आखिर हमारे देश में राष्ट्रस्तरीय नेतृत्व का अकाल क्यों है? सवाल यह भी बनता है कि आज राष्ट्र स्तरीय नेतृत्व की आवश्यकता ही किसे है? जवाबों की तलाश हमें हमारी राजनीतिक व्यवस्था की ओर ले जाती है। हमारी राजनीति आज अगर राष्ट्रीय स्तर के नेता नहीं पैदा कर रही है तो कहीं इसके लिएहमारी व्यवस्था तो जिम्मेदार नहीं है? हमारे राष्ट्रीय नेता तो आजादी के आंदोलन की उपज थे। राष्ट्रीय नेताओं की जाति का खत्म हो जाना एक बड़ा सरोकार है। कारण? क्षेत्रीयता, राष्ट्रीयता पर हावी हो चली है। हमने अनेक प्रधानमंत्री देखे हैं जिनको देश की जनता ने प्रधानमंत्री के रूप में सोचा ही नहीं था। सांसदगण द्वारा चुना गया नेता मूलत: सांसद होता है। अत: मात्र एक संसदीय क्षेत्र हमारे नेतृत्व की स्वत: सीमा बन जाता है। चूंकि संपूर्ण राष्ट्र किसी का चुनाव क्षेत्र नहीं बनता इसलिए राष्ट्रीय नेताओं की संभावनाएं समाप्त होती गई हैं। विकास की ओर अग्रसर इस देश में लीक से हटकर परिवर्तन के बारे में सोचना जरूरी हो गया है। गठबंधन की मजबूरियां हमें अपंग कर कहीं गुलाम न बना दें। अमेरिका में गवर्नर का सीधे जनता द्वारा चुनाव होता है। प्रतिनिधि सभाओं के चुने हुए प्रतिनिधि एक्ट पास कराने, बजट व्यवस्थाओं में महत्वपूर्ण भूमिका तो निभाते हैं, लेकिन वे गवर्नर को हटा नहीं सकते। चार वषरें तक स्थिरता का वातावरण गवर्नर को विकास की सोच का अवसर देता है। इस कारण अमेरिका में राज्यपालों पर राजनीतिक दबाव की संभावनाएं बहुत कम हो जाती हैं। प्रतिनिधिगण कानून बनाने के दायित्वों का निर्वहन करते हैं। चूंकि प्रतिनिधि की मुख्यत: भूमिका विधिक होती है, अत: दबंगों, माफियाओं, दादाओं का प्रतिनिधि सभा में कोई काम ही नहीं है। इसलिए अमेरिका में कोई माफिया किस्म का आदमी चुनाव लड़ता नहीं दिखता। अमेरिकी राष्ट्रपति कोई भी हो, बराबर का शक्तिशाली होता है और हमारा प्रधानमंत्री? नेहरू बहुत शक्तिशाली थे लेकिन कुछ अन्य के लिए ऐसा नहीं कहा जा सकता? अब व्यवस्थाओं के बदलने से हमारी स्थितियों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? जैसे कि किसी राच्य की राजनीति में खनन माफियाओं की बड़ी भूमिका है। उनकी सशक्त लॉबी के सामने सरकारें, मुख्यमंत्री तक असहाय हो जाते रहे हैं। ऐसी स्थिति में नैतिक-अनैतिक, स्याह-सफेद प्रश्नों को दरकिनार कर सत्ताधारी दल येन-केन-प्रकारेण अपनी सरकार का अस्तित्व बचाने में लगा रहता है। नतीजन, बिना किसी जिम्मेदारी, जवाबदेही के एक अनैतिक सत्ता केंद्र का जन्म हो जाता है। वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था का प्रतिफल यह है कि हमें दिन-रात 24 घंटे की वह राजनीति झेलनी पड़ती है, जो 5 वर्ष के अंतराल में एक बार होनी चाहिए। फर्ज करें कि एक पुलिस अधीक्षक है, जो अपराध नियंत्रण के मोर्चे पर अच्छा कार्य कर रहा है। उसका अच्छा होना राज्य के तो हित में है, लेकिन हो सकता है कि यह बात स्थानीय मठाधीश के हित के विपरीत हो। वह किसी थानेदार को उसकी अकर्मण्यता के कारण हटाना चाहता है तो अक्सर हटा नहीं पाता। दबावों, समीकरणों से प्रभावित प्रशासन में प्राय: राच्यों के लक्ष्यों के प्रति समर्पण में कमी हो जानी स्वाभाविक है। राच्यों के शीर्ष नेतृत्व के लिए स्थानीय सत्ता समीकरणों में प्रभावी बन चुके नेता को दरकिनार कर सकना संभव नहीं होता। हमारी राजनीति सत्ता की दहलीज तक पहुंच कर आगे लक्ष्यहीन हो जाती है। राजनीतिक बाध्यताओं के