Monday, February 27, 2012

यूपी में और बढ़े त्रिशंकु विधानसभा के आसार


पहले चार चरण में बढ़े मतदान और मतदाताओं के रुझान ने यूपी के सियासी नतीजों को और उलझा दिया है। मतदान शुरू होने तक दो ही सवाल थे। पहला बसपा और सपा में कौन प्रथम होगा? दूसरा भाजपा और कांग्रेस के बीच तीसरे नंबर पर कौन होगा? मगर अब चार चरणों के बाद पहले नंबर की तस्वीर तो कुछ साफ होती नजर आ रही है, लेकिन दूसरे और तीसरे नंबर की लड़ाई पेचीदी हो गई है। त्रिशंकु विधानसभा की तरफ जा रहे यूपी के नतीजे वास्तव में 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले का लिटमस टेस्ट होंगे। जाहिर तौर पर जितनी नजरें सपा-बसपा पर हैं, उससे कहीं ज्यादा देश की नजर दोनों राष्ट्रीय दलों कांग्रेस और भाजपा के प्रदर्शन पर हैं। दरअसल, मतदान शुरू होने से पहले लग रहा था कि पहले-दूसरे नंबर की लड़ाई में यानी सपा और बसपा होंगे और तीसरे चौथे नंबर का संघर्ष भाजपा-कांग्रेस के बीच होगा। मगर ऐसा लगता है कि जैसे यूपी के मतदाताओं ने परिवर्तन का मन बना लिया है। बढ़ा मतदान प्रतिशत और उसमें भी युवाओं और महिलाओं की बढ़ी भागीदारी ने यूपी का सियासी समर दिलचस्प कर दिया है। सत्ताधारी बसपा को छोड़ दें तो सपा, भाजपा और कांग्रेस सभी इस बढ़े मतदान प्रतिशत को अपने-अपने पक्ष में तर्को की चाशनी में भिगोकर पेश करने में जुटे हैं। तीनों ही दलों की परिवर्तन की थ्योरी तो समझ में आ रही है, लेकिन बदलाव का वोट किसी एक के खाते में जाने के संकेत कम से कम सियासी पंडित तो नहीं पकड़ पा रहे हैं। दरअसल, जिस सामाजिक गणित को भिड़ाकर बसपा पिछले चुनाव में पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता पर काबिज हुई थी, वह उन्हें कायम नहीं कर सकी। यह भी ठीक है कि मौजूदा चुनाव में 2007 की तरह तत्कालीन सपा शासन में गुंडागर्दी और अराजकता के खिलाफ रोष भी नहीं। मगर बसपा सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के साथ-साथ पार्क, मूर्ति और मैदान जैसे मुद्दे शहरी आबादी को तो चिढ़ा ही रहे हैं। तीनों ही विपक्षी दलों ने इन तथ्यों के मद्देनजर ही अपना चुनावी अभियान चलाया। सपा ने मौके को लपकते हुए न सिर्फ विचारधारा और सोच बदली, बल्कि काफी हद तक पार्टी का चेहरा तक बदल दिया है। मुलायम सिंह ने सारे पुराने चेहरों को नेपथ्य में भेज दिया है। वह खुद पूरी कमान अपने हाथ में लिए हैं और नए चेहरे के तौर पर पुत्र अखिलेश को आगे कर दिया है। साथ ही पिछले कार्यकाल में अपराधीकरण के आरोपों के लिए मुलायम खुद सबसे माफी मांग रहे हैं। साथ ही अंग्रेजी और अंग्रेजियत का विरोध करते रहे मुलायम अब युवाओं का साथ पाने की मंशा से कंप्यूटर और टैबलेट बांटने की बात कर रहे हैं। इसका असर भी दिख रहा है और पहले चार चरण में निर्विवाद रूप से सपा को सभी बढ़त दे रहे हैं। दूसरा रोचक तथ्य है भाजपा और कांग्रेस की सियासत। देखा जाए तो यूपी चुनाव का पूरा एजेंडा कांग्रेस ने तैयार किया। मुस्लिम आरक्षण और बाटला हाउस के मुद्दों पर कांग्रेस ने ऐसा माहौल तैयार किया कि सभी दल उसके इर्द-गिर्द ही घूम रहे हैं। देखा जाए तो कांग्रेस के इस मुस्लिम एजेंडे ने ही भाजपा को वोटों के ध्रुवीकरण का मौका दे दिया है। बहुतायत में ब्राह्मण वोटों की वापसी और यादव और कुर्मी को छोड़कर कुशवाहा, लोध, शाक्य और दूसरी पिछड़ी जातियों के बीच भाजपा फिलहाल पहली पसंद के रूप में उभरी है, लेकिन मुस्लिम कार्ड खेलने के बावजूद कांग्रेस इस वर्ग के बीच पहली पसंद के तौर पर नहीं दिख रही है। राहुल जैसा युवा नेता और ताकत होने के बावजूद कांग्रेस निश्चय ही पहले से तो बेहतर करता दिख रही है, लेकिन यूपी में खुद को किसी विकल्प के रूप में पेश करने की कोशिशें सफल होने में संदेह है।

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