सरकार और राजनीतिक पार्टियां चाहे कुछ भी कहें, लेकिन सच यह है कि भारत की आम जनता आज जिस बात से सबसे ज्यादा परेशान है वह महंगाई ही है। यह अलग बात है कि सभी राजनीतिक पार्टियां और राजनीतिक मुद्दों पर संघर्ष कर रहे गैर राजनीतिक संगठन भी उसे सिर्फ छूकर निकल जाते हैं। कोई भी इस मसले को गंभीरता से और दमदारी के साथ उठाना नहीं चाहता। कोई भ्रष्टाचार की बात करता है और स्विस बैंकों में रखे काले धन की, लेकिन आम जनता का सवाल यह है कि स्विस बैंकों में पड़ा काला धन अगर आ भी जाए तो उसमें से उसे क्या मिलेगा और महंगाई की जो मार वह झेल रही है उसमें उससे कैसे कमी आएगी? जाहिर है इन सवालों के जवाब किसी के पास नहीं हैं। किसी और राजनीतिक पार्टी ने इस बात को समझा या नहीं, लेकिन प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व वाले शिरोमणि अकाली दल ने इसे ठीक से समझा है। इसीलिए हाल ही में उन्होंने अपने पूरे शिष्टमंडल के साथ जाकर पंजाब के राज्यपाल के मार्फत राष्ट्रपति को ज्ञापन दिया है। ज्ञापन में अपील की गई है कि वह केंद्र की यूपीए सरकार पर तेल की कीमतों की बढ़ोतरी वापस करवाने का दबाव डालें। पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने पंजाब राजभवन में राज्यपाल शिवराज वी. पाटिल को ज्ञापन सौंपने के बाद कहा कि केंद्र सरकार महंगाई और भ्रष्टाचार पर नकेल डालने की जगह प्रोत्साहित कर रही है। अगर पिछले छह-सात वर्षो में ही पेट्रोलियम पदार्थो और अन्य चीजों के मूल्य में हुई वृद्धि पर गौर करें तो इसे गलत नहीं कहा जाएगा। अगर सरकार इसे बढ़ावा न भी दे रही हो तो भी कम से कम रोकने के लिए कोई सार्थक और प्रभावी कोशिश तो नहीं ही कर रही है। जब भी इस मसले पर कोई सवाल उठाया जाता है तो आम तौर पर सरकार में बैठे लोग सिर्फ बगलें झांकने लग जाते हैं। उनके पास इस समस्या से संबंधित सवालों का कोई ठोस जवाब नहीं होता है। आम तौर पर बड़े नेता इसे किसी न किसी तरह टाल ही जाते हैं। हाल ही में उत्तर प्रदेश में एक जनसभा के दौरान एक लड़की ने राहुल गांधी के सामने भी यह सवाल उठाया था और वह भी इसका कोई मुफीद जवाब नहीं दे सके थे। सवाल यह है कि जरूरी सवालों को इस तरह टालने से कब तक काम चलेगा? अभी जनता इनसे जूझ रही है, लेकिन एक न एक दिन तो नेताओं को भी इनका सामना करना ही होगा। जनता से जुड़े नेता इस बात को अभी महसूस करने लगे हैं। भले वे कुछ कर न सकें, लेकिन कम से कम जनता को यह अहसास तो दिला रहे हैं कि वे उसके दर्द को समझते हैं। बादल की मानें तो अकेले डीजल के दाम बढ़ने से केवल पंजाब की जनता पर ही 1300 करोड़ रुपये का अतिरिक्त वित्तीय बोझ पड़ गया है। डीजल और पेट्रोल के मूल्य में हुई हाल की बढ़ोतरी से 10 फीसदी से ज्यादा महंगाई बढ़ेगी। हालांकि मूल्य केवल डीजल और पेट्रोल ही नहीं, बल्कि रसोई गैस के भी बढ़े हैं। डीजल और पेट्रोल के दाम बढ़ने का सबके ऊपर प्रत्यक्ष असर नहीं पड़ेगा, लेकिन रसोई गैस के दाम बढ़ने का तो सभी पर सीधा असर पड़ना है। इससे आम-खास सभी प्रभावित होंगे। ऐसा भी नहीं है कि दाम केवल पेट्रोलियम पदार्थो के ही बढ़ रहे हों। सच तो यह है कि खाद्यान्नों, फलों-सब्जियों और कपड़ों से लेकर दवाओं तक सभी चीजों के दाम बढ़े ही हुए हैं और लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं। इस बढ़ोतरी को अब इससे ज्यादा झेल पाना आम आदमी के बस की बात नहीं रह गई है। आप चाहे कहीं भी बैठे हों, आज जहां चार