Wednesday, July 6, 2011

एक किंकर्तव्यविमूढ़ प्रधानमंत्री


अमूमन कुछ दूरी तय करने के बाद सरकारें ओजविहीन हो जाती हैं। थक-सी जाती हैं। दुनियाभर में ऐसा होता है। जिस उत्साह से सरकारें अपने क्रियाकलाप की शुरुआत करती हैं, धीरे-धीरे वह उत्साह घटता जाता है। जो वादे सरकारें करती हैं, वे बीती बात बनकर रह जाते हैं। जो योजनाएं सरकारें हाथ में लेती हैं, वे अंजाम तक नहीं पहुंच पातीं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार के बारे में यह स्पष्टीकरण सटीक बैठता है। मनमोहन सरकार की कोई दिशा ही नहीं है। ऐसे में यह सरकार राष्ट्र को कैसे दिशा प्रदान कर सकती है। अब जबकि यह सरकार अपने दूसरे कार्यकाल की लगभग आधी अवधि पूरी कर चुकी है, उसके अब तक के कार्यो के लेखा-जोखा से तो यही कहा जा सकता है कि यह नकारा सरकार है। विडंबना यह भी है कि केंद्र सरकार के खिलाफ कितना जनाक्रोश यह सरकार महसूस ही नहीं कर पा रही है। कम से कम अन्ना हजारे के आंदोलन और इसे मिल रहे जन समर्थन से संप्रग सरकार को समझ जाना चाहिए कि जमीनी स्तर पर देश की जनता किस कदर सरकार के खिलाफ है। अलबत्ता सरकार ने जनता के मूड को उस समय कुछ हद तक समझा और सिविल सोसाइटी के प्रतिनिधियों के साथ लोकपाल विधेयक का प्रारूप तैयार करने के लिए तैयार हो गई, लेकिन अब वह अपनी ओर से शर्ते थोपने पर आमादा हो गई है। इस बीच सरकार ने कैबिनेट में फेरबदल के भी संकेत दे दिए, लेकिन सिर्फ कैबिनेट में फेरबदल करने से भ्रष्टाचार का मुद्दा गायब नहीं हो जाता और न ही इससे जनता का आक्रोश कम हो जाएगा। देश की जनता को यह दिखना चाहिए कि भ्रष्टाचार के उन्मूलन के लिए ठोस कदम उठाए जा रहे हैं। सरकार को यह भी स्पष्टीकरण देना होता कि भ्रष्टाचार रोकने के लिए मौजूदा प्रणाली क्यों नहीं काम कर रही है। भ्रष्टाचार के मसले पर तो केंद्र सरकार की नाकामी जाहिर हो ही रही है, पिछले दिनों सुरक्षा के सवाल पर सरकारी लापरवाही भी सामने आई। दिल्ली के सबसे सुरक्षित माने जाने वाले नार्थ ब्लॉक में स्थित वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी के कार्यालय में कई जगह च्युंगम चिपके हुए मिले। यह भारत सरकार की समग्र सुरक्षा को मुंह चिढ़ाना नहीं है तो क्या है। विभागों में बदलाव भर से प्रधानमंत्री विभागों में दक्षता सुधार नहीं ला सकते और निर्णयों के क्रियान्वयन में तेजी भी नहीं लाई जा सकती। और हां, आप निष्ठा के बारे में क्या कर सकेंगे। व्यावहारिक तौर पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अधिकतर मंत्री किसी न किसी कॉरपोरेट घराने या कारोबार से जुड़े हुए हैं। ऐसे में हम इन मंत्रियों से जनहितकारी कार्यो की उम्मीद कैसे कर सकते हैं। अगर आप भ्रष्टाचार को छोड़ भी दें, जो आजादी के बाद से ही व्यापक रूप ले चुका है तो भी आपको प्रशासन में आलस्य और प्रमाद के असंख्य उदाहरण मिल जाएंगे। हो सकता है कि इसके पीछे भी एक उद्देश्य हो, संभवत: यह कि मंत्रियों और नौकरशाहों के बीच नापाक गठजोड़ पर परदा डालने का ही उपक्रम हो। दूसरी ओर सरकार इस भ्रांति से भी ग्रस्त लगती है कि सिर्फ सब्सिडी और निर्धनों को राहत देने वाली कागजी योजनाओं से आम आदमी प्रसन्न हो जाएगा। वास्तव में सरकारी योजनाएं भले ही कम हों, सब्सिडी भले ही ज्यादा न मिले, लेकिन इसका लाभ हरेक को मिलना चाहिए। आज यह सच किसी से छिपा नहीं है कि सरकारी योजनाओं का आधा लाभ भी हर किसी को नहीं मिल पाता। मुझे जिस बात से अत्यधिक निराशा होती है, वह है प्रधानमंत्री की यह धारणा कि सरकार तो कहीं भी गलत नहीं है। उसकी छवि को मीडिया और कुछ हद तक न्यायपालिका से क्षति पहुंची है। अब सरकार को कौन समझाए कि इसका मौका तो उसके जनविरोधी कारनामों और सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार ने दिया है। सरकार का काला सच अगर मीडिया सामने नहीं लाएगा तो यह जिम्मेदारी कौन निभाएगा। न्यायपालिका भ्रष्ट तंत्र की खिंचाई नहीं करेगी तो उसकी भूमिका में कौन होगा। दरअसल, नौकरशाह और मंत्री जो बताते-सुझाते हैं, मनमोहन सिंह उस पर भरोसा कर बैठते हैं। वे जनता से कटे-से हैं और उसकी सोच के बारे