Saturday, April 23, 2011

हंगामा है क्यों बरपा..


प्रवर्ष 1984 में राजीव गांधी दो तिहाई बहुमत से सत्ता में आये थे। मिस्टर क्लीन के नाम से उनकी पहचान बनी थी किंतु वीपी सिंह ने जब बोफोर्स तोपों की खरीद में दलाली का सवाल उठाकर भ्रष्टाचार के खिलाफ अलख जगायी तो जनता उनके साथ खड़ी हो गई थी। परिणामस्वरूप राजीव गांधी को 1989 के चुनाव में विपक्ष में बैठना पड़ा था। उस समय भी वीपी सिंह को सेंट कीट्स जैसे मामले में फंसाने की कोशिश की गई थी। इससे पहले जेपी आंदोलन को भी फासिस्टवादी करार देने में कांग्रेस ने कोई गुरेज नहीं किया था। इसलिए अन्ना और उनके सहयोगियों पर हो रहे हमलों से आश्र्चयचकित होने की जरूरत नहीं है
भावी लोकपाल बिल का प्रारूप तैयार करने का काम अब शुरू हो चुका है। सरकार और सिविल सोसाइटी के नुमाइंदों की पहली बैठक खट्टे-मीठे अनुभवों के साथ सम्पन्न हो चुकी है। अगली बैठक दो मई को होगी। भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के अनशन के साथ जुटे जन-समुदाय के कारण ही यह सफलता मिली है। यह उनके आलोचक भी मानते हैं। किंतु बैठक के बाद सरकारी मशीनरी विशेषकर कांग्रेस ने जिस तरह सिविल सोसाइटी के सदस्यों की कमजोर छवि जनता के बीच दिखाने की कोशिश की है, वह खीर में कंकड़ पड़ने जैसा है। ऐसा करने के पीछे सत्ता प्रतिष्ठान की नीयत चाहे कुछ भी हो किंतु आमजन को उनकी नीयत पर शक जरूर हुआ है। सिविल सोसाइटी के सदस्यों को बदनाम करने का अभियान शुरू हो गया है। कमेटी के सह-अध्यक्ष शांतिभूषण पर भ्रष्ट आचरण अपनाने के आरोप लग रहे हैं। कोई जंतर-मंतर पर उपवास के दौरान खर्च धनराशि पर सवाल उठा रहा है। लोकपाल बिल पास होने पर आशंका जतायी जा रही है। हद तो यह है कि अब यह सवाल भी उठने लगा है कि लोकपाल कानून बन जाने के बाद क्या भ्रष्टाचार समाप्त हो जायेगा? सवाल है कि यह हंगामा क्यों बरपा है? यह विरोध सिविल सोसाइटी के सदस्यों का है अथवा लोकपाल कानून का। इस अबूझ पहेली को समझना अब जरूरी हो गया है। अन्ना हजारे लोकपाल कानून की मसौदा समिति के गैर सरकारी सदस्यों पर कांग्रेसी नेताओं की ओर से हो रहे हमले और कुछ मंत्रियों की ओर से की जा रही गलतबयानी से काफी दु:खी हैं। उन्होंने सप्रंग प्रमुख सोनिया गांधी को पत्र लिखकर इसकी शिकायत की है, जिसमें कहा है कि इस दुष्प्प्रचार के पीछे उनकी रजामंदी तो नहीं है? उन्होंने कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह पर तथ्यात्मक रूप से गलतबयानी का आरोप लगाया है। उन्होंने मसौदा समिति के सदस्य व मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल के आचरण पर उंगली उठायी है कि बैठक के बाद उन्होंने अपने आवास पर पत्रकारों से अनौपचारिक बातचीत में झूठी बात कही कि सिविल सोसाइटी के सदस्य सरकार के दबाव में झुक गये हैं और विधेयक के मसौदे को लचीला कर दिया गया है। अन्ना को आशंका है कि इस गलतबयानी का मकसद लोगों को गुमराह कर संयुक्त मसौदा समिति में हो रही बातचीत को पटरी से उतारना है। यह सच है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जन-दबाव के चलते सरकार ने अन्ना हजारे के अभियान के सामने घुटने भले टेक दिये हों पर उसे मसौदा समिति में सिविल सोसाइटी की नुमाइंदगी कतई पच नहीं रही है। इसीलिए उन पर आरोपों की झड़ी लग गई है। समिति के सह-अध्यक्ष शांतिभूषण इलाहाबाद में