पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के बीच विधानसभा चुनाव के लिए हुए गठजोड़ से परिवर्तन की जो गूंज उठ रही है उससे वाम किला कांप रहा है। बंगाल कांग्रेस के एक धड़े द्वारा गठजोड़ नहीं मानने से भी वाम किले की कंपकंपाहट कम नहीं हो पा रही है, क्योंकि उस धड़े के अलग चुनाव लड़ने पर भी नतीजे पर मामूली असर ही पड़ेगा। वह असर ज्यादा से ज्यादा मुर्शिदाबाद की चार सीटों तक सीमित रहेगा। बाकी बंगाल में विपक्षी गठजोड़ के अटूट रहने से लाल दुर्ग में बेचैनी स्वाभाविक है। वैसे विपक्षी गठजोड़ के उपरांत कांग्रेस की हैसियत तृणमूल कांग्रेस के जूनियर पार्टनर की हो गई है। कहने की जरूरत नहीं कि इसके लिए खुद कांग्रेस जिम्मेदार है। बंगाल कांग्रेस के जो बड़े नेता थे वे अपने-अपने संसदीय क्षेत्रों से बाहर नहीं निकले। बंगाल कांग्रेस के जो दूसरे बड़े नेता थे उनमें कई की तुलना तरबूज से की जाने लगी और आज भी की जाती है। बंगाल की राजनीति में तरबूज विशेषण बेहद जनप्रिय रहा है। तरबूज कांग्रेस के उन नेताओं को कहा जाता रहा है, जो भीतर ही भीतर लाल झंडे का समर्थन करते रहे हैं। छोटे-छोटे व्यक्तिगत लाभों के लिए ये नेता वाम नेताओं से अच्छे संबंध रखते रहे हैं। आज भी यह सिलसिला जारी है। बंगाल कांग्रेस के वर्तमान अध्यक्ष डा. मानस भुइयां तो सार्वजनिक समारोहों में गौतम देव जैसे वाम नेता के साथ अपनी आत्मीयता नहीं छिपाते। ऐसे ही नेताओं के कारण बंगाल कांग्रेस को माकपा की बी टीम कहा जाता रहा है और ऐसे ही नेताओं की देन है कि बंगाल कांग्रेस आज प्राय: साइनबोर्ड के रूप में परिणत हुआ है। कांग्रेस की इस स्थिति के कारण और गनी खां के मालदह, दासमुंशी के रायगंज व अधीर चौधरी के मुर्शिदाबाद में सीमित रहने से तृणमूल कांग्रेस को फैलने का सुनहरा मौका मिला। दूसरी तरफ, तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी ने वाम मोर्चा की नीतियों के खिलाफ अनवरत समझौताविहीन संग्राम कर अपने को वाम मोर्चे के एक मात्र विश्वसनीय विकल्प के रूप में प्रतिष्ठित किया, इसीलिए उन्होंने 294 सीटों वाली बंगाल विधानसभा में पहले 64 और बाद में एक और सीट कांग्रेस को देने का फार्मूला दिया तो कांग्रेस हाईकमान ने उसे भी स्वीकार कर लिया। कहने के लिए इसे ममता के समक्ष कांग्रेस के सम्मान का आत्मसमर्पण भी कह सकते हैं। कांग्रेस के पास कोई चारा भी तो न था। बंगाल के कांग्रेसियों के साथ बैठक कर हाईकमान ने समीक्षा में पाया था कि अकेले लड़ने पर कांग्रेस को कोई लाभ नहीं होगा, उल्टे नुकसान होगा, जबकि 65 सीटों पर लड़ने पर 40 सीटों पर कांग्रेस जीत सकती है। कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस ने 2001 का विधानसभा चुनाव भी मिलकर लड़ा था। तब समझौते के कारण कांग्रेस के 14 विधायकों का टिकट कट गया था। उन विधायकों ने शरद पवार की नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के चुनाव चिन्ह घड़ी पर चुनाव लड़ा। वे सभी उम्मीदवार वोटकटवा साबित हुए थे। इस बार ममता ने एनसीपी के साथ भी चुनावी समझौता कर अपार बुद्धिमत्ता का परिचय दिया है। ममता ने एनसीपी को कूचबिहार की अपनी जीती हुई सीट दिनहाटा दे दी है। तृणमूल कांग्रेस ने एसयूसीआई (सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर आफ इंडिया) के लिए दो सीटें छोड़ी हैं। कांग्रेस, एनसीपी और एसयूसीआई के साथ गठजोड़ कर तृणमूल कांग्रेस ने बंगाल में मिनी संप्रग बना लिया है। इस मिनी संप्रग के पक्ष में परिवर्तन की लहर को तृणमूल कांग्रेस के चुनावी घोषणा पत्र ने भी बढ़ाया ही है। ममता ने एलान किया है कि उनकी पार्टी की सरकार बनती है तो हर दो सौ दिन पर वह जनता के समक्ष सरकार के कामकाज का ब्यौरा रखेंगी। यह एलान नया ही नहीं, अभिनव भी है। इससे ममता की राजनीतिक इच्छाशक्ति का पता चलता है। उन्होंने नारा दिया है कि कृषि हमारी अनुप्रेरणा है और उद्योग चेतना। उन्होंने एक और नारा दिया है-कर्म में दिशा, भविष्य की आशा। ममता ने अपने कर्म से ही अपने को बंगाल के लोगों के भरोसे का साथी बनाया है। दूसरी तरफ माकपा केप्रभुत्व वाले वाम मोर्चे ने गत चौंतीस वषरें के दौरान हर आम चुनाव में जितने चुनावी घोषणा पत्र जारी किए उनमें आधे भी क्रियान्वित हुए होते तो रवींद्रनाथ ठाकुर के 150वें जन्म वर्ष में हम उन्हें उद्धृत कर पाते-आमार सोनार बांग्ला, आमि तोमाय भालोबासी। छह नवंबर 2000 को बंगाल की बागडोर थामने पर जिस बुद्धदेव भट्टाचार्य को माकपा और उसके सहयोगी दलों के साथ ही अधिसंख्य बंगवासियों ने हाथों हाथ लिया था, उसे आज सिंगुर-नंदीग्राम कांडों के जिम्मेदार व्यक्ति के रूप में देखा जा रहा है। बंगाल की जनता द्वारा उन्हें खलनायक के रूप में देखे जाने और दस वर्ष के उनके शासनकाल में दल के भीतर वाम मोर्चा के भीतर और बाहर लगातार उन्हें चुनौतियां मिलती रहने और जनता के साथ उनकी सरकार की दूरी बढ़ने से विपक्षी गठजोड़ के लिए एक साथ कई अनुकूलताएं हैं। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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