कारण बहुत से नीति-नियामक महत्वपूर्ण पदों को समझौतों में दे देना पड़ता है। हमने देखा है कि विकास का ककहरा भी न जानने वाले प्रदेशों के नेता बन बैठे हैं। वर्तमान लोकतंत्र ने जन जागरूकता, गरीब और उपेक्षित समाज तक सत्ता को पहुंचाने का काम बखूबी किया है, लेकिन अब से आगे के लिए राष्ट्रपति या अध्यक्षीय शासन प्रणाली ही अधिक उपयुक्त होगी। समझना जरूरी है कि देश का सबसे शक्तिशाली पद असहाय क्यों हो रहा है? क्षेत्रीय पार्टियों, छोटे राच्यों, जातीय-भाषिक समूहों को प्रश्रय मिलता दिख रहा है। इसके विपरीत राष्ट्रपति, राच्यपाल प्रणाली में विभाजन के स्थान पर संयोजन को सत्ता का माध्यम बनाना मजबूरी होगी। राष्ट्रपति के उम्मीदवार के लिए अनिवार्य होगा कि वह मणिपुर, पांडिचेरी जैसे छोटे राच्यों से भी आवश्यक मत प्राप्त करें। अगर आप राष्ट्रपति के उम्मीदवार हैं तो आप बांग्ला भी सीखेंगे और मराठी भी। यहां से राजनीति के राष्ट्रीय एकता की दिशा में उन्मुख होने की शुरूआत हो सकती है। संविधान समिति की कार्यवाहियों में 8 एवं 9 जून 1947 को राष्ट्रपति प्रणाली का बिंदु इमाम हुसैन, शिब्बन लाल सक्सेना द्वारा उठाया तो गया था, किंतु गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 की पृष्ठभूमि के कारण यह बिंदु गहन विचार का विषय नहीं बना। बाबा साहब ने 4 नवंबर 1948 को संविधान सभा में कहा था लोकतांत्रिक कार्यपालिका प्रथमत: स्थिर होनी चाहिए और फिर जिम्मेदार होनी चाहिए। अमेरिकी व्यवस्था स्थिर अधिक है, जबकि ब्रिटिश व्यवस्था जिम्मेदार अधिक है। आज की स्थितियों के रूबरू बाबा साहब के विचार क्या होते, इसकी कल्पना की जा सकती है। जब स्थिरता ही न होगी तो जिम्मेदारी का प्रश्न ही गौण हो जाता है। राजनीति में प्रयोगशालाएं नहीं होतीं, फिर भी प्रयोगधर्मिता के लिए सदैव संभावनाएं हैं। हिमाचल, उत्तरांखड, झारखंड, सिक्किम, गोवा, पांडिचेरी आदि छोटे राज्यों में मुख्यमंत्रियों के स्थान पर जनता द्वारा निर्वाचित राज्यपालों की व्यवस्था पर सहमति बनाने का प्रयास किया जा सकता है। स्थिरता विकास की चाभी है। स्थिरता के लिए यह राजनीतिक प्रयोग करके देखा जा सकता है। यदि यह सफल हुआ तो इससे छोटे राज्यों के तर्क को मजबूती मिलेगी। वे व्यवस्थाएं जो परिवर्तनों के अनुरूप ढलने से इंकार करती हैं उनका समूल नाश क्रांतियों से होता है। राजनीतिक व्यवस्था में भी विकास की अपेक्षा है। क्या हमारी व्यवस्था संविधान निर्माताओं की अपेक्षा के अनुरूप परिणामपरक रही हैं? 24 घंटे की राजनीति का उलझाव हमारी शक्तियों का इस हद तक अपव्यय करता है कि हम राष्ट्र के प्रति समर्पित दृष्टि विकसित ही नहीं कर सके हैं। हिलेरी क्लिंटन इस दौरे में कह गई हैं कि भारत के लिए यह एशिया के नेतृत्व का समय है। हम क्या करें? राष्ट्र का कद बढ़ रहा है और नेतृत्व का कद छोटा हो रहा है। हमारे पास प्रदेश और देश की जनता से सीधे संवाद कर सकने, उनमें प्रेरणा भर देने वाले नेताओं का सर्वथा अभाव है। वर्तमान व्यवस्था में आसान रास्ता लेने वाले ऐसे नेताओं की गुंजाइशें बन गई हैं जिन्होंने जन-संघर्ष, जन-आंदोलनों का चेहरा तक नहीं देखा है। राजनीतिक व्यवस्था कोई धर्म नहीं है कि जो लिख दिया गया वह कभी मिटेगा नहीं। वक्त के साथ चलना राजनीति की जरूरत है। यह परिवर्तन, नई सोच और नए चरित्र के नेताओं की राह बनाएगा। (लेखक पूर्व सैन्य अधिकारी हैं).
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