Monday, February 27, 2012

राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं राहुल


उत्तर प्रदेश का चुनावी माहौल चरम पर है। बसपा, सपा, कांग्रेस और भाजपा के बीच सत्ता की जंग अपने पूरे शबाब पर है। लेकिन इस दौर में अगर सबकी नजर किसी नेता पर है तो वे हैं कांग्रेस के युवा नेता राहुल गांधी और सपा के अखिलेश यादव। दोनों युवा नेता अपने-अपने अंदाज में चुनाव प्रचार में डटे हैं और एक-दूसरे के खिलाफ जमकर मोर्चा संभाले हुए हैं। लेकिन आजकल जिसकी ज्यादा चर्चा हो रही है, बेशक वह हैं कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी। उन्हें भारतीय राजनीति का अपरिपक्व युवा चेहरा बताया जा रहा है, लेकिन हाल के दिनों में कई मौकों पर उन्होंने अपनी राजनीतिक परिपक्वता दिखाई है। यह बात और है कि कुछ राजनीतिक विश्लेषक इसे उनका राजनीतिक तिकड़म बता रहे हैं। पिछले दिनों राहुल गांधी ने एक मंच से विपक्षी समाजवादी पार्टी का घोषणा पत्र यह कहते हुए फाड़ दिया था कि यह पार्टी बड़े-बड़े दावे तो करती है, लेकिन सत्ता में आने के बाद सब धरे के धरे रह जाते हैं। राहुल यहीं नहीं रुके, उन्होंने विपक्षी दलों के घोषणा पत्रों का जमकर माखौल भी उड़ाया। राहुल गांधी के इस रुख से सपा सहित तमाम विपक्षी दलों के नेता अवाक रह गए। पर जब मीडिया ने राहुल गांधी द्वारा फाड़े गए पर्चे का क्लोजअप दिखाया, तो उनकी पोल खुल गई। दरअसल, वह सपा का घोषणा पत्र नहीं, बल्कि कांग्रेस पार्टी के उन नेताओं के नामों की लिस्ट थी, जिन्हें मंच पर बोलना था। यहां यह सवाल भी उठता है कि क्या सपा का घोषणा पत्र बताते हुए कांग्रेसी नेताओं के नाम की सूची फाड़कर राहुल ने राज्य में त्रिशंकु विधानसभा की संभावनाओं के बीच कांग्रेस-सपा के भावी गठबंधन पर रोक लगा दी है? दरअसल, तमाम राजनीतिक विश्लेषक यह अनुमान लगा रहे थे कि अगर राज्य में किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला तो पर्याप्त संख्या बल के लिहाज से सपा और कांग्रेस मिलकर सरकार बना सकते हैं। इस भावी गठबंधन के भी दो फायदे होते। पहला तो यह कि 22 सालों से प्रदेश की सत्ता से दूर कांग्रेस की सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित होती और दूसरा केंद्र की संप्रग सरकार को सपा के रूप में नया खेवनहार मिल जाता तथा संप्रग सरकार की प्रमुख सहयोगी तृणमूल कांग्रेस से कांग्रेस पल्ला झाड़ने का साहस जुटा लेती। मगर दाद देनी होगी राहुल की इस हिम्मत की कि उन्होंने खुले मंच से यह जताने की कोशिश कर दी कि उनकी पार्टी भले ही विपक्ष में बैठना स्वीकार कर लेगी, मगर चुनाव बाद सपा से कोई गठबंधन नहीं करेगी। शायद राहुल को यह तथ्य अच्छी तरह समझ में आ गया होगा कि कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों के क्षेत्रीय दलों को समर्थन देने से ही राज्य में इनका नामलेवा तक नहीं बचा है और भविष्य में भी अगर यही हाल रहा तो हो सकता है कि अपने बचे-खुचे अस्तित्व से जूझती इन पार्टियों को पुन: अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने में दशकों का समय लगे। खैर, राहुल के इस तेवर ने प्रदेश में चल रहे सियासी गुणा-भाग को और उलझा दिया है। राहुल के पर्चा कांड के बाद मुलायम सिंह ने हमीरपुर की जनसभा में यह कहकर राजनीतिक सरगर्मियां बढ़ा दीं कि अगर प्रदेश में भाजपा की सरकार बनने के संकेत दिखते हैं तो उनकी पार्टी कांग्रेस के साथ गठबंधन कर सकती है। हालांकि बाद में अपनी गलती का एहसास होते ही वह अपनी बात से पलट गए, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी। उनका यह संदेश राज्य की जनता के बीच पहुंच चुका था। मुलायम सिंह के इस रंग-बदलू व्यवहार से निश्चित ही समाजवादी पार्टी को आगामी दो चरणों के चुनाव में नुकसान होने का अंदेशा है। राज्य की जनता को यह समझ आने लगा है कि जब सपा येन-केन प्रकारेण कांग्रेस से गठबंधन को अति-आतुर दिख रही है तो फिर अपने बहुमूल्य वोट का नुकसान क्यों? जानकारों की राय में इससे कांग्रेस, भाजपा और बसपा जैसी विपक्षी पार्टियों का जनाधार बढ़ना तय है। एक ओर जहां युवा तुर्क अखिलेश यादव के नेतृत्व में सपा पूरे प्रदेश में साइकिल की चाल को तेज करने में लगी हुई है तो वहीं मुलायम सिंह अपनी बयानबाजियों से अखिलेश की राह में रोड़ा बन रहे हैं। बहरहाल, नेताओं के हालिया बयानों और विवादों ने यकीनन राज्य में राजनीतिक सरगर्मियां बढ़ा दी हैं। मगर अंदरखाने क्या खिचड़ी पक रही है, कोई नहीं कह सकता। अब तो विधानसभा चुनाव के बाद ही पूरी तस्वीर साफ हो पाएगी और इसमें प्रदेश की जनता की मन:स्थिति यकीनन बड़ा कारक होगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

No comments:

Post a Comment