अन्ना हजारे 15 अगस्त से फिर अनशन करेंगे। ऐसा अन्ना नहीं बल्कि बन रहे हालात बता रहे हैं। अन्ना हजारे ने कह रखा है कि यदि संसद में लोकपाल बिल पारित होने में कोई दिक्कत आई, या कोई हील-हुज्जत हुई तो वे आगामी स्वतंत्रता दिवस के मौके पर फिर अनशन पर बैठेंगे। इस बार वे अपना अनशन तब तक नहीं तोड़ेंगे जब तक भ्रष्टाचार के खिलाफ ठोस कार्रवाई शुरू न हो जाए। अब 16 अप्रैल से लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करने के लिए गठित समिति की बैठकें शुरू होंगी। समिति को 30 जून तक बिल का मसौदा तैयार कर लेना है, ताकि उसे मॉनसून सत्र में संसद में पेश किया जा सके। समिति में बिल के स्वरूप को लेकर विवाद की पूरी आशंका है, इसलिए अन्ना ने बैठक की पूरी वीडियो रिकॉर्डिग करने की बात कही, ताकि बिल न बन पाने की स्थिति में अड़ंगेबाजों को जनता के सामने लाया जा सके। इसका विरोध कर कांग्रेस ने पहले ही विवाद की नींव रख दी है। ऐसे में उनके लिए घबराने वाली बात है जो जंतर मंतर पर अन्ना के अनशन से बने सख्त माहौल से घबरा रहे थे और मानकर चल रहे थे कि यदि सौदा नहीं पटा तो जंतर मंतर राजनीतिक सत्ता को उखाड़ फेंकने वाली तहरीर चौक बन जाएगी। उनको बस अन्ना के अनशन खत्म होने का इंतजार था। अब भी यह सोच है कि नए अनशन के वक्त अन्ना 5 अप्रैल सरीखा समर्थन हासिल नहीं कर पाएंगे। यह इंतजाम किया जा रहा है कि किसी भी हालत में पुराना समर्थन हासिल न हो सके। उनकी सफलता बाबा रामदेव ने पहली तीर क्या चलाई, चिड़ीमारों की पूरी फौज बाहर आ गई है। कपिल सिब्बल, सलमान खुर्शीद, दिग्विजय सिंह से लेकर लालकृष्ण आडवाणी और प्रभात झा तक गोलबंद हैं। इनके लिए बर्दाश्त से बाहर की बात है कि जिस राजनीति में इन लोगों ने जिंदगी झोंक दी उससे ज्यादा लोकप्रिय एक गैर-राजनीतिक शख्स हो गया। हर पहल को आरक्षण के आइने से देखने वाला तबका अन्ना के खिलाफ अलग से मोर्चा खोले बैठे हैं, मानो देश की 85 फीसदी आरक्षित आबादी भ्रष्टाचार से निष्प्रभावित हो।
अन्ना के गैर-राजनीतिक व्यक्तित्व ने भी कई समर्थकों को अलग वजूद के बहाने आलोचना करने का मौका दिया है। मेधा पाटेकर और मल्लिका साराभाई उनकी इसलिए आलोचक हो गईं कि वे राजनीतिक हस्ती नहीं हैं। इनको पता नहीं कि राजनीति से परे होना ही अन्ना की सबसे बड़ी ताकत है। इसे यों भी कह सकते हैं कि आजादी के दौर से अब तक लोग उनको ही मानते रहे हैं जो अराजनीतिक हैं। मोहनदास करमचंद गांधी, डॉ. भीमराव अम्बेडकर, जयप्रकाश नारायण, कांशीराम आम जनता के नेता थे क्योंकि उन्होंने आज की परिभषा वाली राजनीति नहीं की। महात्मा गांधी ने आजादी के बाद कांग्रेस पार्टी को खत्म करने की पैरवी की तो डॉ. अम्बेडकर आरक्षण का इंतजाम किसी दल के दायरे में नहीं बल्कि पूरी जरूरतमंद आबादी के लिए करते रहे। जेपी का राजनीतिक आंदोलन स्थापित राजनीतिक परंपरा के खिलाफ था, इसलिए इसे अराजनीतिक कहा जा सकता है। कांशीराम ने दलित सबलता की राजनीति को कारगर बनाने के लिए बाकी राजनीतिक दलों को समान दूरी रखकर अपना मुकाम हासिल किया। अब अन्ना के बहाने पिछली पीढ़ी के प्रवर्तकों का जिक्र इसलिए भी जरूरी है कि अन्ना में मौजूदा राजनीतिज्ञों की फौज से अलग बहुत कुछ है। मसलन जंतर-मंतर की सफलता के दौरान भी उन्होंने अपने गांव रालेगान सिद्धि गांव को याद रखा। दिल्ली के सत्ता शिखर को हिलाने के बाद आराम के लिए अन्ना ने रालेगान सिद्धि के मंदिर के अपने दालान को पसंद किया। खेतों मे गए, किसानों की खैर-खबर ली। यह कोई मार्केटिंग स्ट्रैटजी नहीं थी, अन्ना का स्वाभाविक ग्राम प्रेम था।
ऐसी और भी बातें हैं जो बताती हैं कि भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था के पैरोकारों के लिए अन्ना हजारे को फंसा पाना आसान नहीं होगा। होता तो शरद पवार के लोग उनको ध्वस्त कर चुके होते। वैसे अन्ना की पसंद बने पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण के खिलाफ इलाहाबाद में जमीन खरीद घोटाले का एक आरोप उछल आया है लेकिन शांति भूषण अन्ना के सिर्फ एक अभियान के साथी हैं। फिर वह आरोपों का जवाब देने में भी सक्षम हैं। वहीं, भ्रष्टाचार विरोधी बातूनी रामदेव बाबा जिस तरह के आरोपों से घिर गए हैं उस प्रकार के आरोप अन्ना कभी नहीं लग सकेंगे। |
No comments:
Post a Comment