Friday, September 7, 2012

राजनीतिक व्यवहारों के पतन का दौर



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विश्लेषण अवधेश कुमार
एक-दूसरे को राजनीतिक तौर पर मात देने की कलाबाजी से चुनौतियां घटेंगी नहीं, बढ़ेंगी। भारत इसी भयानक रास्ते पर आगे बढ़ रहा है जहां हर अगले पल उसकी चुनौतियां बढ़ रही हैं हमारा देश व्यवहारों की भयावह अराजकता में फंसता जा रहा है। यह दुरावस्था एक-दो वर्ष में पै दा नहीं हुई है, राजनीतिक व्यवहारों के पतन की लंबी श्रृंखला है, जिसने अपने व्यापक प्रभावों के कारण समाज के हर क्षेत्र को पतनोन्मुख किया है
यह बात आसानी से गले नहीं उतर सकती कि हमारे नेताओं को देश के अंदर और बाहर की चुनौतियों का अहसास न हो। लेकिन उन चुनौतियों का मिल-जुलकर सामना करने और देश को संकट से बाहर निकालने के लिए दिन-रात एक करने की बजाए वे केवल दुश्मनों की तरह मोर्चाबंदी कर एक-दूसरे के राजनीतिक आधार को कमजोर करने की कोशिश में क्यों लगे हैं? अगर नेताओं से प्रश्न करिए तो कुछ अवश्य राजनीतिक घात-प्रतिघात के इस दौर से चिंतित दिखेंगे, किंतु ज्यादातर का उत्तर यही होता है कि हम देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी को बखूबी समझते हैं और उसी के लिए ऐसा कर रहे हैं। विपक्ष का उत्तर होता है कि सरकार भ्रष्टाचार में आकंठ डूबती जा रही है, साथ ही प्रशासनिक कुप्रबंधन के कारण समस्याओं का अंबार पैदा कर रही है; इसलिए उसे कठघरे में खड़ा करना और जनता की नजर में उसकी साख गिराना हमारा दायित्व है और हम यही कर रहे हैं। सरकार का तर्क होता है कि विपक्ष बिल्कुल गैरजिम्मेदार तरीके से राजनीतिक अस्थिरता फैलाने की कोशिश कर रहा है, जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है। इसमें कौन सही कौन गलत है, इसका निर्णय कैसे किया जा सकता है? कुछ अन्वेषी लोग भ्रष्टाचार के आरोपों की तथ्यता को परखेंगे, कुछ पक्ष और विपक्ष का उसमें कितना योगदान है इसका आकलन करेंगे, कुछ आरोपों की तुलना सरकारों की पूर्व नीतियों से करेंगे, कुछ दुनिया के अन्य देशों की नीतियों का उद्धरण देंगे.। इन सबमें.क्या होना चाहिए, या क्या हो सकता है या क्या हो सकता था, का वस्तुनिष्ठ उत्तर मिलने की जगह संभ्रम और बढ़ जाता है। इन सारे विश्लेषणों में अपने अनुसार तर्क पैदा करने की गुंजाइश मौजूद रहती है। क्या करना चाहिए, क्या किया जा सकता है.जैसे प्रश्नों का सही उत्तर तो तभी तलाशा जाएगा जब आपका उद्देश्य देश की चुनौतियों का सामना करना या संकटों से मुक्ति का उपाय करना हो। जब सारे कार्य-व्यवहार का केंद्र यह हो कि हमारे प्रतिस्पर्धी का जन समर्थन कैसे गिरे, हमें भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन को उजागर करने का श्रेय कैसे मिले तथा जन समर्थन कैसे बढ़े तो ऐसे प्रश्न सामने आ ही नहीं सकते। किंतु