बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक
कांशीराम कहते थे कि हमें मजबूत नहीं, मजबूर सरकार चाहिए। मजबूर सरकार को ही हम बहुजन
समाज के हित में इस्तेमाल कर सकते हैं। आज यह विचार जिस दल को सबसे ज्यादा पसंद है, वह है समाजवादी पार्टी। कमजोर सरकार में ही तीसरे मोर्चे का भविष्य छिपा है, जिसके अहम किरदार बनकर उभरे है सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव। रिटेल में एफडीआइ,
डीजल के मूल्यों में बढ़ोतरी और गैस सिलेंडरों की सीमा तय करने के खिलाफ भारत बंद के दौरान ही तीसरे मोर्चे की शक्ल दिखाई
देने लगी थी। गैर संप्रग और गैर राजग दल जो कभी राष्ट्रीय मोर्चो और संयुक्त मोर्चो के दौर में साथ थे,
फिर से करीब आने लगे और दिल्ली पर कब्जे का स्वप्न देखना
शुरू कर दिया। माकपा नेता
प्रकाश करात ने जिस प्रकार तीसरे मोर्चे के गठन में सपा की अहम भूमिका बताई है, उसके पीछे कारण हैं। एक तो सपा ने विधानसभा चुनाव में एक बड़े आधार वाली पार्टी को करारी शिकस्त दी।
सपा ने जिस प्रकार स्पष्ट बहुमत हासिल किया, उससे वह राजनीतिक दलों के बीच अधिक
स्वीकार्य हुई है। फिर सपा के पास अखिलेश जैसा चेहरा है। छह महीने के कार्यकाल में उनकी प्रशासकीय दक्षता पर भले ही सवाल उठाए गए, किंतु उन पर कोई दाग नहीं लगा है। लखनऊ में बसपा सुप्रीमो की मूर्ति तोड़े जाने के मसले
को अखिलेश ने जिस तत्परता से संभाला, उसके लिए बसपा के कुछ बड़े नेताओं ने
उन्हें धन्यवाद दिया। सत्ता के मुखिया को यह सौभाग्य बिरले ही मिलता है। इन कारणों से राजनीति के बियाबान में भटक रहे कई चेहरों को
सपा तारणहार लग रही है। कर्नाटक
के चरण सिंह कहे जाने वाले पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा के पास इस समय 55 में से महज तीन सीटें हैं, लेकिन कर्नाटक
में भाजपा में चल रही
नौटंकी को देखते हुए देवगौड़ा बेहतर प्रदर्शन के जरिये राष्ट्रीय राजनीति में वापसी करना चाहेंगे। आंध्र प्रदेश के
एन चंद्रबाबू नायडू को संयुक्त
मोर्चा सरकार का संकट मोचक कहा जाता था। एक समय उनकी वहां तूती बोलती थी। इसके बाद आंध्र में वाईएसआर रेड्डी का जादू
चला। वाईएसआर के देहांत के बाद
कांग्रेस की हालत फिर से पतली हो गई है। बंद के दौरान नायडू फिर से संयुक्त मोर्चा के पुराने साथियों के साथ दिखे।
ओडिशा के बीजू जनता दल ने कुछ
वर्षो पूर्व राजग का साथ छोड़ दिया था। तीसरे मोर्चे का गठन होने पर वह फिर से समाजवादी खेमे में वापसी करना चाहेंगे।
इसका संकेत इससे भी मिला जब
ममता की समर्थन वापसी के बाद संप्रग ने उनसे पींगें बढ़ानी चाहीं तो उन्होंने पत्ते नहीं खोले। तीसरे मोर्चे को कुछ अनपेक्षित सहयोगी भी मिल सकते हैं।
तमिलनाडु के राजनीतिक समीकरण
