प्रधानमंत्री के मीडिया के प्रति दुराग्रह पर लेखक की टिप्पणी
पिछले दिनों संपादकों के साथ बातचीत के दौरान शायद अनजाने में ही प्रधानमंत्री ने मीडिया के प्रति अपनी नाराजगी व्यक्त कर दी। उन्होंने कहा कि मीडिया ने कई मामलों में आरोप लगाने, खुद सुनवाई करने और स्वयं ही जज होने की भूमिका अपना ली है। वास्तव में सच्चाई इससे कोसो दूर है। मनमोहन सिंह जबसे संप्रग-2 के प्रधानमंत्री बनें हैं सब कुछ उलटा-पुलटा दिखाई दे रहा है। मुझे अनायास ही इंदिरा गांधी के जमाने की बात याद आती हैं। 1971 में बांग्लादेश में भारी विजय प्राप्त करने के बाद इंदिरा गांधी की पूरे भारत में जयजयकार हो रही थी। परंतु धीरे-धीरे माहौल बदलता गया। कई राज्यों में भ्रष्ट मुख्यमंत्रियों के कारनामे उजागर होने लगे। इंदिरा गांधी के कुछ चापलूस मंत्रियों तथा सलाहकारों ने उन्हें यह कहना शुरू कर दिया था कि मीडिया में भ्रष्टाचार की जो कहानियां उजागर हो रही हैं, वे सरासर झूठ हैं। पत्रकार विपक्षी दलों से मिले हुए हैं तथा सरकार को अस्थिर करना चाहते हैं। इंदिरा गांधी ने इन बातों पर विश्र्वास कर लिया। 1975 में देश पर आपातकाल थोपने के बाद जयप्रकाश नारायण तथा मोरारजी देसाई और अनेक विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया। सबसे बड़ी बात यह हुई कि प्रेस पर अंकुश लगा दिया गया। प्रेस का मुंह बंद हो जाने से इंदिरा गांधी का बड़ा नुकसान हुआ। सच्चाई उनके सामने आ ही नहीं पाती थी। उधर, आपातकाल की आड़ में राज्य सरकारें निरंकुश हो गईं और उनमें भ्रष्टाचार तेजी से पनपने लगा। इस देश में खुफिया एजेंसियां सदा से सुहाती बातें करती रही हैं। अर्थात जो इंदिरा गांधी और संजय गांधी को पसंद था वही खबरें उन तक पहुंचाई जाती थीं और उन्हें भरोसा दिलाया जाता था कि इमरजेंसी के कारण देश की आम जनता बहुत सुखी है। इसी गलत सूचना के कारण इंदिरा गांधी ने जब 1980 में आम चुनाव कराया और नतीजा सबके सामने हैं। इंदिरा गांधी ने बाद में यह सार्वजनिक रूप से कबूल किया कि समाचारपत्रों पर प्रतिबंध लगाकर उन्होंने बड़ी गलती की थी जिससे सच्ची खबरें उन तक पहुंच ही नहीं पाती थीं। शायद यही कारण था कि 80 के दशक में जब वह दोबारा सत्ता में आईं और एक प्रदेश में कांग्रेस सरकार ने प्रेस बिल लाकर समाचारपत्रों का मंुह बंद करना चाहा तो उन्होंने उस राज्य की सरकार को बहुत फटकारा और कहा कि वह प्रेस बिल वापस ले। उस राज्य सरकार को प्रेस बिल वापस लेना पड़ा। माना जाता है कि मीडिया एक आईना है जो राजनेताओं को सच्चाई से अवगत कराता है। यदि मीडिया नहीं होता तो वियेतनाम की लड़ाई का अंत नहीं होता। वियेतनाम की लड़ाई में अमेरिकी सरकार पानी की तरह पैसा फेंक रही थी और हजारों अमेरिकी युवक अकारण ही वहां मारे जा रहे थे। वाटरगेट की कहानी सबको मालूम है। यदि वाशिंगटन पोस्ट के संवादाता की चुस्ती नहीं होती तो निक्सन की कारगुजारियां प्रकाश में नहीं आतीं और उन्हें अंतत: त्यागपत्र नहीं देना पड़ता। पिछले कई महीने से 2-जी, कामनवेल्थ, आदर्श और न जाने कितने घोटालों की खबरें आए दिन समाचारपत्रों में आ रही हैं। लोग यह जानकर हैरान हैं कि सरकार कुछ करती क्यों नहीं है? एक बार जब प्रधानमंत्री ने कहा कि गठबंधन की लाचारी को समझना चाहिए, तब देश की जनता हैरान रह गई थी। मनमोहन सिंह की छवि निश्चय ही साफ-सुथरी है, लेकिन यह सच है कि न तो वह भ्रष्टाचार पर लगाम लगा सके और न महंगाई पर काबू पा सके। ऐसे में यदि मीडिया भ्रष्टाचार की कहानियों को उजागर करता है तो इसमें भला नुकसान भी क्या है? आखिर देश की जनता सरकार से बड़ी है। मीडिया एक बार फिर से सरकार को आईना दिखा रहा है। यह सोचना गलत है कि मीडिया ही शिकायत करता है और वही जज बन बैठता है। सच तो यह है कि माीडिया आम जनता की भावना को उजागर कर रहा है। इस सत्य को समझना होगा। (लेखक पूर्व सांसद एवं पूर्व राजदूत हैं).
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