संसदीय लोकतंत्र में भीड़ की एक मानसिकता तैयार होती है जो भेड़ों की तरह धारा के साथ बहती जाती है। वह एक विचारधारा वाले संगठनों में ही राजनीतिक प्रतिस्पर्धा को परिवर्तनगामी समझ लेती है। दरअसल किसी संगठन के बड़े-छोटे होने का कोई अर्थ नहीं होता है बल्कि यह महत्वपूर्ण होता है कि आम समाज में किस विचारधारा की तरफ रुझान है। यह रुझान ही सबसे बड़ा संगठन होता है
प्रश्न है कि किसी विचारधारा का विस्तार क्या किसी संगठन के सदस्यों की संख्या के आधार पर मापा जा सकता है। भाजपा के जब दो सदस्य लोकसभा में थे तो माना जाने लगा था कि उसका प्रभाव खत्म हो गया है। दरअसल किसी भी समाज में जैसा राजनीतिक ढांचा होता है, आमतौर पर उसी तरह से सोचने-समझने या व्यवहार की मानसिकता विकसित होती है। राजनीति के यही सांस्कृतिक उत्पाद होते हैं। संसदीय राजनीति ने सिखाया है कि जब गिनती में बढ़ोतरी दिखे तो उसे विकास के रूप में देखा जाना चाहिए। लेकिन भाजपा की तादाद दो से बढ़कर इतनी हो गई कि वह सत्ता में पहुंच गई। किसी छोटी-सी घटना से जैसे अचानक सेंसेक्स धड़ाम से नीचे आ जाता है और सरकार के किसी एक फैसले से शेयर बाजार के सेंसेक्स में भारी उछाल आ जाता है तो क्या संसदीय लोकतंत्र में पार्टयिों का भी ऐसा ही हाल है। तब विचार करना चाहिए कि क्या मतदाताओं में राजनीतिक विचारधारा के पक्ष-विपक्ष में आने-जाने की रफ्तार इस कदर तेज हो सकती है या फिर मतदाताओं के बीच जब एक ही विचारधारा की कई पार्टयिां उपस्थित होती हैं तो मतदाता उसे सबसे ज्यादा मत देता है जो अपने को विचारधारा के सबसे प्रबल प्रतिनिधि के रूप में पेश करने में सफल होती है। दरअसल, विचारधाराओं का फर्क मतदाता के बीच लुप्त हो जाता है। उसे भ्रम रहता है कि वह किसी विचारधारा के पक्ष में मतदान कर रहा है या फिर एक ही विचारधारा के विभिन्न प्रतिनिधियों के बीच किसी एक को सत्ता सौंपने के लिए मतदान कर रहा है। जब भारतीय जनता पार्टी को दो सीटें मिलीं, उस समय सिख विरोधी हमलों की पृष्ठभूमि में कांग्रेस को संसदीय इतिहास में सबसे ज्यादा सीटें मिलीं। यह उदाहरण स्थापित करता है कि विचारधारा के रूप में साम्प्रदायिक राजनीति का विकास और विस्तार हुआ लेकिन उस समय तक जो पार्टी साम्प्रदायिकता की सबसे प्रबल प्रतिनिधि थी, वह पिछड़ गई । राजनीतिक विचारधारा के विकास को संसदीय राजनीति में अहमियत नहीं दी जाती। उसके विकास को मापने का कोई पैमाना आमतौर पर व्यवहार में नहीं दिखता। नतीजे में विचारधाराओं में प्रतिस्पर्धा के बजाय एक ही विचारधारा की कई पार्टयिों में प्रतिस्पर्धा को ही राजनीतिक विकास माना जाने लगता है। राजनीतिक विकास का अर्थ हुआ कि विभिन्न पार्टयिों में विचारधारात्मक स्तर पर प्रतिस्पर्धा हो। इससे ही समाज के बड़े हिस्से के हित पूरे हो सकते हैं। अपने यहां संसदीय व्यवस्था में यह प्रतिक्रिया सुनाई पड़ती है कि सभी पार्टयिां एक जैसी हैं। परिणाम भी यही दिखता है कि मतदाताओं द्वारा चुनी जाने वाली सभी पार्टयिों के नेताओं का व्यवहार एक जैसा होता है। अजीब बिडम्बना है कि देश के संविधान में समाजवादी व्यवस्था के निर्माण का संकल्प है लेकिन पूंजीपतियों और गरीबों की तादाद बढ़ती चली गई है। समाजवादी विचारधारा को स्वीकार किए जाने के बावजूद पूंजीपतियों की तादाद इसीलिए बढ़ती चली गई क्योंकि विचारधारा के स्तर पर पूंजीवाद का विस्तार होता रहा है। पूंजीवादी विचारधारा का तेजी के साथ विस्तार भूमंडलीकरण की योजना लागू होने के बाद ठीक उसी तरह से हाल के वर्षो में हुआ जैसे भाजपा की जगह 1984 में कांग्रेस ने बहुत अधिक संसदीय सीटें हासिल कीं और लगा कि एक ही विचारधारा के दो बड़े प्रतिनिधि तैयार हो गये। भूमंडलीकरण की नीतियों ने पूंजीवादी विचारधारा को लेकर राजनीतिक पार्टयिों के बीच प्रतिस्पर्धा की राह तैयार कर दी। आज लगभग सभी पार्टयिां मानती हैं कि उनका विकास भूमंडलीकरण की नीतियों के अनुसरण में ही संभव है। प्रश्न यह है कि जिस तरह की विचारधाराएं अपनी जमीन पुख्ता कर चुकी हैं उस स्थिति में किस तरह की पार्टयिों की सत्ता बन सकती है? कांग्रेस को यह डर नहीं रहता कि समाजवादी