1971 में स्कूली परीक्षा देने के तुरंत बाद मैं कोलकाता छोड़कर दिल्ली आ गया। इसके कुछ व्यवहारिक कारण थे। मैं तीन साल में स्नातक पूरा करना चाहता था। उन दिनों कोलकाता में राजनीतिक हिंसा के कारण डिग्री कोर्स पूरा करने में कम से कम 16 महीने अधिक लग जाते थे। मेरे आदरणीय दादा मेरी योजनाओं को लेकर भयाक्रांत थे। उन्होंने व्यंग्य से कहा-क्या दिल्ली में कॉलेज भी हैं? उनकी निगाह में एक छात्र को इतिहास पढ़ने के लिए ऑक्सब्रिज के अलावा केवल एक ही स्थान था-प्रेसीडेंसी कॉलेज। बंगाल पर गर्व करने वाले लोगों की तरह उनके लिए श्रेष्ठ शिक्षा के लिए बंगाल ही सर्वश्रेष्ठ स्थान है। किसी इतिहासकार के लिए उस क्षण को चिन्हित करना दिलचस्प होगा जब बंगाली भ्रदलोक खुद को भारत की श्रेष्ठ बौद्धिक जाति के रूप में मानने लगा था। क्या यह मराठा वर्चस्व के खात्मे के बाद और पेशवाओं के सांस्कृतिक पतन के बाद शुरू हुआ? क्या यह राजा राममोहन रॉय के विविध आध्यत्मिक विचारों की एक शाखा था? या फिर इसका संबंध पाश्चात्य संस्कृति और सभ्यता के सबसे लंबे संसर्ग से है? इस आत्मविश्वास का जो भी कारण हो, यह सत्य है कि बंगाल ने बीसवीं सदी में उदीप्त भाव के साथ कदम रखा। यहां तक कि 1947 का विभाजन भी बंगाली मिथ्याभिमान को तोड़ नहीं पाया। बाद में बेदखली और कठिनाइयों के कारण बंगाल की बौद्धिक वरीयताओं और फैशन से हालात बदल गए। 1943 के अकाल और इसके पश्चात पूर्वी बंगाल के नुकसान के कारण भद्रलोक बुद्धिजीवी उखड़ गए। प्रगतिशील राजनीति वैश्विक धारा के रूप में उभरी, पर इससे बंगाल में मूलभूत विकृतियां पैदा हो गईं। सर्वप्रथम, पूंजीवाद को लेकर अंतरजात अविश्वास के कारण बंगाली बुद्धिजीवियों ने खुद को संपदा निर्माण की प्रक्रिया से काट लिया। राष्ट्रवादी आंदोलन के दौरान बंगालियों के मन में स्वदेशी उद्यमिता के मूल्यों की पैठ के सजग प्रयास हुए। 1950 के बाद बौद्धिक अनुकूलता धीरे-धीरे दूसरे पक्ष की तरफ मुड़ गई। समाजवाद को पसंदीदा विकल्प के रूप में पेश किया गया, जबकि वास्तविकता इसके उलट थी। दूसरे, इसका इतना नुकसान न हुआ होता, अगर प्रगतिशील विचार बंगाल की प्रमुख बौद्धिक धारा में से एक होता। उदाहरण के लिए ब्रिटिश राज के आखिरी दशक वफादारी, राष्ट्रवादी कट्टरता, हिंदुत्व, मुस्लिम अलगाव, गांधीवाद, क्रांतिकारी आतंकवाद और मार्क्सवाद की खिचड़ी के साक्षी रहे हैं। 1967 तक कांग्रेस के जनाधार में सेंध लगने के बाद समाजवाद या मार्क्सवाद की बहस छिड़ गई। वाम वर्चस्व ने विकास में बाधाएं खड़ी कर दीं और बौद्धिक रूढि़वाद को पनपाने में योगदान दिया। वर्तमान चुनाव अभियान में तृणमूल कांग्रेस बीच का रास्ता अपनाने का प्रयास कर रही है। यह राजनीतिक गांभीर्य और विकास के मानवीय चेहरे पर जोर दे रही है। आज बंगाल के सभी तबकों में वाम दलों के घटते जनाधार का कारण राज्य का राष्ट्रीय और वैश्विक घटनाक्रम से कटा रहना है। अपने पहले कार्यकाल में वाम मोर्चा देहात में सत्ता समीकरण बदलने में सफल रहा। ऑपरेशन बर्गा के तहत इसने भूमिहीन किसानों के बीच जमीन का वितरण कर गरीबों के सशक्तीकरण का नेतृत्व किया। जहां शेष भारत ने बाजारोन्मुख नीतियों द्वारा दिए गए नए अवसरों को लपक लिया, वहीं बंगाल सशक्तीकरण के अपने मॉडल पर ही आत्ममुग्ध होता रहा। यानी वह गुस्ताखियों की आजादी के मजे लेता रहा और बंद के दौरान वहां की सड़कों पर लोग क्रिकेट खेलते रहे। बंगाल में निवेश का माहौल न होने के कारण यह विकास की दौड़ में पिछड़ता चला गया। अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि बंगाल के आर्थिक पतन का लंबे समय तक संज्ञान नहीं लिया गया। करीब तीन दशक तक बंगाल नकार की मुद्रा में रहा। जब राजीव गांधी ने कलकत्ता को दम तोड़ता शहर बताया तो वह भविष्यदृष्टा होने के साथ-साथ राजनीतिक रूप से दुस्साहसिक भी थे। टाटा मोटर्स का नरेंद्र मोदी के गुजरात में जाना आत्मबोध का निर्णायक क्षण था। कारण कुछ भी हो, यह कटु सच्चाई है कि ऐसे देश में जो 9 फीसदी की विकास दर से दौड़ रहा हो, बंगाल में ठहराव आ गया है। जैसे-जैसे चुनाव के दिन नजदीक आ रहे हैं, बंगाल बदलाव के लिए तैयार दिखाई दे रहा है। अगर परिवर्तन होता है तो नई व्यवस्था के सामने कठिन चुनौतियां होंगी। नाकारा प्रशासन, खंडित समाज, तीन दशक के कैडर आतंक के खिलाफ जनता में आक्रोश और अभी भी प्रगतिशीलता के स्वप्नलोक में रची-बसी बौद्धिक संस्कृति प्रगति की राह में प्रमुख बाधाएं हैं। बंगाल का कायाकल्प प्रबुद्ध राजनीतिक नेतृत्व के बूते ही संभव है। साथ ही इसके लिए जोरदार क्रांतिरोधी अभियान भी जरूरी है, कम से कम बंगालियों के मानस में। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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