Friday, September 28, 2012



बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम कहते थे कि हमें मजबूत नहीं, मजबूर सरकार चाहिए। मजबूर सरकार को ही हम बहुजन समाज के हित में इस्तेमाल कर सकते हैं। आज यह विचार जिस दल को सबसे ज्यादा पसंद है, वह है समाजवादी पार्टी। कमजोर सरकार में ही तीसरे मोर्चे का भविष्य छिपा है, जिसके अहम किरदार बनकर उभरे है सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव। रिटेल में एफडीआइ, डीजल के मूल्यों में बढ़ोतरी और गैस सिलेंडरों की सीमा तय करने के खिलाफ भारत बंद के दौरान ही तीसरे मोर्चे की शक्ल दिखाई देने लगी थी। गैर संप्रग और गैर राजग दल जो कभी राष्ट्रीय मोर्चो और संयुक्त मोर्चो के दौर में साथ थे, फिर से करीब आने लगे और दिल्ली पर कब्जे का स्वप्न देखना शुरू कर दिया। माकपा नेता प्रकाश करात ने जिस प्रकार तीसरे मोर्चे के गठन में सपा की अहम भूमिका बताई है, उसके पीछे कारण हैं। एक तो सपा ने विधानसभा चुनाव में एक बड़े आधार वाली पार्टी को करारी शिकस्त दी। सपा ने जिस प्रकार स्पष्ट बहुमत हासिल किया, उससे वह राजनीतिक दलों के बीच अधिक स्वीकार्य हुई है। फिर सपा के पास अखिलेश जैसा चेहरा है। छह महीने के कार्यकाल में उनकी प्रशासकीय दक्षता पर भले ही सवाल उठाए गए, किंतु उन पर कोई दाग नहीं लगा है। लखनऊ में बसपा सुप्रीमो की मूर्ति तोड़े जाने के मसले को अखिलेश ने जिस तत्परता से संभाला, उसके लिए बसपा के कुछ बड़े नेताओं ने उन्हें धन्यवाद दिया। सत्ता के मुखिया को यह सौभाग्य बिरले ही मिलता है। इन कारणों से राजनीति के बियाबान में भटक रहे कई चेहरों को सपा तारणहार लग रही है। कर्नाटक के चरण सिंह कहे जाने वाले पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा के पास इस समय 55 में से महज तीन सीटें हैं, लेकिन कर्नाटक में भाजपा में चल रही नौटंकी को देखते हुए देवगौड़ा बेहतर प्रदर्शन के जरिये राष्ट्रीय राजनीति में वापसी करना चाहेंगे। आंध्र प्रदेश के एन चंद्रबाबू नायडू को संयुक्त मोर्चा सरकार का संकट मोचक कहा जाता था। एक समय उनकी वहां तूती बोलती थी। इसके बाद आंध्र में वाईएसआर रेड्डी का जादू चला। वाईएसआर के देहांत के बाद कांग्रेस की हालत फिर से पतली हो गई है। बंद के दौरान नायडू फिर से संयुक्त मोर्चा के पुराने साथियों के साथ दिखे। ओडिशा के बीजू जनता दल ने कुछ वर्षो पूर्व राजग का साथ छोड़ दिया था। तीसरे मोर्चे का गठन होने पर वह फिर से समाजवादी खेमे में वापसी करना चाहेंगे। इसका संकेत इससे भी मिला जब ममता की समर्थन वापसी के बाद संप्रग ने उनसे पींगें बढ़ानी चाहीं तो उन्होंने पत्ते नहीं खोले। तीसरे मोर्चे को कुछ अनपेक्षित सहयोगी भी मिल सकते हैं। तमिलनाडु के राजनीतिक समीकरण में एक-दूसरे के धुर विरोधी जयललिता और करुणानिधि में से किसी एक का उन्हें साथ मिल सकता है। इसी प्रकार बिहार के नीतीश कुमार को जहां लगा कि प्रधानमंत्री का ताज नरेंद्र मोदी के सिर पर जा सकता है, वह तुरंत राजग के खोल से बाहर आ जाएंगे। यह ठीक है कि जनता दल (यू) अध्यक्ष शरद यादव राजग के सरंक्षक है, लेकिन वह पार्टी का चेहरा मात्र हैं, ताकत तो नीतीश ही हैं। किसी दौर में चंद्रशेखर, शरद पवार और मुलायम सिंह यादव की तिकड़ी खासी मशहूर हुआ करती थी। शरद पवार तीसरे मोर्चे का हिस्सा बनकर अपनी दोस्ती निभा सकते हैं। इसके संकेत पार्टी प्रवक्ता डीपी त्रिपाठी के उस बयान में ढूंढ़े जाने चाहिए कि मुलायम सिंह में प्रधानमंत्री बनने के सभी गुण हैं और उन्हें 1996 में ही प्रधानमंत्री बन जाना चाहिए था। इसे थर्ड फ्रंट नहीं फ‌र्स्ट फ्रंट कहा जाना चाहिए। यही नहीं बहुमत से दूर रहने की स्थिति में राजग को सत्ता से रोकने के लिए खुद कांग्रेस मुलायम को सरकार बनाने के लिए आगे कर सकती है। देवगौड़ा और गुजराल की संयुक्त मोर्चा सरकार भी आखिरकार कांग्रेस के सहयोग से ही बनी थी। तब अटल बिहारी वाजपेयी ने कांग्रेस के इस रवैये की आलोचना करते हुए कहा था कि सामाजिक क्षेत्र में छुआछूत समाप्त हो रहा है, लेकिन हम राजनीतिक क्षेत्र में इसकी ओर बढ़ रहे हैं। तीसरे मोर्चे के गठन में सब कुछ मीठा-मीठा नहीं है। यदि तीसरे मोर्चे के नेता जल्द मध्यावधि चुनाव चाहेंगे तो यह उनके हित में नहीं होगा क्योंकि अभी मोर्चा संगठन की शक्ल नहीं ले पाया है। यदि सपा अपनी बैसाखी पर संप्रग को ढोती है तो पाप का कुछ न कुछ ठीकरा उसके सिर जरूर फूटेगा। ममता के दांव ने सपा-बसपा को यह जरूर समझा दिया है कि संप्रग के साथ उत्तर प्रदेश में रार और दिल्ली में प्यार नहीं चलेगा। सपा मुखिया जिस प्रकार ममता बनर्जी को अपना राजनीतिक सहयोगी बनाने की कोशिश कर रहे हैं, वह भी तलवार की धार पर चलने के समान होगा, क्योंकि ममता के बारे में कहा जाता है कि यदि ममता बनर्जी दोस्त हैं तो आपको दुश्मनों की जरूरत नहीं है। दूसरा संकट वामपंथियों का है। वामपंथी यह देखेंगे कि चुनाव बाद संप्रग बहुमत के निकट है तो तीसरे मोर्चे का खटराग छोड़कर वे तुरंत संप्रग को सहारा देंगे। याद करिए संप्रग-1 के समय कांग्रेस ने सपा को कितना अपमानित किया, फिर भी वाम लाल नहीं हुए। तीसरे मोर्चे के लिए जो दल हुंकार भर रहे हैं, वे पुराने समाजवादी हैं। इनके बारे में कहा जाता है कि ये दो साल साथ नहीं रह सकते और तीन साल अलग नहीं रह सकते। सपा मुखिया इन मेढ़कों को कैसे तौलेंगे, यह देखना दिलचस्प होगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