उसूलों वाली पार्टयिां सत्ता में आ सकती है। उसे भाजपा का ही भय रहता है और भाजपा को कांग्रेस ही चुनौती लगती है। राजनीतिक प्रतिस्पर्धा खास विचारधारा की तरफ बढ़ गई है। इससे जुड़ा प्रश्न है कि क्या यही विचारधारा के स्तर पर प्रतिस्पर्धी राजनीति संसदीय व्यवस्था में बनी रहेगी। दरअसल वही विचारधारा पार्टयिों पर दबाव बनाती है जिस तरह की विचारधारा में मतदाता खुद को परिवर्तित करता है। यदि मतदाता इस तरह से राष्ट्रीय विकास को देखें कि देश में गरीबी का स्तर कितना कमजोर हुआ है और पूंजी की लूट पर कितनी पाबंदी है तो वह विचारधारा के विस्तार और विकास के मापने का एक औजार खोज लेता है। वह इसका विश्लेषण करें कि उसकी दिनर्चया या बात व्यवहार में जो परिवर्तन हो रहा है, उसका विचारधारा से क्या संबंध है और किस तरह की विचारधारा का विकास हो रहा है। हर मतदाता के पास पार्टयिों के लिए वोट के साथ समाज बनाने वाली विचारधारा के विकास को मापने का औजार भी जरूरी है। वरना पार्टयिां मतदाताओं को ही बदलने में सफल होती जाती हैं। मतदाताओं के बीच इस तरह की किसी प्रक्रिया के सक्रिय न रहने के जो नतीजे निकलते हैं, उन्हें भी समझना चाहिए। मसलन साम्प्रदायिकता के विकास को हमारी संसदीय राजनीति में इस आधार पर आंका जाता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या भारतीय जनता पार्टी के प्रति समर्थन कितना बढ़ा या घटा है। जबकि वास्तविक स्थिति यह होती है कि उस विचारधारा का विकास होता रहता है और किसी एक खास संगठन की लोकप्रियता कमजोर पड़ जाती है। साम्प्रदायिकता की विचारधारा को ही लें तो संघ या भाजपा की स्थिति भले ही संसदीय गणित के आधार पर कमजोर दिखती हो लेकिन साम्प्रदायिकता की विचारधारा कमजोर नहीं हुई हैं। कहावत मशहूर है कि राजनीति में कोई किसी का स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता है। चूंकि विचारधारा एक ही है तो स्थायी दोस्त या दुश्मन के होने का प्रश्न ही कहां खड़ा होता है। जबकि विचारधारा के स्तर पर देखें तो समाजवादी विचारधारा और पूंजीवादी विचाराधारा स्थायी तौर पर एक दूसरे की दुश्मन हैं। समाजशास्त्री एमएस श्रीनिवासन ने भारतीय समाज का रुझान संस्कृतिकरण की तरफ देखा था। जो संगठन समाजवादी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं उनका अनुभव है कि भारतीय समाज के निम्न वर्ग का रुझान उच्चतम वर्ग की तरफ है। खासतौर से जो शहरी वर्गों में सक्रिय हैं, उनका यह दावा भूमंडलीकरण के दौर में ज्यादा पुख्ता हुआ है। एक संगठन के नेता के अनुसार उन्होंने जिन लोगों को भूमिहीनता से निकालकर जमीन का मालिक बनाया, उन्होंने भी उन्हें वोट नहीं दिया। ट्रेड यूनियन में सक्रिय एक नेता का अनुभव रहा कि संघर्ष में कामयाबी के बाद जिन्हें आर्थिक लाभ हुआ, उन्होंने संगठन को सहायता देने के मानस को त्याग दिया। एक तरह से ऐसी विचारधारा वाले संगठनों पर भी ऐसे ही रुझानों का दबाव है। इन संगठनों को अपने विकास और विस्तार के लिए ऐसे रुझानों की तरफ खुद को ले जाना पड़ा है। संसदीय लोकतंत्र में भीड़ की एक मानसिकता तैयार होती है जो भेड़ों की तरह धारा के साथ बहती जाती है। वह एक विचारधारा वाले संगठनों में ही राजनीतिक प्रतिस्पर्धा को परिवर्तनगामी समझ लेती है। दरअसल किसी संगठन के बड़े-छोटे होने का कोई अर्थ नहीं होता है बल्कि यह महत्वपूर्ण होता है कि आम समाज में किस विचारधारा की तरफ रुझान है। यह रुझान ही सबसे बड़ा संगठन होता है। कम्युनिस्ट पार्टी अंग्रेजों के जाने के बाद सबसे बड़ी संसदीय पार्टी थी। वह वर्गीय और समाजवादी विचारधारा को विकसित करना चाहती थी। सोवियत संघ के विघटन से पहले ही उसके कई संगठन बन चुके थे। उसका उद्देश्य एक विचारधारा को विकसित करना था। लेकिन वह रुझान भी विकसित नहीं कर सकी। इसीलिए जैसे ही भूमंडलीकरण का बवंडर आया, उसका संगठनात्मक ढांचा भी चरमराने लगा। बवंडर को विचारधारा रोक सकती थी लेकिन ऐसे संगठनों को विचारधारा का विकास संगठनों में चाहे दिखता रहा हो लेकिन लोगों में उसकी तरफ से रुझान घटता जा रहा था।
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