Tuesday, February 14, 2012

बड़े चुनावी मुद्दे की आहट


चुनाव जनतंत्री महोत्सव हैं। चुनाव में जनगणमन अपने भाग्य विधाता चुनते हैं। भारत के 5 राज्य पंजाब, उत्तराखंड, गोवा, मणिपुर व उत्तर प्रदेश अपनी नई विधानसभाएं चुन रहे हैं। पंजाब में अकाली-भाजपा गठबंधन की प्रतिष्ठा को चुनौती है। उत्तराखण्ड में कांग्रेस व भाजपा के बीच सीधा टकराव है। गोवा की भी स्थिति कमोवेश ऐसी ही है। मणिपुर की स्थिति स्पष्ट नहीं है, लेकिन असली महाभारत है उत्तर प्रदेश में। कांग्रेस व भाजपा ने उत्तर प्रदेश को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया है और सपा, बसपा ने जीवनमरण का। राहुल गांधी ने चुनाव बाद भी यहीं काम करने का वायदा किया है। सोनिया परिवार के अन्य सदस्य प्रियंका व उनके पति भी यहीं डेरा डाले हैं। दिग्विजय सिंह तो खैर पहले से ही यहीं जमे हैं। पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी, भाजपा प्रमुख नितिन गडकरी, राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती आदि नेता लगातार अभियान में हैं। दोनों राष्ट्रीय दलों ने सपा व बसपा से कोई गठबंधन न करने का ऐलान किया है। राहुल की ऐसी घोषणा का मजाक बना है। केंद्र में कांग्रेस, सपा व बसपा साथ-साथ हैं तो उत्तर प्रदेश में क्यों नहीं? भाजपा ने मायावती के साथ सरकार बनाई थी। भाजपा ने भविष्य में ऐसे किसी गठजोड़ से इंकार किया है, लेकिन बुनियादी सवाल दूसरे हैं। संविधान की उद्देशिका में सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय के संकल्प हैं। यहां पंथ, मजहब, आस्था और विचार स्वतंत्रता की गारंटी है, मजहबी आरक्षण की नहीं। केंद्र ने पिछड़े वर्गो के आरक्षण कोटे में से मुसलमानों के 4.5 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की है। कानून मंत्री ने इसे 9 प्रतिशत किए जाने का बयान दिया है। पिछड़ों का आरक्षण संविधान की उद्देश्यिका के सामाजिक आर्थिक व राजनीतिक न्याय के संकल्प की ही प्रतिभूति है। मुलायम सिंह पिछड़े वर्ग के हितैषी होने के दावेदार रहे हैं। कांशीराम का बहुजन समाज दलित और पिछड़ों से मिलकर ही बना था। सामाजिक न्याय मंत्री ने 2007 में राज्यसभा को बताया था कि कि राज्य पंचायतीराज की गणना 2001 के अनुसार यूपी में पिछड़े वर्गो के 7,02,54,083 लोग थे। आज 11 वर्ष बाद यह आबादी काफी बढ़ गई है, लेकिन पिछड़े वर्गो की हकतल्फी के इस सवाल पर सपा-बसपा की चुप्पी से राज्य की आधी आबादी गुस्से में है। भाजपा खुलकर इस वर्ग के साथ आ गई है। यूपी में पिछड़े वर्गो के मत निर्णायक हो गए हैं। उनकी भारी संख्या कोई भी गुल खिला सकती है। सामाजिक और आर्थिक न्याय बड़ा चुनावी मुद्दा है। भारत में जन्मना जातियां हैं। जाति आधारित आर्थिक व सामाजिक पिछड़ेपन भी हैं। संविधान निर्माताओं ने अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण के सीधे प्रावधान बनाए और पिछड़े वर्गो के लिए राष्ट्र-राज्य को अधिकार (अनु. 340) दिए। पिछड़े वर्गो के लिए पहला आयोग 1953 में बना। काका कालेकर आयोग ने 1955 में 2399 पिछड़ी जातियां चिह्नित कीं। उन्होंने इनमें 837 को वास्तविक पिछड़ा बताया। मंडल आयोग (1980) ने पिछड़ों की संख्या 52 प्रतिशत बताई। 2007 के राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण ने पिछड़ों की आबादी 40.94 प्रतिशत व अनुसूचित जातियों की 30.80 प्रतिशत आंकी, पर इससे मूल मुद्दे पर कोई फर्क नहीं पड़ता। सैंपल सर्वेक्षण के अनुसार 78 प्रतिशत पिछड़े व 79.8 प्रतिशत अनुसूचित जाति के लोग गांव में रहते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के पिछड़े 556.72 रुपये प्रतिमाह पर गुजारा करते हैं, वही अनुसूचित जाति के लोग 474.72 पर। पिछड़ों का 60.7 प्रतिशत कृषि कार्य से ही जुड़ा हुआ है। 