लेखक राजनेताओं की बयानबाजी से लोकपाल के गठन की प्रक्रिया प्रभावित होते देख रहे हैं…
समाजसेवी अन्ना हजारे ने दिल्ली में जंतर-मंतर पर आकर एक मजबूत लोकपाल विधेयक के लिए अनशन करके संप्रग सरकार और खास तौर से कांग्रेस को निरीह तो साबित कर दिया, लेकिन इस विधेयक का मसौदा तैयार करने के लिए साझा समिति के गठन के बाद से वह और उनके साथी नेताओं के निशाने पर हैं। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह उनके खिलाफ कुछ ज्यादा ही मुखर हैं। हालांकि सोनिया गांधी को लिखी गई अन्ना हजारे की चिट्ठी के बाद यह माना जा रहा था कि उनकी बयानबाजी पर रोक लगेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जब अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के विरुद्ध जंतर-मंतर पर धरने पर बैठे थे तो देखते ही देखते पूरा देश उनके पीछे एकजुट हो गया। इससे सभी दलों और विशेष रूप से कांग्रेस को पैरों तले जमीन खिसकती दिखाई दी। यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि माहौल कुछ ऐसा बन गया था जैसे दूसरे गांधी अवतरित हो गए हैं और अब भ्रष्टाचार की नकेल कसना तय है। इस माहौल से डरे तमाम नेता अपने हाथ से जनता की डोर खिसकते देख तिलमिला कर रह गए। उस समय तो उन्होंने मौन सा धारण किया, लेकिन अब वे अन्ना और उनके साथियों को सवालों के घेरे में खड़ा करने का कोई मौका नहीं चूक रहे। कुछ इसके लिए कुतर्को का सहारा ले रहे हैं तो कुछ झूठ का। सबसे पहले प्रहार हुआ साझा समिति में शामिल धनी-मानी वकील शांति भूषण और उनके बेटे प्रशांत भूषण पर। ये हमले यकायक सामने आई एक सीडी को लेकर हुए। इस सीडी में मुलायम सिंह, अमर सिंह और शांति भूषण के बीच कथित तौर पर एक जज को प्रभावित करने को लेकर बातचीत है। इस सीडी के बाद शांति भूषण और उनके दूसरे बेटे जयंत भूषण को नोएडा प्राधिकरण की ओर से आवंटित भूखंडों का मामला सतह पर आया। इसी के साथ शांति भूषण की ओर से इलाहाबाद में एक बंगले की खरीद में कथित तौर पर कम स्टांप ड्यूटी चुकाने का एक पुराना मामला भी चर्चा में आ गया। इससे नेताओं को उनके खिलाफ हमला करने में और आसानी हो गई। शांति भूषण-प्रशांत भूषण पर हमले करने में दिग्विजय सिंह जैसी सक्रियता अमर सिंह भी दिखा रहे हैं। वह शांति भूषण के इस दावे को खारिज कर रहे हैं कि उनकी उनसे या मुलायम सिंह से कभी बात नहीं हुई। उनका दावा है कि उन्होंने मुलायम सिंह का मुकदमा लड़ने के लिए शांति भूषण को न केवल प्लेन मुहैया कराया था, बल्कि 50 लाख रुपये बतौर फीस भी दी थी। जहां दिग्विजय सिंह और अमर सिंह यह साबित करने में जुटे हैं कि भूषण पिता-पुत्र दूध के धुले नहीं वहीं अन्ना के सहयोगी इन दोनों पर लगे आरोप खारिज कर रहे हैं। साझा समिति में शामिल अरविंद केजरीवाल उस सीडी को फर्जी बता रहे हैं जो शांति भूषण के खिलाफ आई है और जिसके बारे में दिल्ली पुलिस का दावा है कि उसमें छेड़छाड़ नहीं की गई। प्रशांत भूषण इस सीडी के फर्जी होने के प्रमाण पेश कर चुके हैं। सीडी की जांच करने वाली एक निजी एजेंसी ने सरकारी जांच पर सवाल उठाया है। दिग्विजय सिंह ने शांति भूषण के बाद संतोष हेगड़े पर भी जिस तरह हमला बोला उससे ऐसा लगता है कि जनता को बरगलाने की हर संभव कोशिश की जा रही है। दिग्विजय ने हेगड़े को