Wednesday, April 27, 2011

आखिर इस आरोप का अर्थ क्या है


 नरेंद्र मोदी को दो दिनों में दो बड़े झटके लगे हैं। सबसे पहले अहमदाबाद से अलग नवनिर्मित गांधीनगर नगरपालिका की 33 सीटों में से कांग्रेस 18 झटक ले गई और भाजपा के हिस्से 15 स्थान आए। यह उन लोगों के लिए जश्न मनाने का एक मौका था जो मोदी की छोटी से छोटी परेशानियों को भी उनके पराभव के रूप में देखते हैं। इसके अगले ही दिन गुजरात सरकार के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी संजीव भट्ट ने उच्चतम न्यायालय में शपथ पत्र दिया कि 27 फरवरी 2002 को मोदी ने अपने निवास पर हुई बैठक में कहा था कि यदि हिंदुओं की भावनाएं भड़की हैं तो उन्हें गुस्सा बाहर निकालने दिया जाए। यदि इस आरोप को स्वीकार कर लिया जाए तो मोदी दंगों के दौरान अल्पसंख्यकों के विरुद्ध हो रही हिंसा के लिए जिम्मेवार हैं। यदि ऐसा है तो मोदी को मुख्यमंत्री कार्यालय की बजाय जेल में होना चाहिए। किसी मामले में शपथ पत्र प्रस्तुत करना एक सामान्य कानूनी प्रक्रिया है और किसी को भी ऐसा करने का अधिकार है, किंतु क्या वाकई यह आरोप इतने पुख्ता सबूतों वाले एवं शत-प्रतिशत विश्वसनीय हैं? भट्ट के आरोपों के पूर्व पिछले नौ सालों में जांच एवं छानबीन चलता रहा है। दंगों की नानावती आयोग जांच कर चुका है और उसने मोदी को दोषी नहीं माना है। उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर बेस्ट बेकरी सहित कई मामले राज्य के बाहर चले और उसमें भी तीस्ता शीतलवाड और दूसरों के तमाम आरोपों के बावजूद मोदी के खिलाफ न्यायालय ने मुदकमा चलाने लायक तथ्य नहीं पाए। गुलबर्ग सोसाइटी में दंगों के दौरान मारे गए पूर्व कांग्रेस सांसद अहसान जाफरी की पत्नी जाकिया जाफरी द्वारा जो शिकायत दर्ज कराई गई उसमें भी मोदी को आरोपित किया गया। भट्ट का शपथ पत्र इसी संदर्भ में है। उच्चतम न्यायालय के आदेश पर पूर्व सीबीआइ निदेशक आरके राघवन की अध्यक्षता में गठित विशेष जांच दल ने मोदी से करीब 10 घंटे की पूछताछ की पर कोई सबूत नहीं पा सका। विशेष जांच दल ने उच्चतम न्यायालय को सौंपे अपने रिपोर्ट में कहा है कि जिन 32 मामलों की उसने जांच की है उसमें राज्य सरकार और नरेंद्र मोदी द्वारा स्थिति को जितनी गंभीरता से लिया जाना चाहिए उतना दिखाई नहीं देता है। इसके अलावा राज्य सरकार द्वारा किए गए गई काम भी गलत लगते हैं पर ऐसे कोई तथ्य सामने नहीं आए जिनसे सीधे मोदी अपराधी साबित हो जाएं। अब भट्ट के आरोपों पर आएं। शपथ पत्र में लगाए गए उनके आरोपों के दो पहलू हैं। एक में मोदी पर दंगों के षड्यंत्र का एवं दूसरा विशेष जांच दल द्वारा छानबीन में मोदी को बचाने का। 27 फरवरी, 2002 की बैठक के बारे में वह तीन बातें कहते हैं। पहला उपस्थित अधिकारी मोदी को यह समझाने में असमर्थ रहे कि रेल में जलाकर मारे गए शवों को अहमदाबाद लाने से तनाव बढ़ेगा। दूसरा मोदी ने अधिकारियों का यह तर्क भी स्वीकार नहीं किया कि गोधरा में 59 कारसेवकों को जिंदा जलाने की घटना के विरुद्ध विश्व हिंदू परिषद के बंद के कारण सांप्रदायिक दंगा भड़केगा। उनके अनुसार मोदी ने कहा कि बंद का आह्वान किया जा चुका है और पार्टी ने उसे समर्थन देने का निश्चय किया है, क्योंकि कारसेवकों को जलाने जैसी घटना सहन नहीं की जा सकती। भट्ट का तीसरा आरोप काफी संगीन एवं मोदी को दंगों में मुसलमानों के मारे जाने का अपराधी साबित करने वाला है। उसके अनुसार मोदी ने साफ शब्दों में कहा कि गुजरात पुलिस दंगों से निपटने में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच संतुलन के सिद्धांत का पालन करती है। इस समय यह समय की मांग है कि मुसलमानों को सबक सिखाया जाए