भूखंड खरीदने में कम स्टाम्प डय़ूटी देने, नोएडा में अपने व पुत्र के नाम फॉर्म हाउस खरीदने तथा पैसों के लेन-देन संबंधी बात की कथित सीडी को लेकर कठघरे में हैं तो दूसरे सदस्य अरविंद केजरीवाल व संतोष हेगड़े पर तल्ख टिप्पणी हो रही है। सोसाइटी के सदस्यों की नुमाइंदगी को लेकर जारी अधिसूचना को अदालत में चुनौती दी गई है। पुणो में आरटीआई सदस्यों पर हमले हुए हैं। अन्ना पर दूसरों द्वारा संचालित होने का आरोप लग रहा है। यह सब अनायास नहीं है। इसके पीछे का निहितार्थ किसी से छुपा नहीं है। यद्यपि शांतिभूषण ने इन आरोपों को नकार दिया है और सीडी प्रकरण में अदालत की शरण ली है। आने वाले दिनों में समिति के सदस्यों को और भी कठिन अग्नि परीक्षा देनी पड़ सकती है। क्योंकि वे आमजन के भरोसे का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। इस भरोसे को बनाये रखना उनकी सबसे बड़ी प्राथमिकता है। कांग्रेस अजीब दुविधा में नजर आ रही है। भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए कठोर लोकपाल कानून बनाने के सवाल पर वह अन्ना के साथ खड़ी दिखना चाहती है। उस दिशा में उसकी कोशिश भी है किंतु सरकार की ओर से नामित समिति के सदस्य, मंत्री और पार्टी के नेता जैसा आचरण कर रहे हैं उससे लगता है कि वे हलकान हैं। वे समिति के सदस्यों के बारे में दुष्प्रचार की जो मुहिम चला रहे हैं, वह कांग्रेस पार्टी को संदेह के घेरे में खड़ा करने के लिए काफी है। यद्यपि सोनिया गांधी ने अन्ना के पत्र का जवाब देकर डैमेज कंट्रोल करने की कोशिश जरूर की है। उन्होंने कहा है कि 'बदनाम करने की राजनीति का वह समर्थन नहीं करतीं। सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी स्थापित करने के लिए उनकी प्रतिबद्धता पर कोई संदेह नहीं होना चाहिए। वह संसदीय लोकतंत्र और लोकपाल जैसी संस्थाओं में भरोसा रखती हैं।'
यह सच भी है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना के अभियान का समर्थन कर वह अपनी कथनी और करनी में अंतर न होने का सबूत पहले ही दे चुकी हैं किंतु इसके उलट जिस तरह कांग्रेस के नेता, मंत्री तथा सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े लोग सिविल सोसाइटी के सदस्यों को बदनाम करने का कुचक्र चला रहे हैं, इससे आहत संतोष हेगड़े ने समिति से अलग होने की बात कही है। इससे सोसाइटी के सदस्यों के प्रति जन- सहानुभूति बढ़ रही है और आम जनता के बीच कांग्रेस को लेकर गलत संदेश जा रहा है। भ्रष्टाचार के आरोपों को धुलने की उसकी कोशिश हलकी पड़ रही है। कांग्रेस आला कमान को जन अपेक्षाओं को देखते हुए इसे हल्के में नहीं लेना चाहिए। एक कहावत है कि 'पानी की तेज धार बड़े बांध को तोड़कर रख देती है' आज भ्रष्टाचार के खिलाफ पूरे देश में माहौल बन गया है। इस माहौल को और ज्यादा प्रभावी बनाने में जो भी दल कमजोर नजर आएगा, उसे जनता स्वयं हटा देगी। पिछला इतिहास इसका गवाह है। वर्ष 1984 में राजीव गांधी दो तिहाई बहुमत से सत्ता में आये थे। मिस्टर क्लीन के नाम से उनकी पहचान बनी थी किंतु वीपी सिंह ने जब बोफोर्स तोपों की खरीद में दलाली का सवाल उठाकर भ्रष्टाचार के खिलाफ अलख जगायी तो जनता उनके साथ खड़ी हो गई थी। परिणामस्वरूप राजीव गांधी को 1989 के चुनाव में विपक्ष में बैठना पड़ा था। उस समय भी वीपी सिंह को सेंट कीट्स जैसे मामले में फंसाने की कोशिश की गई