Tuesday, September 18, 2012

महंगाई पर राजनीति



 डीजल के दाम बढ़ने और रसोई गैस के सिलिंडरों पर कोटा लागू होने के साथ ही आम आदमी के सामने एक नया संकट खड़ा हो गया है। महंगाई का पहले से ही कोई ठिकाना नहीं है। कई बार तो एक ही दिन में चीजों के दाम बढ़ जा रहे हैं। आम जनता में यह धारणा सी बन चली है कि बाजार पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं रह गया है। बल्कि अब तो लोगों को ऐसा लगने लगा है जैसे सरकार बाजार पर कोई नियंत्रण रखना भी नहीं चाहती है। पेट्रोल के मूल्यों में पिछले एक साल में ही कई बार बढ़ोतरी की जा चुकी है। डीजल के दाम बढ़ाने से अकसर सरकार बचती रही है, लेकिन इस बार डीजल के दाम ही बढ़ाए गए हैं। इसका यह अर्थ बिलकुल नहीं है कि पेट्रोल के मामले में सरकार किसी प्रकार का कोई राहत देने जा रही है। देर-सबेर पेट्रोल के दाम भी फिर बढ़ेंगे ही। राहत यहां किसी भी कीमत पर आम आदमी को मिलने वाली नहीं है। रसोई गैस पर कोटा थोपे जाने से तो लोग परेशान हैं ही, उससे अधिक रोष उनका गैस एजेंसियों की कार्यप्रणाली और उपभोक्ताओं के प्रति उनके रवैये से है। इससे भी अधिक हताशा जनता को न केवल पेट्रोलियम पदार्थो, बल्कि समग्रता में महंगाई के मसले पर ही विपक्ष से हुई है। प्रत्यक्ष रूप से देखें तो सत्तारूढ़ दल को छोड़कर देश की सभी पार्टियां डीजल के मूल्य में वृद्धि और रसोई गैस पर कोटा लागू होने पर विरोध जता रही हैं। सभी पार्टियों को यह बहुत ही नागवार गुजरा है। सरकार के सहयोगी तक सड़क पर उतरने की बात कर रहे हैं। जगह-जगह धरने-प्रदर्शन भी कर रहे हैं। सरकार के कई सहयोगी दलों ने यह आरोप लगाया है कि इस मामले में उनसे कोई राय नहीं ली गई। संसदीय लोकतंत्र का सार्थकता ही इस बात में है कि शासन सर्वसम्मति से चले। अगर सर्वसम्मति न भी हो, तो कम से कम बहुमत तो साथ हो ही। यह देश का दुर्भाग्य ही है कि लंबे अरसे से स्पष्ट बहुमत वाली कोई सरकार नहीं आ रही है। जैसे-जैसे जोड़-तोड़ करके सरकारें बनाई और चलाई जा रही हैं। इसमें सर्वसम्मति का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। फिर भी बहुमत से फैसले करने की उम्मीद तो हम कर ही सकते हैं। दुखद है कि वह भी नहीं किया जा रहा है। यहां तक सरकार खुद अपने सहयोगी दलों से भी महत्वपूर्ण फैसलों तक के लिए न्यूनतम सहमति भी नहीं बना पा रही है। सहयोगी दलों और विपक्ष में बैठे लोगों के भी इतिहास पर अगर गौर करें तो एक बात साफ तौर पर देखी जा सकती है कि कथनी-करनी में एकता की बात ही बेकार हो गई है। विपक्ष की स्थिति यह है कि ऐसे समय में जबकि संसद में कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर फैसले होने की बात पहले से ही तय है, तब वे किसी एक मुद्दे को लेकर संसद न चलने देने की राजनीति में जुट जाते हैं। अब सवाल यह है कि संसद न चलने दे कर वे कौन सा बड़ा काम कर दे रहे हैं? यह बात तो देश का बच्चा-बच्चा जानता है कि देश के सभी नीतिगत फैसले संसद से ही होने हैं। इसीलिए संसद चलाने पर इतना भारी-भरकम खर्च किया जाता है। यह खर्च कहीं और से नहीं, जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा होता है। अगर इस तरह देखें तो दरअसल संसद न चलने देकर केवल जनता का धन बर्बाद किया जाता है। खासतौर से उस स्थिति में जबकि यह बात सर्वविदित है कि जिन मसलों पर सरकार अनिवार्य समझती है, उन पर वह संसद न चलने की स्थिति में चर्चा के बगैर ही विधेयक पारित करवा लेती है। ऐसी स्थिति में संसद न चलने