ताकि ऐसी घटना दोबारा न घटे। .. हिंदुओं के अंदर काफी आक्रोश है और यह जरूरी है कि उन्हें अपना गुस्सा जाहिर करने दिया जाए। मोदी का इरादा क्या था यह अलग बात है, लेकिन पहली दो बातें असामान्य नहीं हैं। कोई सरकार शायद ही गोधरा जैसी नृशंस घटना में मारे गए लोगों के परिजनों को शवों से वंचित करती। बंद का समर्थन भी मोदी ने किया होगा। इस पर दृष्टिकोण भिन्न हो सकता है यानी शव नहीं लाए जाते तो शायद इतना आक्रोश नहीं फूटता आदि-आदि। विशेष जांच दल के सामने, दंगों के अन्य मामलों में न्यायालय के सामने किसी भी अन्य पुलिस अधिकारी ने ऐसा नहीं कहा कि सरकार ने उनके हाथ बांध दिए थे। भट्ट की बात मानी जाए तो विशेष जांच दल नरेंद्र मोदी को बचाने का काम कर रहा है। भट्ट कहते हैं कि जब उन्होंने विशेष जांच दल के सामने दंगों के पीछे व्यापक षड्यंत्र एवं अधिकारियों द्वारा इसे बढ़ावा देने का मुद्दा रखा तो वहां मुझे विरोध झेलना पड़ा। अगर विशेष जाचं दल ने उनकी बातें अनसुनी किया है तो उच्चतम न्यायालय में उनका शपथ पत्र दायर करना उचित है। उनका कहना है कि उच्चतम न्यायालय ने विशेष जांच दल पर जो विश्वास किया वह उस पर खरा नहीं उतर रहा है। उनके अनुसार जब उन्होंने बड़े षडयंत्र की बात कही तो उनसे कहा गया कि आप मेहानीनगर कांड जो कि गुलबर्ग सोसाइटी मामले से संबंधित था तक अपनी गवाही सीमित रखें। भट्ट स्वयं कहते हैं कि जब उन्होंने कहा कि प्रक्रियागत बाधाओं में उलझने से एक बड़े षड्यंत्र की छानबीन का उद्देश्य ही पराजित हो जाएगा तब जाकर उनका बयान रिकॉर्ड किया गया। यह भी एक सच है कि एसआइटी ने तीन दिनों तक उनसे पूछताछ की। संजीव भट्ट मोदी की बैठक में थे या नहीं इसमें पड़ने की आवश्यकता नहीं है। उस दिन खुफिया विभाग के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक जीएस रायगढ़ा थे। उनके छुट्टी पर होने के कारण भट्ट बैठक में गए होंगे। रायगढ़ का कहना है बैठक में जो सात अन्य अधिकारी उपस्थित थे उनमें से किसी और ने ऐसा क्यों नहीं कहा? विशेष जांच दल ने गुलबर्गा एवं दूसरे मामलों में जिनका जिक्र आया लगभग सभी के बयान लिए गए। पिछले 15 मार्च को उच्चतम न्यायालय ने जाकिया जाफरी एवं तीस्ता सीतलवाड द्वारा नरेंद्र मोदी प्रशासन की दंगों के दौरान जटिल भूमिका की दोबारा जांच कराने की अपील पर एसआइटी को 25 अपै्रल तक जवाब देने को कहा है कि गुलबर्ग सोसाइटी हत्याकांड की और जांच की आवश्यकता है या नहीं। जाहिर है उच्चतम न्यायालय के फैसले की प्रतीक्षा की जानी चाहिए। किंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एसआइटी का काम ज्यों ही अंतिम चरण में आने लगा कुछ लोग उसके खिलाफ वैसे ही घेरेबंदी करने लगे जैसे पिछले नौ सालों से मोदी को घेरने की कोशिश कर रहे हैं। इनकी रणनीति है कि इस जांच दल को ही अविश्सनीय बना दो ताकि इसकी रिपोर्ट बेकार हो जाए। आखिर इस षड्यंत्र की कोई तो वजह होगी? दंगों में हुई नृशंस हत्याओं का विवरण दिल दहला देता है। मरने वाले किसी भी मजहब के हों, लेकिन वे सब इसंान थे। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मारे गए करीब 1000 लोगों में 200 हिंदू भी थे। अगर पुलिस को एकपक्षीय निर्देश था तो हिंदुओं को नहीं मरना चाहिए था। भट्ट के शपथ पत्र की सूचना के साथ ही एक समाचार और आया है जिसमें बेस्ट बेकरी कांड की एक प्रमुख गवाह शेख यास्मिन बानो ने कहा है कि गलत बयान देने के लिए सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड ने उन्हें प्रलोभन दिया और गुमराह किया था। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं).

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