में एक-दूसरे के धुर विरोधी जयललिता और करुणानिधि में से किसी एक का उन्हें साथ मिल सकता है। इसी प्रकार बिहार के
नीतीश कुमार को जहां लगा कि प्रधानमंत्री
का ताज नरेंद्र मोदी के सिर पर जा सकता है, वह तुरंत राजग के
खोल से बाहर आ जाएंगे। यह ठीक है कि जनता दल (यू) अध्यक्ष शरद यादव राजग के सरंक्षक है, लेकिन वह पार्टी का चेहरा मात्र हैं, ताकत तो नीतीश ही
हैं। किसी दौर में चंद्रशेखर, शरद पवार और
मुलायम सिंह यादव की तिकड़ी
खासी मशहूर हुआ करती थी। शरद पवार तीसरे मोर्चे का हिस्सा बनकर अपनी दोस्ती निभा सकते हैं। इसके संकेत पार्टी
प्रवक्ता डीपी त्रिपाठी के उस बयान में ढूंढ़े जाने चाहिए कि मुलायम सिंह में प्रधानमंत्री बनने के सभी गुण हैं और उन्हें 1996 में ही प्रधानमंत्री बन जाना चाहिए था। इसे थर्ड फ्रंट नहीं फर्स्ट फ्रंट कहा जाना चाहिए।
यही नहीं बहुमत से दूर रहने की स्थिति में राजग को सत्ता से रोकने के लिए खुद कांग्रेस मुलायम को सरकार बनाने के लिए आगे कर सकती है। देवगौड़ा और
गुजराल की संयुक्त मोर्चा सरकार भी आखिरकार कांग्रेस के सहयोग से ही बनी थी। तब अटल बिहारी वाजपेयी ने कांग्रेस के इस रवैये की आलोचना करते हुए
कहा था कि सामाजिक क्षेत्र में छुआछूत समाप्त हो रहा है, लेकिन हम
राजनीतिक क्षेत्र में इसकी ओर बढ़ रहे हैं। तीसरे मोर्चे के गठन में सब कुछ मीठा-मीठा
नहीं है। यदि तीसरे मोर्चे के नेता जल्द मध्यावधि चुनाव चाहेंगे तो यह उनके हित में नहीं होगा क्योंकि अभी मोर्चा संगठन की शक्ल नहीं ले पाया है।
यदि सपा अपनी बैसाखी पर संप्रग को ढोती है तो पाप का कुछ न कुछ ठीकरा उसके सिर जरूर फूटेगा। ममता के दांव ने सपा-बसपा को यह जरूर समझा दिया है कि
संप्रग के साथ उत्तर प्रदेश में रार और दिल्ली में प्यार नहीं चलेगा। सपा मुखिया जिस प्रकार ममता बनर्जी
को अपना राजनीतिक
सहयोगी बनाने की कोशिश कर रहे हैं, वह भी तलवार की
धार पर चलने के समान
होगा, क्योंकि ममता के बारे में कहा जाता है कि यदि
ममता बनर्जी दोस्त हैं
तो आपको दुश्मनों की जरूरत नहीं है। दूसरा संकट वामपंथियों का है। वामपंथी यह देखेंगे कि चुनाव बाद संप्रग बहुमत के निकट है तो तीसरे मोर्चे का खटराग
छोड़कर वे तुरंत संप्रग को सहारा देंगे। याद करिए संप्रग-1 के समय
कांग्रेस ने सपा को कितना अपमानित किया, फिर भी वाम लाल नहीं हुए। तीसरे
मोर्चे के लिए जो दल हुंकार भर रहे हैं, वे पुराने समाजवादी हैं। इनके बारे
में कहा जाता है कि ये दो साल साथ नहीं रह सकते और तीन साल अलग नहीं रह सकते। सपा मुखिया इन मेढ़कों को कैसे तौलेंगे, यह देखना दिलचस्प होगा। (लेखक स्वतंत्र
टिप्पणीकार हैं)
Dainik Jagran National Edition 27-9-2012 Pej 12 Poultices