Saturday, September 15, 2012

केंद्रीय राजनीति में सपा की संभावनाएं





संवाद रणविजय सिंह
कांग्रेस और भाजपा की दु विधापूर्ण और अनिर्णय की स्थिति का असर उनकी चुनावी राजनीति पर पड़ना तय है। इसीलिए सपा ने मजबूती के साथ तीसरे मोर्चे की कवायद शुरू कर दी है मुलायम सिंह की कोशिश लोकसभा चुनाव में मुस्लिम, पिछड़ा, अगड़ा और युवकों को गोलबंद कर अपने पक्ष में चौंकाने वाला परिणाम पाने की है। यदि उन्हें लोस चुनाव में 50 से 60 सीटें मिलती हैं तो दिल्ली की गद्दी पर उनका दावा सबसे मजबूत होगा। 1996 में मुलायम सिंह प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गये थे, उनकी उस हसरत को इस सफलता के बाद पंख जरूर लग जाएंगे
देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज समाजवादी पार्टी अब केंद्र की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की तैयारी में है। एक के बाद एक घोटालों में फंसी कांग्रेस जिस तरह कमजोर हो रही है, इससे उसे लोकसभा चुनाव समय से पहले होने की भी उम्मीद है। इसीलिए वह उत्तर प्रदेश में आश्र्चयजनक सफलता अर्जित कर गैर-कांग्रेस और गैर-भाजपा दलों का अपने पक्ष में धुव्रीकरण चाहती है। इसके पीछे पार्टी का ठोस तर्क यह है कि कांग्रेस आर्थिक घोटालों से उबर नहीं पा रही है और भाजपा आंतरिक विरोधों में बुरी तरह उलझी है। उनकी दुविधापूर्ण और अनिर्णय की स्थिति का असर उनकी चुनावी राजनीति पर पड़ना तय है। इसीलिए सपा ने मजबूती के साथ तीसरे मोर्चे की कवायद शुरू कर दी है। इसी मानसून सत्र में कोल ब्लाक आवंटन के खिलाफ जांच की मांग को लेकर संसद पर मुलायम के साथ वामपंथी दलों का धरने में शिरकत करना इसी का संकेत माना जा रहा है। कोलकाता में हुई कार्यकारिणी की बैठक में पार्टी अपने इसी राजनीतिक मिशन को आगे बढ़ाते दिखी। सपा सुप्रीमो मध्यावधि चुनाव की संभावना पहले भी जता चुके हैं। इस संबंध में लोगों का तर्क है कि घोटालों में बुरी तरह उलझी कांग्रेस खुद से लड़ रही है। महंगाई उससे रुक नहीं रही है। पहले पेट्रोल और अब डीजल व गैस की कीमतों में बढ़ोत्तरी आग में घी का काम कर रही है। विकास दर बराबर घट रही है। ढांचागत परियोजनाएं लटकी हुई हैं। राजकोषीय घाटा थमने का नाम नहीं ले रहा है। हर मोर्चे पर सरकार की विफलता के चलते जनता में काफी आक्रोश है। ऐसे में संप्रग सरकार के अंदर और बाहर से समर्थन देने वाली पार्टियों को लगने लगा है कि कांग्रेस से उनकी निकटता लोस चुनाव में भारी पड़ सकती है। डीजल व गैस के दामों में बढ़ोत्तरी से तृणमूल नेता ममता बनर्जी और आगबबूला हो उठी हैं। राजनीतिक गलियारे में यह कयास लगाया जा रहा है कि सहयोगी दल किसी भी जन सवाल पर उसका दामन छोड़ सकते हैं और चुनाव समय से पहले हो सकते हैं। हालांकि आर्थिक सुधारों पर लगी लगाम ढीली करते हुए शुक्रवार को सरकार ने रिटेल और एवियेशन में एफडीआई को मंजूरी दे दी है लेकिन यह देर से उठाया गया कदम है जिसका सरकार की सकारात्मक छवि पर आंशिक ही असर पड़ेगा। दूसरी ओर एफडीआई के विरोधी सहयोगी दल उसके इस निर्णय को किस हद तक स्वीकारते हैं, इस पर उसके भविष्य का फैसला होगा। इन स्थितियों के मद्देनजर सभी की निगाहें गुजरात विधानसभा चुनाव पर टिकी हैं। कांग्रेस वहां कैसा प्रदर्शन करती है, उसके बाद ही इस संभावना का सही आंकलन हो सकेगा। फिलहाल सरकार को बाहर से समर्थन दे रही सपा ने जनता के रुख को भांपकर कांग्रेस से दूरियां बनानी शुरू कर दी हैं। कोलगेट घोटाले पर अपना अलग पक्ष रखकर सपा सुप्रीमो ने जनता को बता दिया है कि घोटालों से घिरी कांग्रेस से उनका अब कोई लेना-देना नहीं है। इसके अलावा राष्ट्रपति चुनाव के दौरान ममता बनर्जी के साथ रिश्तों पर जमी बर्फ को पिघलाने की दिशा में भी पहल हुई है। राष्ट्रीय कार्य समिति की बैठक में ममता की प्रशंसा और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की उनसे मुलाकात को इसी का हिस्सा माना जा रहा है। उल्लेखनीय है कि तृणमूल कांग्रेस संप्रग सरकार में सहयोगी दल होने के बावजूद विपक्ष जैसी भूमिका निभाकर सरकार को असहज किये हुए है। राजनीतिक जानकारों का मत है कि कांग्रेस की जनछवि जब-जब कमजोर हुई है, विपक्ष की आंदोलनकारी रणनीति ने उसे कड़ी चुनौती दी है। ऐसे आंदोलनों से ही कांग्रेस के खिलाफ राष्ट्रीय क्षितिज पर नये