Friday, April 1, 2011

टीवी-लैपटॉप के बदले वोट की आस


बात कुछ ज्यादा पुरानी नहीं है। साल भर पहले की ही बात है। देश का आम आदमी महंगाई की भट्ठी में तप रहा था। कभी पेट्रोल, कभी सब्जी, कभी दाल तो कभी दूध। हर चीज के लिए हाहाकार मचा हुआ था। अच्छे से अच्छा कमाने वाला भी दस रुपये के नोट की कीमत समझ रहा था। हालांकि स्थिति में आज भी कोई सुधार नहीं हुआ है, लेकिन आम आदमी ने महंगाई को अपनी नियति मान लिया है। ठीक इन्हीं हालात में दक्षिण में राजनीतिक पार्टियों ने घोषणाएं की कि अब 35 रुपये किलोग्राम चावल मुफ्त मिलेगा। स्कूल-कॉलेज जाने वाले छात्रों को लैपटॉप मुफ्त मिलेगा। लड़की शादी करेगी तो उसे 12 हजार से 50 हजार रुपये तक की सहायता मिलेगी। चार हजार रुपये का सोने का मंगलसूत्र भी मिलेगा। और भी न जाने क्या-क्या। सुना तो हर कोई भौचक्का रह गया। तुरंत खासतौर पर उत्तर भारतीयों के दिमाग में आया कि गरीब पैदा होना हो तो दक्षिण भारत में हुआ जाए। यहां उत्तर भारत में क्या रखा है। वोटरों को रिझाने के लिए उत्तर भारत में जब शराब और कंबल बांटे जाते हैं तो हंगामा मच जाता है। राजनीतिक दल एक-दूसरे को नैतिकता का पाठ पढ़ाने लगते हैं तो नुक्कड़ और चाय के ठेलों पर बहस छिड़ जाती है कि फलां दल या नेता तो हर बार यही करता है। चुनाव आयोग भी पुलिस की मदद से ऐसे प्रलोभनों को रोकने का भरसक प्रयास करता है, लेकिन दक्षिण के राज्यों खासतौर पर पर तमिलनाडु के चुनावों में राजनीतिक दलों ने मतदाताओं के सामने जो प्रलोभन रखे हैं, उसे क्या कहा जाए। सत्तारूढ़ द्रविड़ मुनेत्र कषगम (डीएमके) ने महिलाओं को मिक्सी या ग्राइंडर देने का वादा किया तो अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम (एआईएडीएमके) ने इन दोनों चीजों के अलावा महिलाओं को टेबल फैन भी देने की घोषणा की। डीएमके ने कॉलेज छात्रों के लिए मुफ्त लैपटॉप देने की बात कही तो जयललिता ने कॉलेज छात्र ही नहीं, ग्यारहवीं और बारहवीं के छात्र-छात्राओं को भी लैपटॉप देने की घोषणा की। इसके अलावा शादी के लिए 12 से 50 हजार रुपये की मदद। चार हजार रुपये का सोने का मंगलसूत्र। हर माह 35 किलोग्राम मुफ्त चावल। 20 लीटर बिसलरी पानी की कैन। अब आप कर लीजिए बहस इन पर कि क्या यह सही है या गलत है। क्या यह सारी घोषणाएं मतदाताओं को प्रभावित तो क्या एक दल की ओर खड़ा नहीं कर देती हैं। क्या यह आम आदमी को हतोत्साहित नहीं करती हैं कि वह मेहनत करके कुछ कमाए। आप बहस करते रहिए। अपने निष्कर्ष निकालते रहिए। न राजनीतिक दलों को कुछ फर्क पड़ेगा और न ही इन घोषणाओं का लाभ पाने वाले मतदाताओं को। क्योंकि डीएमके तो अब तक तमिलनाडु के मतदाताओं को कलर टीवी बांट रही थी, जिसका उसने बीते चुनावों में वादा किया था। चुनाव आयोग ने भी दक्षिण के इस पैसे वाले लोकतंत्र के आगे हाथ खड़े कर दिए हैं। मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी का कहना है कि वे इस मामले में कुछ नहीं कर सकते हैं, क्योंकि राजनीतिक दलों ने यह सब वादा अपने चुनावी घोषणा पत्र में किए हैं। वे कहते हैं कि वितरण की जाने वाली चीजें प्रत्याशियों के चुनावी खर्च में शामिल हों, तभी आयोग कुछ कर सकता है। अजीब कानून और सोच है आयोग की। खैर, इसमें आयोग की गलती भी नहीं है, क्योंकि संविधान बनाने वाले नेताओं ने उसे इतने ही अधिकार दिए हैं यानी बांटों, लेकिन बताकर बांटो। इसीलिए जब डीएमके के नेता अखबारों में लपेटकर मतदाताओं के घरों में रुपये फेंक रहे थे तो आयोग ने इस पर आपत्ति की। आयोग के नियमों के मुताबिक रुपये दो, लेकिन घोषणापत्र में उल्लेख करके। इन सबमें दक्षिण के नेताओं की ओर से एक बड़ा ही वाजिब सवाल खड़ा किया जाता रहा है। उनका कहना है कि जब बिहार के राजनीतिक दल मतदाताओं को लुभाने के लिए छात्रोंओं को मुफ्त साइकिल देते हैं। राजस्थान में भी राजनीतिक दल ऐसा ही करते हैं। साथ ही जन्म लेने वाली लड़कियों के खाते में हजारों रुपये तक जमा कराए जाते हैं। पंजाब में किसानों को मुफ्त बिजली दी जाती है। तब कोई नहीं बोलता है। ऐसे में वे