संसद की लोक लेखा समिति (पीएसी) और संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) पर हालिया मीडिया रिपोर्ट उन लोगों के लिए गंभीर चिंता का विषय हैं, जो सशक्त, प्रभावी और विश्वसनीय लोकतांत्रिक संस्थानों में यकीन रखते हैं। अन्ना हजारे के आमरण अनशन के दबाव में गठित संयुक्त समिति के कुछ सदस्यों के खिलाफ जो विषैला अभियान चलाया जा रहा है, वह भी गहरी चिंता का कारण है। इस समिति का गठन लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार करने के लिए किया गया है। जनहित में तैयार इन समितियों पर निर्भर करता है कि वे विषम परिस्थितियों में किस प्रकार सुचारू ढंग से अपने उद्देश्य की पूर्ति करती हैं। 2-जी स्पेक्ट्रम को लेकर गठित जेपीसी और पीएसी के मामले में कामकाज संबंधी नियम, प्रक्रियाएं, परंपराएं और व्यवहार का अनुभव उपलब्ध हैं। न्यायपालिका के क्षेत्र में दखलंदाजी से बचने के लिए दोनों समितियों के अध्यक्षों को लोकसभा के स्पीकर से मार्गदर्शन लेना चाहिए। समिति की कार्यवाही में सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत यह है कि इसे निरपेक्षता और निष्पक्षता के साथ कार्य करना चाहिए ताकि शासन की गुणवत्ता पर संसदीय प्रभाव में वृद्धि हो सके। सदन के पटल पर बहस दलगत आधार पर होगी, जिसमें पार्टियों के निहित स्वार्थ की पूर्ति का प्रयास होता है, किंतु समिति में गंभीर, संयत, सृजनात्मक और तटस्थ रुख अपनाया जाता है। समिति में अपनी पार्टी की नीतियों के बंधन से मुक्त होकर सदस्य खुलकर अपने विचार रखते हैं। आमतौर पर समितियों के फैसले सर्वसम्मति से लिए जाते हैं और अंतिम रिपोर्ट में शायद ही कभी मतभेद उभरते हैं। विभाजित राय के मामले में सदन के स्पीकर की तरह अध्यक्ष का फैसला ही अंतिम होता है। अध्यक्ष के पद पर लंबे संसदीय अनुभव संपन्न और विद्वान व्यक्ति का चुनाव होता है, जो समिति के व्यापक हितों में दलगत भावनाओं से ऊपर उठकर फैसला लेता है। सर्वसम्मति से जारी रिपोर्ट की परंपरा समिति की संस्तुतियों का वजन बढ़ा देती है और कार्यपालिका उन्हें निर्देश के रूप में स्वीकार कर ईमानदारी से क्रियान्वयन का प्रयास करती है। सदन के विपरीत, संसदीय समिति मीडिया से बात करने से बचती है। कुछ वर्षो से यह रीति सी बन गई है कि समिति का अध्यक्ष प्रमुख फैसलों से मीडिया को अवगत कराता है। मीडिया में आईं ये रिपोर्ट तकलीफदेह हैं कि पीएसी द्वारा कुछ अधिकारियों को तलब किया गया किंतु समिति के सदस्यों की आपत्तियों के कारण घंटों इंतजार कराने के बाद उन्हें अपना पक्ष रखे बिना ही वापस भेज दिया गया। एक आपत्ति यह भी रही कि जिन मुद्दों पर जेपीसी विचार कर रही है, उनमें पीएसी को दखल देने की कोई जरूरत नहीं है। एक अन्य आपत्ति यह रही कि मामला न्यायालय के विचाराधीन है इसलिए पीएसी को इस पर विचार नहीं करना चाहिए। दोनों ही आपत्तियां हल्की थीं और अध्यक्ष ने इन आपत्तियों को खारिज करके सही किया। जेपीसी के गठन को लेकर जो विवाद और बखेड़ा हुआ, वह सबके सामने है। जेपीसी का गठन विशेष शर्तो के साथ हुआ है जिनका उल्लेख दोनों सदनों के प्रस्ताव में किया गया है। इसमें पहले से ही इस मामले की जांच कर रही पीएसी को जांच कार्य रोकने का कोई निर्देश नहीं है। इस स्थिति