में भी नहीं जान पाते या जानने की कोशिश नहीं करते। मनमोहन सिंह खुद नौकरशाह रहे हैं, उन्हें तो यह पता होना ही चाहिए कि प्रशासन को कैसे चुस्त-दुरुस्त किया जा सकता है। समय तेजी से गुजर रहा है। मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री यह महसूस ही नहीं कर पा रहे हैं कि यह वक्त सख्त और त्वरित फैसले लेने वाला है। उन्हें अब निश्चय पूर्वक कदम उठाना ही चाहिए। अपने पिछले कार्यकाल की तुलना उन्हें वर्तमान कार्यकाल से करनी चाहिए। गठबंधन के सहभागियों के दबाव के बावजूद वह अपनी राह पर चले हैं। सच है कि उनका कार्य निष्पादन उम्मीद से कम रहा है, लेकिन आज जैसी स्थिति तब नहीं थी। मौजूदा कार्यकाल में वह कुछ भी ठीक से करते हुए नहीं दिखते। यह तो समझ आता है कि वह अपने कार्यकाल को अनिश्चित-सा महसूस करते हैं, क्योंकि उन्हें 24 दलों को साथ लेकर चलना पड़ता है। अब वामदलों का पहले जैसा 60 के लगभग सदस्यों का कोई गुट भी नहीं है। बहरहाल, गठबंधन धर्म का यह तात्पर्य तो नहीं है कि अपनी सरकार के नुमाइंदों के भ्रष्टाचार को अनदेखा कर दिया जाए। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पूर्व दूरसंचार मंत्री ए. राजा के बीच जो पत्र व्यवहार हुआ था, वह दर्शाता है कि उन्हें कैबिनेट में द्रमुक सदस्यों के भ्रष्टाचार के बारे में जानकारी थी। फिर भी इस बारे में उन्होंने कुछ नहीं किया। मनमोहन सिंह को कम से कम द्रमुक प्रमुख एम. करुणानिधि को रिझाने के बजाए उन्हें चेतावनी तो दे ही देनी चाहिए थी। सच है कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ही शर्ते तय करती हैं और वे द्वितीय कार्यकाल के प्रारंभ में ही गठजोड़ व्यवस्था को गड़बड़ाने की इच्छुक नहीं थीं। मूल्य वृद्धि भी एक गंभीर समस्या है। इसके निर्बाध बढ़ते जाने देने की जो स्थिति बनी है, उसमें कहीं न कहीं सरकार के स्तर से कोई भूल तो हुई ही है। यह कहकर कि मुद्रा स्फीति चिंता बढ़ा रही है, सरकार जनता के आक्रोश को शांत नहीं कर सकती। मुझे लगता है कि सरकार के सामने सतत बढ़ते मूल्यों से निपटने की कोई दूरदर्शी सोच ही नहीं है। जब यह स्पष्ट करने को कहा जाता है कि महंगाई इतनी बढ़ती जा रही है तो एक रटा-रटाया जवाब यह दिया जाता है कि हमारे पास जादू की कोई छड़ी नहीं है। यहां पहला सवाल तो यह है कि सरकार ने आखिर स्थिति को इतना बिगड़ने ही क्यों दिया? सरकार को यह बताने की जरूरत नहीं है कि यह मांग और आपूर्ति का सवाल है। जिसकी आवश्यकता है, वह है उत्पादकता। उत्पादकता बढ़ाने के लिए सरकार की कोई त्वरित योजना नहीं है। संभवत: सरकार ने यह मामला योजना आयोग को सौंप दिया है, जो हमें शुभ समय पर बताएगा कि क्या कदम उठाए जाने हैं। अब सरकार को कौन बताए कि तब तक मुद्रास्फीति और चढ़ चुकी होगी। क्या सरकार ने कभी अपने खर्चो में कटौती करने का प्रयास किया है? मैंने अब सरकारी क्षेत्रों में मितव्ययता शब्द ही अब नहीं सुना है। लगभग 75 प्रतिशत पेट्रोल और डीजल का उपभोग सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र के अधिकरणों के केंद्र और राज्यों के वाहनों द्वारा ही किया जाता है। सरकार एक मंत्री या अति विशिष्ट व्यक्ति के साथ कारों और सुरक्षाकर्मियों के काफिले में कमी क्यों नही करती? मेरे विचार में भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवाणी इस मामले में संवेदनशील रहे हैं। कम से दिल्ली में तो अपने सफर के दौरान उन्होंने कारों के काफिले और सुरक्षाकर्मियों की संख्या में कमी कर दी है। दरअसल, देश में सभी विपक्षी नेताओं को अपने पीछे चलने वाले वाहनों को सरेंडर कर देना चाहिए। सिर्फ एक वाहन को छोड़कर, जिसमें सुरक्षाकर्मी जाते हों। सरकार को शर्मसार करने का यह एक उपाय हो सकता है। बहरहाल, एक सरकार जो ओजविहीन-सी लगती हो, वह प्रधानमंत्री द्वारा कुछ संपादकों को संबोधित करने भर से अपनी गतिशीलता को प्रमाणित नहीं कर सकती। प्रधानमंत्री को अकसर परदे से बाहर आना चाहिए और राष्ट्र का सामना करना चाहिए। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं).

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