हमको आपको और समुच्चय रूप में देश को तो इसका परिणाम भुगतना ही पड़ेगा। एक-दूसरे को राजनीतिक तौर पर मात देने की कलाबाजी से चुनौतियां घटेंगी नहीं, बढ़ेंगी। देश इसी भयानक रास्ते पर आगे बढ़ रहा है जहां हर अगले पल उसकी चुनौतियां बढ़ रही हैं। संकट और गहरे होते जा रहे हैं। आप एक सरसरी सूची भी बना लें तो अहसास हो जाएगा कि वाकई हमारे देश की चुनौतियां बढ़ रही हैं। प्रधानमंत्री से लेकर पूर्व एवं मौजूदा वित्तमंत्री लगातार आर्थिक संकट से देश को आगाह करते हुए यह बताना नहीं भूलते कि चूंकि दुनिया आर्थिक मंदी के दौर में है, इसलिए सब कुछ हमारे वश में नहीं। उद्योग क्षेत्र लगातार हृास के ही आंकड़ें दे रहा है। मानसून समय पर नहीं आने और कुछ क्षेत्रों में बिल्कुल नहीं आने से खेती कमजोर हो रही है। केंद्र एवं कई राज्यों के खजाने का घाटा खतरे की सीमा रेखा पार कर चुका है। यह सूची काफी लंबी हो जाएगी। हम देश को एक परिवार मान लें तो क्या यह समय सभी राजनीतिक दलों और समस्त राज्य सरकारों को साथ मिलकर काम करने की मांग नहीं कर रहा है? अगर आप हमारी सुरक्षा पर मंडराते खतरे को देखिए तो कर्नाटक से लेकर बिहार और महाराष्ट्र तक से ऐसे लोग पकड़े जा रहे हैं जिन पर देश के विरुद्ध आतंकी साजिश रचने के आरोप हैं। उसमें डॉक्टर और वैज्ञानिक तक शामिल हैं। अगर पुलिस की बातों में सचाई है तो क्या इसका संदेश राजनेताओं के लिए नहीं है? बढ़ रही हिंसा, पूर्वोत्तर के दंगे एवं पलायन, बढ़ते अपराध, खासकर बढ़ता यौन अपराध आदि स्थितियां कुछ क्षण ठहरकर अपने रवैये पर पुनर्विचार की छटपटाहट पैदा नहीं करतीं? और देश के बाहर? अपने चारों ओर नजर दौड़ाइए तो स्थिति वहां भी चिंताजनक की ही नजर आती है। पाकिस्तान की आंतरिक हिंसा, कट्टरपन एवं अराजकता के कारण केवल हमारी भौगोलिक सीमा ही असुरक्षित नहीं है बल्कि वहां से पलायन को मजबूर हिंदू-सिख भी हमारी चिंता बढ़ाने वाले हैं? बांग्लादेश में रहने वाले हिंदू भी उसी तरह दुर्दशा के शिकार होकर यहां आते रहते हैं। वहां से घुसपैठ पर बयानवाजी जितनी कड़ी हो, खराब हालत से मजबूर होकर भागने वालों की अनवरत श्रृंखला क्या हमें सचेत नहीं करती? नेपाल अस्थिरता का शिकार है और चीन की भूमिका वहां बढ़ी है। जिस भूटान में हमारे अलावा किसी देश का प्रवेश नहीं, वहां चीन आ गया। म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों और बौद्धों के बीच दंगों की प्रतिध्वनि जिस खतरनाक तरीके से हमारे यहां सुनाई पड़ी, उसका संदेश क्या डराता नहीं है? श्रीलंका ने अपने नागरिकों को तमिलनाडु की यात्रा न करने की सलाह दी है, जबकि वहां तमिलों के बीच हमारा रोटी-बेटी का संबंध है। कुल मिलाकर हमारा पूरा पड़ोस या तो अराजक स्थिति में है या हमारे विरुद्ध है। श्रीलंका इस समय अराजक नहीं है तो चीन और यहां तक कि पाकिस्तान के साथ उसके सामरिक संबंध प्रगाढ़ हो रहे हैं, जो हमारे हितों के विरुद्ध है। क्या पड़ोसी की इस दशा से निपटने के उपाय पर हमारे राजनीतिक दलों ने कभी विचार किया है? वैिक चुनौतियों की लंबी फेहरिस्त है, पर पूरा वि समग्र रूप में ऐसे संकट में फंसता जा रहा है जिससे उबरने का रास्ता तक नहीं सूझ रहा है। ऐसे में किसी देश की जिम्मेवार राजनीति का व्यवहार कैसा होना चाहिए था? चुनाव में आमना-सामना समझ में आता है, किंतु उसके बाद चाहे वह सरकार हो या विपक्ष; सबको देश, राज्य या आम जनता के हित में काम करना है। निस्संदेह, संसदीय ढांचे में सरकार के पास ही नीति-निर्णय के सारे अधिकार हैं, विपक्ष केवल सुझाव दे सकता है, दबाव बना सकता है, जिसे स्वीकारने की संवैधानिक बाध्यता नहीं है। इसलिए मिल-जुलकर काम करने का माहौल बनाने में मुख्य भूमिका सरकार की ही होनी चाहिए। दुर्भाग्यवश, केंद्र एवं राज्य की हमारी सरकारें एकाध तात्कालिक उबाल के विषयों को छोड़ ऐसी पहल करती ही नहीं। राजनीतिक विखंडन का दौर आरंभ होने के बाद अधिकतर छोटी-बड़ी पार्टियां कहीं न कहीं सरकार बना चुकी हैं और सबका आचरण ऐसा ही है। इसलिए निष्कर्ष यही है कि हमारे ज्यादातर नेताओं को ठीक प्रकार से न अपने दायित्वों का अहसास है और न इन भयावह चुनौतियों और संकटों का ही, जिनसे हमारा देश घिरा हुआ है। इसमें किसी एक पक्ष को सही और दूसरे को गलत नहीं माना जा सकता। केवल मात्रा में अंतर हो सकता है। जब नेता गलत हो जाएं तो फिर शासन के अन्य अंग अंकुश रहित हो जाते हैं। परिणामत: देश की चिंता का तत्व शासन के ज्यादातर अंगों से गायब हो रहा है। साफ है कि देश को इस अवस्था में पहुंचाने वाले हमारे राजनीतिक दल ही हैं। राह चलते किसी भी व्यक्ति के मुंह से किसी दल और नेता के बारे में अच्छी टिप्पणी नहीं निकल सकती। गोष्ठियों, सेमिनारों, संवादों में नेताओं के प्रति इतनी गहरी घृणा-वितृष्णा अभिव्यक्त होती है कि देश की चिंता करने वाले किसी का भी दिल दहल जाए। संसदीय लोकतंत्र में देश का दारोमदार राजनीतिक दलों पर हैं- केवल नीतिनि र्माण और प्रशासन संचालन की दिशा ही नहीं, आम नागरिक के आचार-व्यवहार को श्रेष्ठतम बनाने की प्रेरणा और उसके उपयुक्त माहौल के निर्माण का दायित्व भी उन्हीं के कंधे पर होता है। अगर उनके प्रति आमजन में केवल अश्रद्धा ही नहीं, गुस्सा भी बढ़ता जाए तो देश व्यवहारों की अराजकता का भी शिकार हो जाता है। हमारा देश व्यवहारों की भयावह अराजकता में फंसता जा रहा है। यह दुरावस्था एक-दो वर्ष में पैदा नहीं हुई है, राजनीतिक व्यवहारों के पतन की लंबी श्रृंखला है, जिसने अपने व्यापक प्रभावों के कारण समाज के हर क्षेत्र को पतनोन्मुख किया है। प्रश्न है कि ऐसे में हमें पूरी राजनीति बदलनी होगी या व्यवस्था का पूरा ढांचा?

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