में कुछ मुद्दों का दोनों समितियों के दायरे में आना स्वाभाविक है। जेपीसी के अध्यक्ष द्वारा स्पीकर को की गई शिकायतों को भी स्पीकर के निर्देशानुसार दूर कर गया। संसद के दोनों सदनों द्वारा जेपीसी के गठन को मंजूरी देने और स्पीकर द्वारा समिति की कार्रवाई आगे बढ़ाने के निर्देश दिए जाने के बाद इस तरह की आपत्तियां महज अड़ंगेबाजी हैं। मामले के अदालत में होने की आपत्ति की भी कोई वैधानिकता नहीं है। मामला न्यायालय के विचाराधीन होने का भी सीमित प्रयोजन है। यह खुद ही लगाया गया प्रतिबंध है और इससे सदन या समिति के अधिकारों में हस्तक्षेप नहीं होता। अपने विवेक के आधार पर पीएसी ने कानून सचिव, एटॉर्नी जनरल, कैबिनेट सचिव, प्रधानमंत्री के मुख्य सचिव, सीबीआइ निदेशक और कुछ अन्य ऐसे अधिकारियों को तलब किया था, जिनके बारे में समिति का मानना था कि ये मामले में संलिप्त हो सकते हैं और जिनकी गवाही से समिति को सही निष्कर्षो पर पहुंचने में आसानी होती। उनका पक्ष न जानना गलत होता। उन्हें फिर से न बुलाया जाना एक और गलती होगी। इतने महत्वपूर्ण अधिकारियों का पक्ष न जान कर समिति बड़े लाभ से वंचित हो सकती है। उन्हें फिर से न बुलाए जाने का यह भी संकेत जाएगा कि समिति दबाव में आकर गलत परंपरा कायम कर रही है और संसदीय समितियों के संस्थान को क्षति पहुंच रही है। समिति को व्यापक हितों को ध्यान में रखते हुए इस संबंध में फिर से विचार करने की जरूरत है। लोकपाल बिल पर संयुक्त समिति संसदीय समिति नहीं है, किंतु यह संसदीय समिति के दिशानिर्देशों के अनुपालन से गुरेज नहीं करेगी। मीडिया में छाए रहने के बजाय समिति को चुपचाप काम करते रहना चाहिए। प्रचार में ग्लैमर जरूर है किंतु इससे मूलभूत मुद्दे से ध्यान भटकता है। यह उन शक्तियों के हाथों में खेलना भी है, जो लोकपाल बिल के रास्ते में बाधाएं खड़ी करना चाहती हैं। इस समय लोकपाल बिल का ऐसा मसौदा तैयार करने की महती आवश्यकता है, जो राजनीति में गहरे पैठ कर चुके भ्रष्टाचार के वायरस के खात्मे के लिए एक मजबूत और प्रभावी संस्थान का गठन कर सके। निहित स्वार्थो को अपने अस्तित्व पर खतरा महसूस हो रहा है और वे समिति के कामकाज में बाधा पहुंचाने का हरसंभव प्रयत्न कर रहे हैं। इसके लिए वे समिति के सदस्यों में मतभेद पैदा करने की भी कोशिश में हैं। अध्यक्ष और सह अध्यक्ष हर बैठक के बाद संयुक्त रूप से मीडिया को जानकारी दे सकते हैं। सदस्यों को अपने विचार सार्वजनिक करने से बचना चाहिए। यह एकमात्र उपाय है जो सदस्यों की बयानबाजी से उठने वाले विवादों पर अंकुश लगा सकता है। जिन सदस्यों पर व्यक्तिगत आरोप लगाए जा रहे हैं या जिनका चरित्र हनन करने का प्रयास किया जा रहा है, वे इन हमलों का जवाब अपने स्तर पर दे सकते हैं। इस प्रकार की समितियों में उसी प्रकार की सावधानी रखनी पड़ती है, जैसे व्यस्त चौराहे पर फर्राटे से दौड़ती गाडि़यों के बीच कोई व्यक्ति सड़क पार करते समय रखता है। उसे दाएं-बाएं, आगे-पीछे हर तरफ निगाह रखनी पड़ती है। तेज रफ्तार गाडि़यां दौड़ाने वाले बहुत से ड्राइवर नियमों का उल्लंघन करते हैं और जरा सी सावधानी हटते ही दुर्घटना घट जाती है। (लेखक लोकसभा के पूर्व महासचिव हैं).
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