देकर तो जनता के विरुद्ध ही काम किया जा रहा है। यही नहीं, सरकार में शामिल दलों की बातों में भी विरोधाभास देखने लायक ही है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि सरकार में होने के बावजूद महंगाई के मसले पर तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी का नजरिया हमेशा से साफ रहा है। उन्होंने हमेशा सरकार के उन कदमों का विरोध किया है, जिनसे महंगाई बढ़ सकती है। खुद अपने स्तर से उन्होंने महंगाई पर लगाम लगाने की भरसक कोशिश भी हमेशा की है। महंगाई के मुद्दे पर समाजवादी पार्टी का नजरिया भी साफ है। वह भी अपने स्तर से महंगाई को लेकर हमेशा विरोध जताते रहे हैं। भाजपा कहने को विरोध तो जरूर जताती रही है, लेकिन इस मसले पर उसने कभी कोई बड़ा और प्रभावी कदम उठाया हो, ऐसा दिखाई नहीं देता। कुछ औपचारिक प्रदर्शनों के अलावा कोई प्रभावी कदम उनकी ओर से नहीं उठाया गया। प्रमुख विपक्षी दल होने के नाते उन्होंने महंगाई पर नियंत्रण या उसे घटाने के लिए कोई वैकल्पिक योजना आम जनता के सामने कभी प्रस्तुत नहीं की। इससे भी आश्चर्यजनक रवैया राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का है। इसी सरकार में कृषि मंत्रालय संभाल रहे शरद पवार अब अपने पार्टी कार्यकर्ताओं को सड़क पर उतरने के निर्देश दे रहे हैं। दूसरी तरफ, बार-बार खाद्य पदार्थो के दाम बढ़ रहे हैं और इस पर वे कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं। अभी कुछ दिनों पहले तक जब इस मुद्दे पर उनसे सवाल किए गए तो उनका सीधा जवाब यही होता रहा है कि जनता को आगे और महंगाई झेलने के लिए तैयार रहना चाहिए। उन्होंने कभी आम जनता को यह आश्वासन देने की जरूरत नहीं समझी कि भविष्य में महंगाई कम करने की कोई कोशिश की जाएगी। इसमें कोई दो राय नहीं है कि सभी चीजों के दाम लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं। अगर देखा जाए तो सबसे ज्यादा दाम खाद्य पदार्थो के ही बढ़े हैं। अब अगर वे गैस या डीजल की महंगाई को लेकर सड़क पर उतरने के निर्देश दे रहे हैं तो इसे क्या माना जाए? यह सभी जानते हैं कि नियमानुसार भी लोकसभा चुनाव में बमुश्किल डेढ़ साल बचे हैं। शरद पवार का यह बयान अगर चुनावी स्टंट नहीं तो और क्या है? सच तो यह है कि आम जनता के सुख-दुख से किसी भी राजनीतिक पार्टी का कोई मतलब नहीं रह गया है। जिन चीजों पर सब्सिडी दी जानी चाहिए, उन पर सरकार सब्सिडी पूरी तरह खत्म करने के मूड में है। जिन चीजों पर नहीं दी जानी चाहिए, उन पर सब्सिडी कम किए जाने को लेकर भी कोई विचार नहीं किया जा रहा है। केरोसीन तेल के मामले में यह मानी हुई बात है कि वह काला बाजार में ही बिक रहा है। आम आदमी के लिए उसका कोई उपयोग नहीं रह गया है। इसके बावजूद उस पर सब्सिडी खत्म करने की कोई पहल नहीं हो रही है। सब्सिडी उन चीजों पर खत्म की जा रही है, जिनकी जरूरत सभी को है। इतना ही नहीं, उनकी सेवाओं में भी कोई सुधार नहीं किया जा रहा है। अब जरूरत इस बात की है कि सरकार तानाशाही रवैया छोड़कर न केवल अपने सहयोगी दलों, बल्कि विपक्ष को भी ऐसे मसलों पर साथ लेकर विचार विमर्श करे और ऐसा कोई रास्ता निकाले जिससे आम जनता को लगातार बढ़ती महंगाई के संकट से मुक्ति दिलाई जा सके। अन्यथा आने वाले दिनों में उसे जनता के व्यापक गुस्से का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। (लेखक दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं)

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