किसी को भी उम्मीद नहीं थी कि अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन इतनी जल्दी इस अंजाम को पहुंच जाएगा। जब वह भ्रष्टाचार के मुद्दे पर दोबारा अनशन करेंगे तो इसमें संदेह है कि उन्हें पहले जैसा जन समर्थन प्राप्त हो पाएगा। मेरे खयाल से अन्ना से कई गलतियां हुई हैं। पहला उनके आमरण अनशन का लक्ष्य सीमित था। उनकी मांग यह थी कि प्रशांत भूषण और उनके सहयोगियों द्वारा तैयार किए गए जन लोकपाल विधेयक को सरकार स्वीकार कर ले। इससे उच्च स्तरों पर होने वाले भ्रष्टाचार पर कुछ अंकुश लगेगा, लेकिन अन्ना के देशव्यापी समर्थकों को लगा कि उन्होंने हर स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध बिगुल बजा दिया है। अन्ना का कर्तव्य था कि वह अपने संघर्ष का दायरा विस्तृत करते। उन्होंने दोनों में से कुछ भी नहीं किया। अन्ना हजारे की दूसरी भूल यह रही कि उन्होंने अनशन तोड़ने में बहुत जल्दी कर दी। लोग उम्मीद कर रहे थे कि वे अपनी बात मनवा कर ही उठेंगे। लेकिन सरकार ने जैसे ही नागरिकों और सरकार के प्रतिनिधियों की संयुक्त समिति की घोषणा कर दी तो अन्ना ने अपना अनशन अधबीच में छोड़ दिया। भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन न केवल उग्र हो रहा था, बल्कि चारों दिशाओं में फैल रहा था। सारा मीडिया इस आंदोलन का साथ दे रहा था। उसे पहली बार एक ऐसा मुद्दा मिला था, जिसके साथ खड़ा हो कर वह अपनी समस्त अपकीर्ति को धो सकता था। ऐसे माहौल में अन्ना हजारे चाहते तो सरकार को जन लोकपाल की सभी शर्ते मनवा सकते थे। सरकार की हालत इतनी पतली हो चुकी थी कि वह दो ही चार दिनों में समर्पण कर देती। पर अन्ना ने बहुत ही कम पर समझौता कर लिया। पता नहीं उन्होंने स्वयं यह निर्णय किया या उनके सहयोगियों ने जिन्हें जन आंदोलन का कोई अनुभव नहीं है। इस तरह अन्ना से यह निर्णय मनवा लिया। अन्ना साहब की तीसरी भूल यह थी कि समाज के पांच प्रतिनिधियों में एक ही परिवार के दो सदस्यों को शामिल कर लिया। कायदे से तो पिता-पुत्र की जोड़ी को ही यह प्रस्ताव मानने से इंकार कर देना चाहिए था पर पता नहीं क्यों इस पहलू की उपेक्षा कर दी गई? यदि दोनों में से एक के स्थान पर किरण बेदी या किसी और को रखा जाता तो बेहतर था। अन्ना हजारे की चौथी भूल यह थी कि संयुक्त समिति में वह खुद शामिल हो गए। उन्हें किसी भी हालत में यह नहीं करना चाहिए था। अन्ना की पृष्ठभूमि लोकसेवी की है और कानून निर्माण के मामले में उनकी कोई विशेषज्ञता नहीं है। जब उनके चार प्रतिनिधि इस समिति में थे ही तो अन्ना की कोई खास उपयोगिता नहीं थी। अन्ना अगर संयुक्त समिति के बाहर रहते तो उनकी नैतिक हैसियत बनी रहती। संयुक्त समिति अगर कुछ गोलमाल करती तो अन्ना एक बार फिर जनता की अदालत में जा सकते थे और कह सकते थे कि मेरे साथ विश्वासघात हुआ है और अब मैं तब तक आमरण अनशन से एक इंच भी नहीं डिगूंगा जब तक मेरी सारी शर्ते मान नहीं ली जातीं। अब वह ऐसा नहीं कर सकते। अन्ना की पांचवीं भूल यह थी कि उन्होंने जन लोकपाल विधेयक के मामले में संसद को सर्वोपरि करार दिया। यह वही संसद है जो तीस साल से ज्यादा की अवधि से लोकपाल विधेयक पर पालथी मार कर बैठी हुई है। संसद को भ्रष्टाचार की जरा भी परवाह होती तो यह विधेयक कभी का पारित हो चुका होता। जन लोकपाल विधेयक के प्रति राजनीतिक दलों के रुख का अनुमान कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह के बयानों से लगाया जा सकता है। इस विधेयक को संसद द्वारा स्वीकृत करने में मदद कराने के बजाय वे संयुक्त समिति के गैरसरकारी सदस्यों की छवि मलिन करने में लगे हुए हैं। यहां तक कि उन्होंने न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े को भी नहीं बख्शा जो देश में सबसे अच्छे लोकायुक्त माने जाते हैं। दूसरे राजनीतिक दलों की प्रतिक्ति्रया भी जारी है। ऐसे में अन्ना की यह घोषणा कि वह संसद के फैसले को आंख मूंदकर मान लेंगे, यह शक पैदा करता है कि जन लोकपाल की मूल विशेषताएं कायम रह पाएंगी या नहीं। जब आप रपटते हैं, तो रपटते ही जाते हैं। शांति भूषण की ईमानदारी के विरुद्ध जो साक्ष्य प्रस्तुत किए गए हैं, वे सच हों या नहीं, हमारी आस्था को डिगाने वाले तो हैं ही। यह प्रश्न अपनी जगह है कि जिन्होंने विवादास्पद सीडी जारी की है उनका अपना ईमान कितना सच्चा है। उन्होंने सीडी जारी करने के लिए जो मौका चुना, वह उनके इरादे पर शक पैदा करता है। अब शांति भूषण और प्रशांत भूषण चाहे जितनी सफाई देते फिरें, जब तक उच्चतम न्यायालय उन्हें निर्दोष करार नहीं देता वे शक के घेरे में रहेंगे ही रहेंगे। कहते हैं, सार्वजनिक काम में लगे व्यक्तियों का ईमानदार होना ही काफी नहीं है, उन्हें ईमानदार दिखना भी चाहिए। इस तर्क से शांति भूषण को तत्काल इस्तीफा दे देना चाहिए, लेकिन वह संयुक्त समिति में बने रहने के लिए अड़े हुए हैं। इन तमान कारणों से अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान की हवा निकलती जा रही है। विश्वनाथ प्रताप सिंह के बाद यह दूसरा बड़ा मौका है जब भारत की जनता इस कदर निराश होने जा रही है। इसका एक नतीजा यह हो सकता है कि अब कोई और भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन खड़ा करने की कोशिश करेगा तो शायद उसतरह जन सैलाब नहीं उमड़ेगा जैसा जंतर-मंतर के जादू से दो-तीन दिनों में ही उमड़ पड़ा था।
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