व्यक्ति होते हैं, चाहे वे परिचित हों या अपरिचित, बातचीत में सबसे अधिक छाए रहने वाले मुद्दे महंगाई और भ्रष्टाचार हो गए हैं। सरकार और विपक्ष में मौजूद राजनीतिक दल इसे समझ नहीं पा रहे हैं ऐसा मानना बड़ी भूल होगी, लेकिन इस बात को समझना बहुत मुश्किल लग रहा है कि आखिर वे इस मसले पर कुछ बोल क्यों नहीं रहे हैं? क्या वाकई उनके पास इसका कोई समाधान नहीं है या फिर उनके भीतर इसके समाधान की कोई इच्छाशक्ति शेष नहीं रह गई है? यह बात सरकार ही नहीं विपक्ष में मौजूद राजनीतिक दलों पर भी उतनी ही लागू होती है। अगर उनके पास समस्या का कोई प्रभावी समाधान नहीं है तो जाहिर है यह सवाल उनकी क्षमता और यदि इच्छाशक्ति नहीं है तो उनकी लोकधर्मिता पर है। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में शामिल राजनीतिक दलों के लिए यह दोनों ही स्थितियां सही नहीं कही जा सकती हैं। साफ तौर पर कहा जाए तो यह लोकतंत्र के लिए एक खतरनाक स्थिति है। यही वह स्थितियां है जो चुनाव के समय मतदाताओं को नकारात्मक वोटिंग के लिए मजबूर करते हैं जो कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था को अस्थिरता की ओर ले जाती है। बहुत अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि भारत की आम जनता के सामने पॉजिटिव वोटिंग के लिए कोई कारण ही नहीं रह गया है। सरकार से संतुष्ट होने का कोई कारण नहीं है, लेकिन विपक्ष से व्यवस्था के विकल्प का जैसा खाका जनता चाहती है वह भी उसे नहीं मिल पा रहा है। वादे तो बिना सोचे-समझे सभी कर लेते हैं, लेकिन यह कोई नहीं बताता कि उन्हें पूरा कैसे करेंगे? जनता यह देख चुकी है कि पहले लोकलुभावन वादे पूरे करने के चक्कर में सरकारी खजाने खाली कर दिए जाते हैं और बाद में उसका साइड इफेक्ट जनता को भुगतना पड़ता है। अब जनता इन दोनों ही स्थितियों के लिए तैयार नहीं है। उसे विकल्प के नाम कुछ भी नहीं एक सुनियोजित व्यवस्था चाहिए। वह सिर्फ यह नहीं जानना चाहती कि आप उसके लिए क्या करेंगे, उसे इस सवाल का जवाब भी चाहिए कि जो करेंगे वह कैसे करेंगे। वरना वह मानती है कि आप सिर्फ कहते हैं करने का आपका कोई इरादा नहीं है। सच तो यह है कि आम जनता देश के सभी राजनीतिक दलों के प्रति अविश्वास के भयावह संकट जैसे दौर से गुजर रही है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि कोई उन मुद्दों को छूना तक नहीं चाहता, जिनसे वह सबसे ज्यादा परेशान है। बादल बिल्कुल ठीक कह रहे हैं कि अगले चुनाव में महंगाई और भ्रष्टाचार बड़े मुद्दे होंगे। इसमें कोई दो राय नहीं है कि ये आज ही सबसे बड़े मुद्दे हैं, लेकिन हैरत की बात है कि इन पर थोड़ा-बहुत हल्ला चाहे कोई भी मचा ले पर कोई सुनियोजित कार्यक्रम या वैकल्पिक व्यवस्था किसी के भी पास नहीं है। गैर राजनीतिक संगठन भले इसे लेकर हंगामा कर रहे हों, लेकिन राजनीतिक दल तो इन मसलों पर अपनी साफ-साफ राय भी नहीं बताते। ऐसे में सत्ता या विपक्षी दलों पर आम जनता भरोसा भी कैसे करे? सिर्फ कोरे वादों से यह कैसे मान लिया जाए कि समस्याएं हल हो जाएंगी? ये सवाल न सिर्फ राजनीतिक पार्टियों और आम जनता, बल्कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए भी संकट पैदा कर रहे हैं। इसलिए इन सवालों के जवाब राजनीतिक दलों को तलाशने ही होंगे।
निशिकांत ठाकुर, पृष्ठ संख्या 09, दैनिक जागरण (राष्ट्रीय संस्करण), 12 जुलाई, 2011
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