Tuesday, February 14, 2012

सिर्फ वोट भुनाने का हथियार


पिछले दिनों सरकार ने पिछड़ा वर्ग के लिए निर्धारित 27 प्रतिशत कोटे में से 4.5 प्रतिशत आरक्षण अल्पसंख्यक समुदाय के पिछड़े वर्ग को आरक्षित करने की बात कही। हालांकि विधानसभा चुनावों के मद्देनजर निर्वाचन आयोग ने चुनाव संपन्न होने तक सरकार की मंशा पर पानी फेर दिया है। मगर सवाल यह है कि इस तरह का जाल फेंकना क्या रेखांकित क्या करता है? तमाम विपक्षी पार्टियों की नजर में सरकार का यह पैंतरा सीधे-सीधे कांग्रेस को चुनावी फायदा पहुंचाता नजर आ रहा है, लेकिन इस बारे में अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगा। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या इससे मुस्लिम समाज को फायदा होगा? अगर मंडल आयोग की संस्तुतियों को देखा जाए तो पिछड़ी जातियों की कुल संख्या संपूर्ण आबादी की 52 प्रतिशत है। इसमें हिंदू, मुसलमान, ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन सभी वर्गो की पिछड़ी जातियां शामिल हैं। इन सभी वर्गो के पिछड़ों को आरक्षण की परिधि में लाकर 27 प्रतिशत आरक्षण देने की बात कही गई थी। अब उसी आरक्षण में से 4.5 प्रतिशत आरक्षण अल्पसंख्यक समाज को दे देना समझ से परे है। इस आरक्षण का लाभ अत्यधिक पिछड़े मुस्लिम समाज के लोग कैसे उठा पाएंगे? इसका अधिकांश लाभ तो ईसाइयों और बौद्ध समुदाय को मिलता नजर आ रहा है। दरअसल, सरकार ने बड़ी ही चालाकी से विधानसभा चुनावों से पहले मुस्लिम समाज को ठगने का काम किया है ताकि मुस्लिम समाज का एकमुश्त वोट-बैंक कांग्रेस की झोली में आ गिरे, जबकि हकीकत यह है कि पंजाब में सिख समुदाय पर आरक्षण का लाभ मिलने का वादा किया गया तो गोवा में ईसाइयों पर दांव लगाया जाएगा। वहीं उत्तर प्रदेश में इसका केंद्र मुस्लिम बन गए हैं। हमेशा की ही तरह इस बार भी कांग्रेस की बाजीगरी मुस्लिमों को ठगने का काम कर रही है। ऐसे में मुस्लिमों के बीच यह सवाल प्रमुखता से उठ रहा है कि क्या उन्हें मात्र आरक्षण का झुनझुना चाहिए या वास्तव में उनके हितों तथा उनके सर्वागीण विकास के लिए ठोस और कारगर कदम उठाने होंगे? फिर देश में यह बहस भी शुरू हो गई है कि आरक्षण जब आजादी के 65 वर्षो बाद भी मुस्लिमों का भला नहीं कर पाया तो राजनीतिक शून्यता के इस दौर में आरक्षण से किसे और क्या फायदा होगा? एक और बड़ा मुद्दा यह कि क्या मजहब के आधार पर आरक्षण देना सही है? आजाद भारत में संविधान निर्माताओं ने हाशिए पर खड़े समाज के संरक्षण और उत्थान के लिए प्रावधान बनाए, मगर संविधान सभा में जब मजहब के आधार पर आरक्षण की मांग उठी तो सात में से पांच मुस्लिम सदस्यों मौलाना अबुल कलाम आजाद, मौलाना हिफजुर रहमान, बेगम एजाज रसूल, हुसैन भाई लालजी तथा तजामुल हुसैन ने इसका कड़ा विरोध करते हुए इसे राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए खतरा बताया था। वहीं 26 मई 1949 को संविधान सभा में जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, अगर आप अल्पसंख्यकों को ढाल देना चाहते हैं तो वास्तव में आप उन्हें अलग-थलग करते हैं..। हो सकता है कि आप उनकी रक्षा कर रहे हों, पर किस कीमत पर? ऐसा आप उन्हें मुख्यधारा से काटने की कीमत पर करेंगे। आज जब राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में मुस्लिम आरक्षण की मांग उठाते हैं या सच्चर कमेटी की सिफारिशों को लागू कराने की बात करते हैं तो दुख होता है कि एक ऐसे नेता का प्रपौत्र मजहबी आरक्षण का हिमायती है, जो उसका हर स्थिति में विरोध करते थे। नेहरू ही क्यों, 1990 में जब वीपी सिंह की सरकार ने सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्गो के लिए 27 फीसदी आरक्षण का आदेश निकाला था, तब राजीव गांधी ने इसका जोरदार विरोध किया था। विपक्ष के नेता की हैसियत से 6 सितंबर 1990 को राजीव गांधी ने संसद में अपने भाषण में मंडल आयोग की संस्तुतियों को खत्म करने की मांग की थी। आज जब कांग्रेस सत्ता में है तो उसे अपनी ही पार्टी के नेता का आरक्षण विरोधी रवैया याद नहीं रहा। जिस मंडल आयोग की संस्तुतियों को खत्म करने की वकालत राजीव गांधी ने की थी, कांग्रेसी नेता आज उसी मंडल आयोग की संस्तुतियों का इस्तेमाल अल्पसंख्यक समाज खासकर मुस्लिम समाज को ठगने के लिए कर रहे हैं। वैसे भी मजहब के नाम पर आरक्षण का दुष्परिणाम यह रहा है कि आरक्षण का लाभ मुस्लिम समुदाय के क्रीमीलेयर ही उठा ले गए। अगर कांग्रेस वास्तव में मुस्लिम समाज की बेहतरी चाहती है तो सच्चर कमेटी तथा मिश्र आयोग की संस्तुतियों को पूर्णत: लागू करे तथा उनके प्रावधानों के अनुकूल मुस्लिमों को उचित लाभ दिलवाए। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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