Wednesday, February 29, 2012

सच कहा है तो कड़वा लगेगा ही


जिस देश में राजनीति छल-छद्म और धोखों पर ही आमादा हो, वहां संवादों का कड़वाहटों में बदल जाना स्वाभाविक है। स्वस्थ संवाद के हालात ऐसे में कैसे बन सकते हैं। टीम अन्ना के साथ जो हुआ, वह सही मायने में धोखे की एक ऐसी पटकथा है, जिसकी बानगी खोजे न मिलेगी। लोकपाल बिल पर जैसा रवैया हमारी समूची राजनीति ने दिखाया, क्या वह कहीं से आदर जगाता है? एक छले गए समूह से आप क्या उम्मीद कर सकते हैं कि वह सरकारी तंत्र और सांसदों पर बलिहारी हो जाए? केजरीवाल जो सवाल उठा रहे हैं, उसमें नया और अनोखा क्या है? उनकी तल्खी पर मत जाइए, शब्दों पर मत जाइए। बस जो कहा गया है, उसके भाव को समझिए। इतनी तीखी प्रतिक्रिया कब और कैसे कोई व्यक्त करता है, उस मनोभूमि को समझने पर सब कुछ साफ हो जाएगा। टीम अन्ना का इस वक्त हाल हारे हुए सिपाहियों जैसा है। वह राजनीति के छल-बल और दिल्ली की राजनीति के दबावों को झेल नहीं पाई और सुनियोजित निजी हमलों ने इस टीम की विश्सनीयता पर भी सवाल खड़े कर दिए। टीम अन्ना पर कभी न्यौछावर हो रहा मीडिया भी उसकी लानत-मलामत में लग गया। जिस टीम अन्ना को कभी देश का मीडिया सिर पर उठाए घूम रहा था, मुंबई में कम जुटी भीड़ के बाद आंदोलन के खत्म होने की दुहाइयां दी जाने लगीं। आखिर यह सब कैसे हुआ? आज वही टीम अन्ना जब मतदाता जागरण के काम में लगी है तो उसकी बातों पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है। अब देखिए, केजरीवाल ने एक कड़वी बात क्या कह दी, मीडिया उन पर फिदा हो गया। एक वनवास सरीखी उपस्थिति से केजरीवाल फिर चर्चा में आ गए। यह उनके बयान का ही असर है। किंतु आप देखें तो केजरीवाल ने जो कहा, वह आज देश की ज्यादातर जनता की भावना है। आज संसद और विधानसभाएं हमें महत्वहीन दिखने लगी हैं तो इसके कारणों की तह में हमें जाना होगा। आखिर हमारे सांसद और जनप्रतिनिधि ऐसा क्या कर रहे हैं कि जनता की आस्था उनसे और इस बहाने लोकतंत्र से उठती जा रही है। अन्ना और उनके समर्थक हमारे समय के एक महत्वपूर्ण सवाल भ्रष्टाचार के प्रश्न को संबोधित कर रहे थे। उनके उठाए सवालों में कितना वजन है, यह उन्हें मिले व्यापक समर्थन से ही जाहिर है। लेकिन राजनीति ने इस सवाल से टकराने और उसके वाजिब हल तलाशने के बजाए अपनी चालों-कुचालों और षड्यंत्रों से सारे आंदोलन की हवा निकालने की कोशिश की। यह एक ऐसा पाप था, जिसे सारे देश ने देखा। अन्ना से लेकर आंदोलन से जुड़े हर आदमी पर कीचड़ फेंकने की कोशिशें हुई। आप देखें तो यह षड्यंत्र इतने स्तर पर और इतने धिनौने तरीके से हो रहे थे कि राजनीति की प्रकट अनैतिकता इसमें झलक रही थी। ऐसी राजनीति से प्रभावित हुए अन्ना पक्ष से भाषा के संयम की उम्मीद करना तो बेमानी ही है, क्योंकि शब्दों के संयम का पाठ केजरीवाल से पहले हमारी राजनीति को पढ़ने की जरूरत है। आज की राजनीति में नामचीन रहे तमाम नेताओं ने कब और कितनी गलीज भाषा का इस्तेमाल किया है, यह कहने की जरूरत नहीं है। गांधी को शैतान की औलाद, भारत मां को डायन और जाने क्या-क्या असभ्य शब्दावलियां हमारे माननीय सांसदों और नेताओं के मुंह से ही निकली हैं। वे आज केजरीवाल पर बिलबिला रहे हैं, लेकिन इस कड़वाहट के पीछे राजनीति का कलुषित अतीत उन्हें नजर नहीं आता। हमारे लोकतंत्र को अगर माफिया और धनपशुओं ने अपना बंधक बना लिया है तो उसके खिलाफ कड़े शब्दों में प्रतिवाद दर्ज कराया ही जाएगा। भारत आज भ्रष्टाचार की मर्मातक पीड़ा झेल रहा है। ऐसे में जगह-जगह असंतोष हिंसक अभियानों में बदल रहे हैं। लोकतंत्र में प्रतिरोध की चेतना को कुचलकर हम एक तरह की हिंसा को ही आमंत्रित करते हैं। आंदोलनों को कुचलकर सरकारें जन-मन को तोड़ रही है। इसीलिए लोकपाल बिल बनाने की उम्मीद में सरकार के साथ एक मेज पर बैठकर काम करने वाले केजरीवाल की भाषा में इतनी कड़वाहट पैदा हो जाती है, लेकिन सत्ता के केंद्र में बैठी मनीष तिवारी, कपिल सिब्बल, दिग्विजय सिंह, बेनी वर्मा, सलमान खुर्शीद जैसों की राजनीति में इतना कसैलापन क्यों है। अगर सत्ता के प्रमुख पदों पर बैठे हमारे दिग्गज नेता सुर्खियां बटोरने के लिए हद से नीचे गिर सकते हैं तो केजरीवाल जैसे व्यक्ति को लांछित करने का कारण क्या है? (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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