंद्रीय सतर्कता आयुक्त पीजे थॉमस को तब तक नेक और सुयोग्य बताती रही जब तक सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें बाहर का रास्ता नहीं दिखा दिया। यदि वह भ्रष्टाचार से लड़ने के प्रति तनिक भी प्रतिबद्ध होती तो अन्ना हजारे के अनशन पर बैठने की नौबत ही नहीं आती। इस पर भी गौर करें कि वह तब चेतती हुई नजर आई जब देश भर में उसके खिलाफ माहौल बन गया। केंद्र सरकार दीवार पर लिखी इबारत को पढ़ने-समझने से जिस तरह इंकार करती रही है उससे उसकी संवेदनहीनता का ही प्रमाण मिलता है। यदि उसे जनता की भावनाओं और अपेक्षाओं की तनिक भी परवाह होती तो अब तक उसे यह अहसास अवश्य हो गया होता कि देशवासी भ्रष्टाचार से निपटने के उसके खोखले आश्वासनों से पक गए हैं। उन्हें इस पर भरोसा नहीं कि केंद्र सरकार भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के मामले में ईमानदार है। यह स्थिति इसलिए बनी है, क्योंकि उसकी कथनी और करनी में कहीं कोई साम्य नहीं दिखता। पिछले आठ-नौ माह से घपले-घोटाले के अकल्पनीय मामले सामने आ रहे हैं और फिर भी सरकार इस राग तक सीमित है कि हम भ्रष्टाचार को लेकर गंभीर हैं और उस पर लगाम लगाने के लिए तत्पर हैं। आखिर यह कैसी गंभीरता और तत्परता है कि एक निष्प्राण लोकपाल विधेयक तैयार किया गया? लोकपाल विधेयक के सरकारी मसौदे से तो ऐसा प्रकट होता है कि केंद्र सरकार के नीति-नियंताओं को भ्रष्ट तत्वों के हितों की चिंता अधिक है। यदि ऐसा नहीं है तो फिर इस विधेयक के ऐसे प्रावधान का क्या मतलब कि लोकपाल को खुद किसी शिकायत पर कार्रवाई करने का अधिकार नहीं होगा? क्या यह हास्यास्पद नहीं कि किसी सांसद या मंत्री के खिलाफ लोकपाल तब तक सक्रियता नहीं दिखा सकता जब तक लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति इसकी अनुमति न दें? यह भी समझ से परे है कि इस विधेयक से नौकरशाहों और न्यायाधीशों को क्यों बाहर रखा गया है? क्या इससे निष्प्राण, निरर्थक और निराशाजनक विधेयक और कोई हो सकता है? यह मजाक नहीं तो और क्या है कि ऐसा विधेयक वह सरकार ला रही है जो पिछले आठ वर्षो से सत्ता में है? यदि सरकार भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए प्रतिबद्ध है जैसा कि बार-बार बताया जा रहा है तो फिर केंद्रीय जांच ब्यूरो को स्वायत्त बनाने और केंद्रीय सतर्कता आयोग को पर्याप्त अधिकार देने की दिशा में कोई पहल क्यों नहीं हो रही है? सरकार के दावे कुछ भी हों, उसमें भ्रष्टाचार से लड़ने की न तो इच्छा है और न ही शक्ति। जब इरादे नेक न हों तो उपयुक्त व्यवस्था भी निष्प्रभावी साबित होती है।


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