Thursday, April 7, 2011

राजनीति-माफिया और अपराध


जिस तरह से बदमाशों ने बेखौफ होकर लखनऊ में डॉ. बीपी सिंह की हत्या बीते शनिवार को की, उससे यह साबित हो गया कि उत्तर प्रदेश की राजधानी में कानून का नहीं बल्कि अपराधियों का राज चल रहा है। विगत वर्ष स्वास्थ्य विभाग के ही सीएमओ परिवार कल्याण के पद पर कार्यरत डॉ. विनोद आर्या की हत्या से आहत राजधानी के डॉक्टर अभी संभल भी नहीं पाए थे कि अपराधियों के इस कृत्य ने राजधानी को झकझोर कर रख दिया। दोनों की हत्या में सबसे बड़ी समानता यह है कि दोनों घटनाएं सुबह हुईं और घटना में प्रयुक्त हथियार एक ही बोर के थे, यहां तक कि हत्या में प्रयुक्त बाइक भी पल्सर ही थी। घटनाक्रम को अंजाम देनेवाले अपराधियों ने हेल्मेट पहन रखा था और घटना को अंजाम देने के पश्चात इस बात की पुष्टि अवश्य कर ली कि काम हुआ या नहीं। अपराधियों ने टारगेट के सिर में गोली मारी, जिससे उनके पेशेवर अपराधी होने के पुख्ता प्रमाण मिलते हैं। याद होगा कि सन् 2000 में स्वास्थ्य निदेशक बच्ची लाल की हत्या भी प्रात:काल ही की गई थी और उस घटना में आज के सत्तारूढ़ दल के माननीय सांसद धनंजय सिंह और उन्हीं के गुर्गे रामू द्विवेदी जो बसपा से ही एमएलसी हैं, के साथ राकेश शर्मा और बब्लू घोसी के खिलाफ अभियोग पंजीकृत हुआ था। लेकिन सभी चश्मदीद गवाहों के बयान बदलने की वजह से आरोपी अदालत से बरी हो गए। ऐसे में पूर्वाचल जो कुख्यात माफियाओं के गढ़ के तौर पर जाना जाता है, उसमें अपराध की एक नई पौध उग आई है। सन् 1996 से सन् 2005 तक प्रदेश सरकारों के निशाने पर पूर्वाचल के माफिया रहे, जिसके चलते एसटीएफ का गठन हुआ और तमाम एनकाउंटर में मार गिराए गए, जो शूटरों कीभूमिका निभाते थे। लेकिन इस ताबड़तोड़ एनकाउंटर के दौर ने अपराधियों के राजनीतिकरण का एक नया अध्याय भी शुरू किया, जो अब थमने का नाम नहीं ले रहा है। 

गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश की विधानसभा में बैठे 40 प्रतिशत ऐसे माननीय हैं जिनके ऊपर अपराध की संगीन धाराओं 302, 307, 364, 120बी, 376, 363, 420, 504, 506, 332 में अभियोग पंजीकृत हो चुके हैं, लेकिन किसी न किसी पार्टी से जुड़े होने के कारण उनके ऊपर कार्रवाई नहीं हो पाई या हुई भी तो इतनी धीमी गति से कि समय का फायदा उठाकर उन्होंने गवाहों को अदालत पहुंचने से पहले ही अपने पक्ष में कर लिए और मनमुताबिक गवाही दिलाकर मुकदमे से बरी हो गए। ऐसे में पूर्वाचल के अपराधियों पर नजर डालें तो गोरखपुर के चूल्लू पार से विधायक रहे हरिशंकर तिवारी और ओम प्रकाश पासवान के साथ साथ वीरेन्द्र शाही ने गोरखपुर व आसपास के जिलों में आतंक फैलाए रखा था। इसके चलते गोरखपुर में एक नए माफिया सरगना का उदय हुआ, जिसको लोग श्रीप्रकाश शुक्ला के नाम से जानते थे। शुक्ला ने तो अपराध जगत की परिभाषा ही बदल दी और संगठित अपराध का दौर शुरू कर दिया। इसने पूरे प्रदेश को अपने शिकंजे में ले लिया और अपना एकछत्र राज कायम करना शुरू कर दिया। इसके चलते सभी माफियाओं ने लामबंद होकर एसटीएफ की मदद से उसको ठिकाने लगा दिया। उसने उत्तर प्रदेश के कुशीनगर से गाजियाबाद तक और वाराणसी से लेकर नेपाल बार्डर तक अपना वर्चस्व कायम कर लिया था। 

उसी समय लखनऊ यूनिवर्सिटी में छात्र राजनीति की आड़ में अपराधी गतिविधियों को संचालित करने का कार्य अभय सिंह ने शुरू किया और अपराध जगत में पढ़े-लिखे शिक्षित लड़कों का दाखिल शुरू हुआ। अभय का संबंध मुख्तार अंसारी से स्थापित होने के बाद ताकत कई गुना बढ़ गई। चूंकि यूनिवर्सिटी से संबंधित होने के कारण होनहार छात्रों से भी उसके संबंध बने और बाद में उनके उच्च पदों पर पहुंचने पर अपने पुराने संबंधों का हवाला देकर वह छात्र से अधिकारी बने लागों का सूचना इकट्ठा करने में इस्तेमाल करने लगा। इसके चलते पुलिस आजतक इसके नेक्शस को तोड़ नहीं पाई। चूंकि इनका धंधा ठेकेदारी और सरकारी विभागों की निविदा से जुड़ा था, ऐसे में पुलिस बिना किसी पुख्ता प्रमाण के इनको छूने से हिचकती रही। ऐसे में अभय सिंह का साथ छूटने के बाद धनंजय सिंह ने अपने जौनपुर जिले से संबंधित होने का फायदा उठाकर कृष्णानंद राय, बृजेश सिंह, त्रिभुवन सिंह और वाराणसी के विनीत सिंह, जो वर्तमान में बसपा से एमएलसी हैं, से जुड़कर एक नया संगठन खड़ा कर दिया। जो समय-समय पर अपने वर्चस्व का परचम लहराता नजर आता है। राजनीतिक संरक्षण में जाने के बाद इन्होंने विश्वविालय के लड़कों को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया और अपराध की नई शैली बना ली। सबसे गंभीर बात यह है कि ये अपराधी राजनीतिक दलों की मजबूरी के तौर पर उभरकर आए और बाद में इन्होंने राजनीतिक दलों को अपनी शर्तो पर काम करने के लिए विवश कर दिया। वैसे भी प्रदेश में गठबंधन की सरकारें रहीं और उनके मूल में खाद-पानी डालने का काम इन लोगों ने किया। आज ये लोग अपनी जड़ें इतनी मजबूत कर चुके हैं कि इनको उखाड़ना आसान नहीं है। इसलिए भी कि ऐसे लोगों के मामले में सभी राजनीतिक दलों के दामन दागदार हैं। पूर्व में राजनेता धनपशुओं को अपने राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करते थे और धनपशु इन माफियाओं का अपने बाहुबल के लिे


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