30 प्रतिशत आबादी गावों में मजदूरी करती है। पिछड़े वर्गो की विशाल आबादी राष्ट्रीय उत्पादन में जमकर योगदान करती है, बावजूद इसके अल्पसंख्यकवादी राजनीति श्रमशील अभावग्रस्त विशाल पिछड़े समूह की उपेक्षा कर रही है। उत्तर प्रदेश के चुनावों से उठा यह सवाल भविष्य की राष्ट्रीय राजनीति को भी प्रभावित करने वाला है। उत्तर प्रदेश में पिछड़े वर्गो की 79 जातियां हैं। आर्थिक आधार पर पिछड़े वर्गो की खोज और उन्हें विशेष सहायता देने की आवश्यकता है। नेशनल सैंपल सर्वेक्षण के अनुसार उत्तर प्रदेश में पिछड़ों की 54.64 प्रतिशत आबादी ग्रामीण है। यहां लगभग चालीस वर्ष तक कांग्रेस का ही राज रहा। मायावती ने सात वर्ष, मुलायम सिंह ने लगभग साढ़े पांच वर्ष राज किया। बसपा राज का भ्रष्टाचार संवैधानिक संस्थाओं के लिए भी आश्चर्यजनक रहा। सपा सरकार ने भी मनमानी की। राजनाथ सिंह ने अतिपिछड़ों व अतिदलितों को आरक्षण का वास्तविक लाभ दिलाने के लिए 2000 में कानून बनाया। सपा ने विरोध किया। बसपा ने उलट दिया। कांग्रेस ने पिछड़ों के ही कोटे में मुस्लिम आरक्षण की घोषणा की। सो चुनाव में पिछड़े वर्गो का मुद्दा ही ऊपर है। उत्तर प्रदेश का चुनाव राष्ट्रीय राजनीति के लिए महत्वपूर्ण हो गया है। मूलभूत मुद्दे अल्पकालिक ही नहीं होते। सामाजिक न्याय व मजहबी सांप्रदायिकता के प्रश्न अंग्रेजीराज से भी पुराने हैं। अंग्रेजों ने 1871 में हंटर कमेटी से ऐसे ही निष्कर्ष निकलवाए थे। मजहबी आरक्षण बनाम सामाजिक न्याय का प्रश्न संविधान सभा के सामने भी था। सभा ने सरदार पटेल की अध्यक्षता में अल्पसंख्यकों, मूलाधिकारों संबंधी समिति बनाई थी। समिति ने रिपोर्ट में कहा कि स्थितियां बदल चुकी हैं, अब यह उचित नहीं है कि मुस्लिमों या किसी भी धार्मिक अल्पसंख्यक के लिए कोई स्थान रक्षण रहे। संविधान सभा व नेहरू कांग्रेस ने ही मजहबी अल्पसंख्यक आरक्षण की समाप्ति व दलितों-पिछड़ों को विशेष अवसर का निर्णय लिया था, लेकिन सोनिया कांग्रेस ने अल्पसंख्यकवाद चलाया। प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय संसाधनों पर मुसलमानों का पहला हक बताया है। सच्चर कमेटी से कहलवाया कि मुसलमानों की हालत अनुसूचित जातियों से भी बदतर है। रंगनाथ मिश्र आयोग ने कांग्रेसी इच्छा के अनुरूप पिछड़ों के कोटे से ही मुसलमानों को 10 प्रतिशत आरक्षण की संस्तुति की थी। केंद्र ने वही कर दिखाया। पिछड़े वर्ग की हकतल्फी का प्रश्न यूपी की सीमा लांघकर अखिल भारतीय मुद्दा बने तो आश्चर्य क्या है? जाति अपमान या वर्ग भेद से राष्ट्र नहीं बनते। सैंपल सर्वे के अनुसार देश में अनुसूचित जाति-जनजाति व पिछड़े वर्गो की आबादी 70 प्रतिशत है। सर्वेक्षण में तमिलनाडु, बिहार, केरल व यूपी में 50 प्रतिशत आबादी पिछड़े वर्गो की है। यह तमिलनाडु में 74.4, बिहार में 59.39 व केरल में 62.88 प्रतिशत आंकी गई है और उत्तर प्रदेश में लगभग आधी। राष्ट्र बहुमत आबादी वाली महाशक्ति की उपेक्षा और अल्पसंख्यक तुष्टीकरण से महाशक्ति नहीं बन सकता। उत्तर प्रदेश के चुनाव से उठा यह मुद्दा लोकसभा चुनाव में और बड़ा राष्ट्रीय मुद्दा बनेगा। सोनिया-राहुल को इसका उत्तर देना है। (लेखक उप्र विधान परिषद के सदस्य हैं) 12श्चश्रल्ल2@Aंॠ1ंल्ल.Yश्रे

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