अपने लोगों को लैपटॉप दे रहे हैं तो उन्हें दिक्कत क्यों हो रही है। उनका कहना है कि वे ज्यादा संपन्न हैं, इसलिए हैसियत के हिसाब से अपने मतदाताओं के लिए कल्याणकारी योजनाएं चलाते हैं। उनका कहना है कि कल को बिहार सरकार अपने छात्रों को लैपटॉप देगी तो उसे प्रगतिशील और 21वीं सदी की सरकार बताया जाएगा, लेकिन यही काम तमिलनाडु करे तो गलत। इन चुनावी प्रलोभनों का हर वह राजनीतिक दल विरोध करता है, जो विपक्ष में खड़ा होता है। अन्नाद्रमुक और यहां तक कि बीजेपी भी डीएमके की इन प्रलोभन आधारित घोषणाओं का विरोध करती थी, लेकिन जैसे ही राज्य में विधानसभा चुनावों की घोषणा हुई तो अन्नाद्रमुक तो छोडि़ए, बीजेपी भी लैपटॉप सरीखी घोषणाएं करने में पीछे नहीं रही। राजनीतिक दल ये सारी घोषणाएं गरीबों के लिए करने का दावा करते हैं, लेकिन किसी राज्य में उसकी आबादी से ज्यादा गरीब हों तो आप इस बंदरबांट को क्या कहेंगे। देश में 10.5 करोड़ राशन कार्डधारी यानी गरीब परिवार हैं। इनमें से तकरीबन आधे यानी कोई पौने पांच करोड़ राशन कार्ड धारी देश के संपन्न और दक्षिण के तीन राज्यों तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश से आते हैं। चूंकि चुनाव तमिलनाडु में हो रहे हैं तो फिलहाल बात तमिलनाडु की ही की जाएगी। तमिलनाडु में राजनीतिक दलों ने जो भी घोषणाएं की हैं, उसका लाभ सभी राशन कार्ड धारियों को मिलेगा। केंद्र सरकार की मानें तो राज्य में 48.63 लाख परिवार गरीबी रेखा से नीचे आते हैं, लेकिन राज्य में राशनकार्ड है दो करोड़ 28 हजार परिवारों के पास। एक परिवार में सदस्यों की संख्या पांच भी मानी जाए तो तमिलनाडु में गरीबों की संख्या होती है 10 करोड़, जबकि 2001 की जनगणना के मुताबिक राज्य में 6.6 करोड़ लोग निवास कर रहे थे। राज्य में 1991-2001 के बीच जनसंख्या की दर 11.5 फीसदी थी। इसे 2001-2011 के बीच भी इतनी ही मानें तो तमिलनाडु की कुल संख्या 7.5 करोड़ से ऊपर नहीं जा सकती, लेकिन राज्य में राशन कार्ड धारी ही 10 करोड़ लोग हैं। एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी उठता है कि जब केंद्र सरकार राज्य को राशन का अनाज सिर्फ 48.63 परिवारों के लिए जारी करती है तो शेष राशन कार्ड धारी परिवारों को अनाज की आपूर्ति कौन करता है। जाहिर है कि राज्य सरकार, जिसका खुलासा बीते साल 25 फरवरी को महंगाई पर लोकसभा में हुई बहस के दौरान डीएमके के नेता टीआर बालू ने भी किया था। उन्होंने कहा कि राज्य सरकार करीब दो करोड़ राशन कार्ड धारियों में से बीपीएल कार्ड धारकों को एक रुपये प्रति किलो की दर से अनाज उपलब्ध कराती है, जबकि एपीएल कार्डधारियों को 8.6 रुपये प्रति किलो की दर से। बालू ने दावा ठोककर कहा था कि राज्य सरकार यह सब तब करती है, जब केंद्र से उसे अनाज प्रति किलो 15 रुपये के हिसाब से मिलता है। बालू और डीएमके पर ऐसी मेहरबानी के लिए बलिहारी जाया जाए। यह बात अन्नाद्रमुक पर भी लागू होती है, क्योंकि सत्ता में चाहे डीएमके रहे या अन्नाद्रमुक, उनके संपन्न और विकसित होते राज्य में जीडीपी के साथ-साथ वोट के लिए गरीबों (राशन कार्ड धारी) की संख्या भी हर साल बढ़ती जाती है। भले यह उसके कुल मतदाताओं की संख्या से ज्यादा ही क्यों न हो जाए। राज्य में फिलहाल दो करोड़ परिवारों के पास राशन कार्ड हैं। एक परिवार में तीन लोग भी वयस्क मानें तो राज्य में छह करोड़ लोग मत डालने योग्य होते हैं, जबकि चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार राज्य में कुल 4.66 करोड़ ही मतदाता हैं और बीते विधानसभा चुनावों में इसके 71 फीसदी यानी 3.3 करोड़ मतदाताओं ने वोट डाले थे। आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि तमिलनाडु में वोटों की फसल के लिए किस तरह से राशकार्डो की खेती की जाती है। जो बाद में आधार बनते हैं मतदाता पहचान पत्रों के बनने में। इस खेल में सभी राजनीतिक दल लगे हैं। चुनाव आयोग कुछ कर सकता है तो करे। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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