निष्प्रभावी लोकायुक्त करार दिया तो उन्हें भी हेगड़े की ओर से यह जवाब मिला कि कांग्रेस चाहती है कि वह येद्दयुरप्पा के खिलाफ उनकी लड़ाई लड़ें। कुल मिलाकर साझा समिति के गैर सरकारी सदस्यों के खिलाफ दुष्प्रचार की मिसाल मिलना मुश्किल है। यदि एक मजबूत लोकपाल बनता है तो उसका सीधा असर नेताओं और नौकरशाहों पर पड़ेगा। लगता है कि नेता ऐसा नहीं होने देना चाहते और इसीलिए वे चुप बैठने के लिए तैयार नहीं। हालांकि वे यह जानते हैं कि भ्रष्टाचार से देश की जनता आजिज आ गई है, लेकिन उनके रवैये से यह जाहिर होता है कि वे भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए तैयार नहीं, क्योंकि शायद इससे ही उनकी राजनीति चलती है। हालांकि प्रधानमंत्री ने यह कहा है कि भ्रष्टाचार को लेकर जनता का सब्र टूट रहा है और लोकपाल विधेयक मानसून सत्र में पारित हो जाएगा, लेकिन नेताओं के एक वर्ग के रवैये से यह नहीं लगता कि इस विधेयक का मसौदा खुले मन से तैयार हो सकेगा। यदि कलह इस विधेयक के पारित होने के श्रेय को लेकर बढ़ रही है तो उसका कोई औचित्य नहीं, क्योंकि देश को सिर्फ एक मजबूत लोकपाल से मतलब है न कि इससे कि वह कैसे बना? यदि लोकपाल विधेयक की तैयारी में सिविल सोसायटी के सदस्यों की भागीदारी नहीं रहती तो एक बार फिर ऐसा विधेयक सामने आ सकता है जो रद्दी की टोकरी में डालने लायक हो। ध्यान रहे कि अभी तक जो भी लोकपाल विधेयक सामने आए वे आधे-अधूरे थे। लोकपाल विधेयक को लेकर सिविल सोसायटी और नेताओं के बीच आरोप-प्रत्यारोप का जो दौर चल रहा है उससे देश की खिल्ली ही उड़ रही है। दुनिया इससे परिचित है कि भारत भ्रष्ट देशों की सूची में शीर्ष पर है तो इसीलिए कि यहां के राजनेता भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए तैयार नहीं। देश और दुनिया यह भी अच्छी तरह समझ रही है कि लोकपाल विधेयक की तैयारी में संकीर्ण राजनीतिक कारणों के चलते रोड़े अटकाए जा रहे हैं। नि:संदेह लोकपाल विधेयक तैयार करने वाली समिति में निष्ठावान लोग होने चाहिए, लेकिन आज के इस युग में बिल्कुल पाक-साफ लोगों को खोजना मुश्किल है और यदि गड़े मुर्दे उखाड़े जाएंगे तो फिर यह काम और भी मुश्किल हो जाएगा। यह ठीक है कि कांग्रेस ने यह समझा कि अन्ना हजारे और उनके साथियों पर छींटाकशी से नाराज जनता उसका अहित कर सकती है और उसने औपचारिक रूप से इस छींटाकशी से किनारा कर लिया है और प्रणब मुखर्जी ने खुद यह कहा कि अन्ना के साथ मिलकर मजबूत लोकपाल कानून बनाया जाएगा, लेकिन इसके संकेत नहीं दिए गए कि साझा समिति के सदस्यों पर हो रही छींटाकशी बंद हो जाएगी। यदि कांग्रेस लोकपाल विधेयक बनाने का श्रेय स्वयं लेना चाहती है तो उसकी यह मंशा राजनीतिक रूप से ठीक हो सकती है, लेकिन अन्ना के साथियों पर छींटाकशी का असर साझा समिति के कार्य पर पड़ेगा। ऐसे में प्रधानमंत्री को हस्तक्षेप करना चाहिए। वैसे भी अब यह किसी से छिपा नहीं कि वह भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में सक्षम नहीं साबित हुए। बेहतर होगा कि प्रधानमंत्री राजनीति से ऊपर उठकर समिति के सारे सदस्यों को एकजुट होकर कार्य करने के लिए प्रेरित करें ताकि लोकपाल विधेयक तैयार करने में और अड़ंगा न लगे।
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