चिदम्बरम या अन्य नेताओं की विद्वेषपूर्ण बयानबाजी से कुपित होना काफी नही है। इस असंतोष की अभिव्यक्ति उत्तर भारत के पुनर्निर्माण के सशक्त कार्यक्रम में भी होना चाहिए। अगर केंद्र इस क्षेत्रीय विषमता को दूर करना नहीं चाहता और इस पुनर्निर्माण की दिशा में ठोस कदम उठाना नहीं चाहता, तो उत्तर भारत को अपने सीमित संसाधनों को जोड़ कर और उनका रचनात्मक उपयोग करने की पहल करनी चाहिए। इस बवाल का सबक यही है
ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार के गृहमंत्री पी. चिदम्बरम देश भर के गृहमंत्री नहीं, बल्कि सिर्फ दक्षिण और पश्चिम भारत के गृहमंत्री हैं। अमेरिकी राजदूत से बात करते हुए उन्होंने कहा कि भारत और अधिक उन्नति कर सकता था। यदि देश में सिर्फ दक्षिण और पश्चिम भारत के राज्य होते। यह स्पष्ट रूप से उत्तर भारत की गम्भीर अवमानना है। कोई और लोकतांत्रिक देश होता, तो ऐसे पूर्वाग्रहग्रस्त गृहमंत्री को तुरंत इस्तीफा दे देना पड़ता। लेकिन हमारे यहां गंगा उलटी बहती है। इसीलिए चिदम्बरम साहब इतना भर कह कर बच गए कि मैं विकीलीक्स द्वारा किए गए इस उद्घाटन की निंदा करता हूं। निंदनीय विकीलीक्स का यह उद्घाटन है या गृहमंत्री का बीमार सोच इस पर चिदम्बरम को कुछ नहीं कहना है क्योंकि सचाई के मामले में विकीलीक्स की साख उनसे कहीं बहुत ज्यादा है। अमेरिकी राजदूत ने भी इस बातचीत का खंडन नहीं किया है। चिदम्बरम भी यह दावा नहीं कर रहे हैं कि विकीलीक्स झूठ बोल रहा है या मेरा आशय कुछ और था। इस तरह, वे अपना अपराध स्वीकार कर रहे हैं पर शर्मिंंदा होने के बजाय विकीलीक्स पर ही इल्जाम मढ़ रहे हैं। इसे ही कहते हैं, संदेश भेजने वाले की जगह संदेशवाहक पर ही हमला कर बैठना।
बयान पर तूफान क्यों नहीं
राममनोहर लोहिया सहित कई नेताओं और विचारकों ने इस सचाई को शब्द देने की हिम्मत दिखाई है कि भारत मूलत: एक मुरदा देश है। बड़ी से बड़ी ट्रेजेडी पर इसकी नसों में स्पंदन नहीं होता। यह बात हमें बुरी या असह्य लग सकती है, पर अपने आचरण द्वारा इस मान्यता का खंडन करने का कोई प्रयास नहीं किया गया है। भारत एकदम मुरदा देश नहीं है, इसके साक्ष्य समय-समय पर मिलते रहे हैं, जिसका हाल का एक उदाहरण है उत्तर प्रदेश में दलित उभार का ज्वार या बिहार में मतदाताओं द्वारा लालू प्रसाद का तिरस्कार। लेकिन ये राख की ढेर से पैदा होने वाली कुछ चिनगारियां भर हैं। आम तौर पर दिल खौलते रहने पर भी उत्तर भारत का बृहत समुदाय सार्वजनिक प्रतिवाद के स्तर पर ऊंघता रहता है। अन्यथा गृह मंत्री चिदम्बरम के इस सनसनीखेज बयान पर हिन्दी भाषी राज्यों में बहुत बड़ा तूफान खड़ा हो जाना चाहिए था। नि:संदेह हिन्दी प्रदेश के कुछ नेताओं ने चिदम्बरम की पर्याप्त खिंचाई की है और प्रधानमंत्री से दरख्वास्त की है कि वे संकीर्ण सोच के इस मंत्री को मंत्रिमंडल से तुरंत हटा दें। अगर ये नेता ऐसा न करते, तो उत्तर भारतीय समुदाय में इनकी साख और गिर जाती। लेकिन अपनी साख की वास्तविक चिंता की मांग इससे कहीं ज्यादा है। वे अगर उत्तर भारत के इस अपमान पर सार्वजनिक आलोड़न पैदा नहीं कर सकते थे, तो अन्ना हजारे की तरह कम से कम जंतर-मंतर पर बैठ तो सकते ही थे। पर संसद में और संसद के बाहर हल्की-सी बयानबाजी कर वे शांत हो गए। मानो कोई दस मिनट तक अपनी बात कह कर चुप बैठ जाना, उनके लिए पर्याप्त हो। इससे उत्तर भारत के राजनीतिक नेतृत्व की आत्महीनता ही जाहिर होती है, जिसे हम राजनीतिक और सामाजिक पराभव का एक और चिह्न मानते हैं।