राजनीतिक गठजोड़ों का उदय हुआ है। आज कांग्रेस के खिलाफ समूचा विपक्ष आंदोलित है। टीम अन्ना और बाबा रामदेव भ्रष्टाचार और कालेधन के सवाल पर मनमोहन सिंह सरकार की नींद हराम किये हैं। भ्रष्टाचार का सवाल अहम मुद्दा बनकर उभरा है। ईमानदार प्रधानमंत्री पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे हैं। वर्ष 1988-89 में राजीव गांधी और वर्ष 1995-96 में नरसिंह राव सरकार के खिलाफ इसी तरह का माहौल था। नतीजतन चुनावों में कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा था। ऐसे में सप्रंग सरकार के समक्ष अपने सहयोगियों को एकजुट रखने की भी बड़ी चुनौती है। इस राजनीतिक हालात में नये विपक्षी गठजोड़ की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। समाजवादी पार्टी की उम्मीदों के पीछे इन्हीं राजनीतिक घटनाओं को आधार माना जा रहा है। प्रमुख विपक्षी दल भाजपा की स्थिति भी बेहाल है। कांग्रेस के खिलाफ भ्रष्टाचार के सवाल पर उसका आंदोलन इसलिए तीखा नहीं हो पा रहा है। क्योंकि भाजपा शासित कई राज्यों की सरकारें स्वयं भ्रष्टाचार के दलदल में फंसी हैं। कोयला आवंटन में भ्रष्टाचार के सवाल पर कांग्रेस की तरह भाजपा भी फंसी हुई है। इसके अलावा वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की दी गयी लाइन पर ही चल रही है, जिसके मुताबिक उसे अगला चुनाव प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किये बिना ही लड़ना है। क्योंकि वह नरेंद्र मोदी को अपना उम्मीदवार बनाना चाहती है, जिसका उसका मजबूत घटक जनता दल (यू) खुलकर विरोध कर रहा है। इसके इतर संघ ने पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी का अध्याय पहले ही पूरी तरह बंद कर रखा है। बाकी नेताओं में डंके की चोट पर खुद अपना नाम प्रोजेक्ट करने का साहस नहीं है। वे लगातार पकती हुई राजनीतिक हांडी के चावल टटोलने में ही व्यस्त हैं। सत्तारूढ़ कांग्रेस भी अपने युवराज राहुल गांधी की भूमिका को लेकर ऊहापोह में है। चुनावी चेहरे को लेकर कांग्रेस नेतृत्व की इस भ्रमपूर्ण स्थिति पर विपक्ष खूब चुटकी ले रहा है। वामपंथी दल जिस कमजोर स्थिति में है, वैसा पहले कभी नहीं था इसलिए उसके नेतृत्व में तीसरे मोर्चे के गठन की संभावना भी नहीं दिखती। ऐसे राजनीतिक हालात में क्षेत्रीय दलों का राजनीतिक महत्व बढ़ने की संभावना प्रबल है। संभवत: इन्हीं आकलन के आधार पर ही आडवाणी पहले ही लोस चुनाव के बाद केंद्र में गैर-कांग्रेस और गैर-भाजपा सरकार बनने की संभावना जता चुके हैं। इसीलिए सपा की कोशिश लोस चुनाव के बाद राष्ट्रीय राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाने की है। उसके पक्ष में राजनीतिक परिस्थितियां भी हैं। उत्तर प्रदेश से 80 सांसद चुनकर जाते हैं। इस बड़े राज्य में सपा की चुनौती बसपा से है। कांग्रेस और भाजपा दोनों के समक्ष वर्ष 2009 में मिली सीटों को बचाये रखने की कड़ी चुनौती है। प्रदेश में सरकार होने के साथ ही सपा ने बेरोजगारों को बेराजगारी भत्ता देकर अपने चुनावी घोषणा पत्र पर अमल शुरू कर दिया है। सपा अपने युवा मुख्यमंत्री अखिलेश के सहारे युवकों को रिझाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रही है तो नौकरियों में पदोन्नति में आरक्षण का खुला विरोध कर अगड़ों का भी समर्थन उसने पा लिया है। मुलायम सिंह की कोशिश लोकसभा चुनाव में मुस्लिम, पिछड़ा, अगड़ा और युवकों को गोलबंद कर अपने पक्ष में चौंकाने वाला परिणाम पाने की है। यदि उन्हें लोस चुनाव में 50 से 60 सीटें मिलती हैं तो दिल्ली की गद्दी पर उनका दावा सबसे मजबूत होगा। वर्ष 1996 में मुलायम सिंह प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गये थे, उनकी उस हसरत को इस सफलता के बाद पंख जरूर लग जाएंगे। उनके नेतृत्व में गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा विपक्षी दलों के ध्रुवीकरण के मार्ग में कोई राजनीतिक अवरोध नहीं होगा। क्योंकि किसी भी राज्य में लोस की इतनी सीटें नहीं हैं और न किसी क्षत्रप के पक्ष में इतनी राजनीतिक अनुकूलता है, जो उन्हें चुनौती दे सके। इसीलिए सपा सुप्रीमो अन्य क्षेत्रीय क्षत्रपों से अपने राजनीतिक रिश्ते भी तेजी से सुधारने में लग गये हैं। ऐसे में देखना यह है कि राजनीति किस करवट बैठती है।

No comments:

Post a Comment