Tuesday, September 11, 2012

तलवार की धार पर मुंडा सरकार की राजनीति



ठ्ठ श्याम किशोर चौबे, रांची झारखंड में अर्जुन मुंडा के नेतृत्व वाली साझा सरकार के मंगलवार को दो वर्ष पूरे हो जाएंगे। जिस राज्य में नौ दिनों तक भी गठबंधन की सरकार चलाना भारी हो, वहां दो साल तक सत्ता संभाले रहना और भविष्य की आशा बनाए रखना बड़ी बात है। इसके बावजूद वर्तमान में सरकार की भूमिका में चल रही भाजपा शायद यह बता सके कि अलग-अलग राजनीतिक गुण-धर्म के गठबंधन में शासन-सूत्र संभालने व केकड़े तौलने में आसान कौन सा काम है। 2009 के चुनावों के बाद इसी गठबंधन के साथ सरकार की भूमिका में आए झामुमो को भी कसैला अनुभव हो चुका है, जब उसको एक चूक के लिए मई 2010 में सत्ता के सूत्रधार पद से चलता कर दिया गया था। राष्ट्रपति शासन के खात्मे के नाम पर गठबंधन की गांठें थोड़ी सी उलटीं और भाजपा को सरकार की भूमिका में पेश किया गया, जो अब तक चल रहा है। 11 सितंबर 2010 को भाजपा,जदयू, झामुमो,आजसू गठबंधन दूसरी बार सत्ता में आया तो ख्वाब बहुत ऊंचे थे। महत्वाकांक्षाओं के टकराव ने जो परिस्थितियां पैदा की, वे अगले चुनाव में सभी घटक दलों के अलग- अलग खड़े रहने के रूप में उभर चुकी हैं। यूं इस बीच हुए चार उपचुनावों में से दो और राज्यसभा के दो चुनावों यही तस्वीर सामने आई है। भाजपा हो कि झामुमो दोनों ही कई बार यह स्पष्ट कर चुके हैं कि राज्य में उनका गठबंधन चुनाव बाद का है, सो बतौर सरकार एजेंडे एक होना मुमकिन नहीं। यही कारण है कि अर्जुन मुंडा की तरह ही हेमंत सोरेन भी जिलों में घूमकर योजनाओं का जायजा लेते हैं। हेमंत की यात्रा में नौकरशाही के बहाने सरकार पर किए गए जुबानी वार बताते हैं कि वे भाजपा के साथ खड़े जरूर हैं लेकिन अंतत: उनकी राह अलग होगी। जदयू का भाजपा के साथ केंद्रीय स्तर पर गठबंधन है। वह राज्य में राजनीतिक रूप से बहुत ही कमजोर है। इसलिए उसके एकमात्र मंत्री चुप ही रहना मुनासिब समझते हैं, हालांकि इस दल के नेता सरकार की नुक्ताचीनी में कोताही नहीं करते। जहां तक आजसू की बात है, वह भाजपा-झामुमो के बीच से राह निकालते हुए भविष्य पर निगाहें टिकाए हुए है।

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