असमान विकास पर उद्विग्नता क्यों नहीं
सब कुछ के बावजूद, यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उत्तर भारत की विकास दर अन्य राज्यों की तुलना में कम है। यह बात जनसंख्या वृद्धि के हाल ही में प्रकाशित आंकड़ों से भी साबित होती है। देश की आबादी बढ़ाने में उत्तर भारत का योगदान शर्मनाक है। वस्तुत: यह देश के इस सबसे बड़े भूखंड के आर्थिक और सामाजिक ह्रास की कहानी ही सुनाता है। कायदे का सवाल यह नहीं है कि इस गम्भीर मसले पर केंद्रीय गृहमंत्री क्या सोचते हैं; इसलिए कि वे स्वयं दक्षिण भारत के हैं और सम्पूर्ण भारत के प्रति अपने अनुराग के लिए कभी विख्यात नहीं रहे। कायदे का सवाल यह है कि उत्तर भारत का राजनीतिक और बौद्धिक नेतृत्व विकास की इस असमानता पर उद्विग्न क्यों नहीं है? अपने घर की फिक्र हम खुद नहीं करेंगे, तो दूसरों से इसकी उम्मीद क्या की जाए? बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अरसे से अपने राज्य के लिए विशेष पैकेज की मांग निरंतर करते रहे हैं, यह प्रशंसा की बात है। लेकिन अन्य हिन्दी भाषी राज्यों को क्यों सांप सूंघ गया है उनके मुख्यमंत्री सिर्फ इतने से क्यों हरे-भरे नजर आते हैं कि वे अपने-अपने राज्य के मुख्यमंत्री हैं? उनकी महत्त्वाकांक्षा यह कहलाने की क्यों नहीं है कि वे एक विकसित और उन्नत राज्य के मुख्यमंत्री हैं? जैसे नरेंद्र मोदी को, उनकी राजनीति के बारे में जो भी कहिए अपने गुजरात पर गर्व है। उसी तरह हिन्दी भाषी राज्यों के मुख्यमंत्री अपने-अपने राज्य के लिए कुछ ऐसा करने के लिए बेचैन क्यों नहीं हैं कि उस पर वे भी गर्व कर सकें?
सरकारों ने जारी रखी अंग्रेजी-राज की नीति
यह बात नजरअंदाज नहीं की जानी चाहिए कि उत्तर भारत की उपेक्षा अंग्रेजी राज द्वारा उसकी सत्ता के शुरु आती दिनों से ही शुरू हो गई थी। यही वह इलाका है, जिसके हिम्मती लोगों ने 1857 में अंग्रेजी राज को चुनौती दी थी और दोनों ओर से भयावह खून-खराबा हुआ था। बाद में कांग्रेसी नेतृत्व ने भी उस उपेक्षा भाव को जारी रखा, क्योंकि उसे भी इस विद्रोही इलाके के तेवरों से डर लगता था। इसके बावजूद कि कई या सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री इसी इलाके का राजनीतिक प्रतिनिधित्व करते रहे, पर उनके सरोकार अपने-अपने चुनाव क्षेत्र से आगे कभी नहीं गए। अमेठी, बलिया, मुजफ्फरपुर, सासाराम और लखनऊ ही उत्तर भारत नहीं हैं। कुछ इलाकों को चमकाने भर से उत्तर भारत की विशाल जनसंख्या के चेहरे पर मुस्कान नहीं आ सकती। ध्यान देने की बात है कि माओवाद से अनुराग रखने वाले लोगों में एक बड़ी संख्या हिन्दी भाषी राज्यों में ही बसती है। यह इस तथ्य की ओर एक गम्भीर संकेत है कि इन राज्यों में जन असंतोष का स्तर ऊंचा है। इसलिए सिर्फ चिदम्बरम या अन्य नेताओं की विद्वेषपूर्ण बयानबाजी से कुपित होना काफी नहीं है। इस असंतोष की अभिव्यक्ति उत्तर भारत के पुनर्निर्माण के सशक्त कार्यक्रम में भी होना चाहिए। अगर केंद्र इस क्षेत्रीय विषमता को दूर करना नहीं चाहता और इस पुनर्निर्माण की दिशा में ठोस कदम उठाना नहीं चाहता, तो उत्तर भारत को अपने सीमित संसाधनों को जोड़ कर और उनका रचनात्मक उपयोग करने की पहल करनी चाहिए। इस बवाल का सबक यही है।
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