थी। इससे पहले जेपी आंदोलन को भी फासिस्टवादी करार देने में कांग्रेस ने कोई गुरेज नहीं किया था। इसलिए अन्ना और उनके सहयोगियों पर हो रहे हमलों से आश्र्चयचकित होने की जरूरत नहीं है। इस तरह की सोच रखने वाले नेताओं को हम याद दिलाना चाहते हैं कि जनता में भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रतिक्रिया अब पहले से ज्यादा प्रखर हुई है। देश की राजनीतिक प्रक्रिया संभ्रात वर्ग के दायरे से बाहर निकल चुकी है, निचले तबके के नेता नेतृत्व दे रहे हैं। इस माह पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु और पुडुचेरी में जिस पैमाने पर मतदाता वोट देने के लिए आगे आये, वह लोकतंत्र के लिए सशक्त समर्थन का संकेत है। विद्रोहों से त्रस्त असम में भी हिंसा के भय के बावजूद बड़ी संख्या में मतदाता मताधिकार का प्रयोग करने आगे आये। बताते हैं कि यहां अधिकतर निवर्तमान विधायक मतदाताओं की इस सक्रियता के चलते जीत के प्रति आश्वस्त नहीं दिखते। कांग्रेस को नहीं भूलना चाहिए कि जनता ने राजग गठबंधन के 'इंडिया शाइनिंग' के नारे को नकार उसे सत्ता सौंप दी थी। 2009 में उसकी पुन: वापसी ईमानदार और पारदर्शी सरकार देने की जन-आकांक्षा की ही परिणति है। इसलिए उसे यह समझने में भूल नहीं करनी चाहिए कि आज मध्यवर्ग और कस्बों के दायरे से बाहर भी निचले स्तर पर एक नई जमीन पक रही है, जिसके पास मताधिकार है और उन्हें इसका प्रयोग करना भी आता है। यदि ऐसा नहीं होता तो अन्ना के अभियान के समर्थन में जम्मू से लेकर बलिया, बिहार व दक्षिण के पिछड़े इलाकों में लोग समर्थन में स्वत:स्फूर्त धरना नहीं देते। इसी दबाव के कारण घोटालेबाजों के खिलाफ कार्रवाई तेज हुई है। दूर संचार घोटाले को ही लें तो अब एक मुख्यमंत्री की पत्नी व बेटी के खिलाफ चार्जशीट दायर होने वाली है। बड़ी कॉरपोरेट कम्पनियों के बड़े अधिकारी जेल में हैं। कैग, सर्वोच्च अदालत और जांच एंजेंसियों ने अपना काम अच्छी तरह किया है। आज चुनौती इन संस्थाओं को सशक्त बनाने की है। इसके अलावा मजबूत लोकपाल बिल समय की मांग है। क्योंकि उदारीकरण के बाद संस्थागत भ्रष्टाचार ने अपने पैर काफी तेजी से फैलाये हैं। ऐसा सिस्टम बन चुका है कि काम करवाने के लिए कदम-कदम पर रिश्वत देनी पड़ती है। क्योंकि हर जगह राजनीतिक दखलंदाजी बहुत ज्यादा है। कठोर लोकपाल बिल अन्ना हजारे के अभियान का एक पड़ाव है। इस अभियान को आंदोलन का रूप देने के लिए वह देश की जनता की नब्ज टटोलने के लिए देशव्यापी दौरा करने वाले हैं। उनकी लड़ाई सत्ता पाने की नहीं है। वह व्यवस्था में परिवर्तन चाहते हैं। इसलिए इनके इस अभियान को तंग दायरे से नहीं देखना चाहिए और न ही उनकी नीयत पर शक होना चाहिए। जहां तक कांग्रेसतीत सरकार का सवाल है, वह लोकपाल बिल के मसौदे को लेकर कसौटी पर है। वह सिविल सोसाइटी के कितने मुद्दों पर सहमति दिखाती है, यह उसकी नीयत उजागर करने के लिए काफी होगा। ऐसे में सिविल सोसाइटी के खिलाफ सुनियोजित दुष्प्रचार कर वह जनता को भ्रमित नहीं कर सकती। उसे कतई यह भूल नहीं करनी चाहिए कि जिसके घर कांच के बने होते हैं, वह दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं फेंकते। कांग्रेस यही भूल कर रही है। इतिहास से सबक न लेने वाले ही इतिहास के कूड़ेदान में चले जाते हैं।


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