Dainik Jagran National Edition 27-9-2012  Pej 12 Poultices 

Sunday, September 23, 2012

राजनीति का विचित्र रूप





रिटेल बाजार में एफडीआइ, डीजल के मूल्यों में वृद्धि एवं सब्सिडी वाले घरेलू रसोई गैस के सिलेंडरों की संख्या सीमित करने के केंद्र सरकार के फैसलों के कारण तृणमूल कांग्रेस के संप्रग से अलग होने के बाद सपा ने जिस तरह उसकी नैया पार लगाई उससे हो सकता है कि देश में उठा राजनीतिक तूफान तात्कालिक रूप से थम जाए, लेकिन इससे देश में गठबंधन राजनीति के नाम पर मोल-भाव की प्रवृत्ति थमने के आसार दूर-दूर तक नजर नहीं आते। केंद्र सरकार में शामिल रही तृणमूल कांग्रेस ने सरकार के हाल के आर्थिक फैसलों को जनविरोधी बताते हुए न केवल अपने मंत्रियों के त्यागपत्र दिला दिए, बल्कि सरकार से अपना समर्थन भी वापस ले लिया। ममता बनर्जी के आर्थिक चिंतन से असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन उन्होंने यह साबित किया कि वह जो कहती हैं वही करती भी हैं। इसके विपरीत अन्य दलों को देखें तो ज्यादातर हाथी दांत की तरह से राजनीति कर रहे हैं-दिखाने के और, खाने के और। केंद्र सरकार के आर्थिक फैसलों के विरोध में करीब-करीब सभी विपक्षी दलों के साथ-साथ सरकार के सहयोगी दल भी सड़कों पर उतरे। इनमें सरकार को बाहर से समर्थन दे रही सपा भी थी और संप्रग में शामिल द्रमुक भी। इन दलों के पास इस सवाल का जवाब नहीं कि आखिर वे जिस सरकार को जनविरोधी और भ्रष्ट मान रहे हैं उसे सत्ता में क्यों बनाए हुए हैं? सपा ने सरकार को यह कह कर बचा लिया कि वह इस समय किसी सांप्रदायिक दल यानी भाजपा को सत्ता में आने से रोकना चाहती है। इस दलील से सहमत होना कठिन है। आज जो भी दल भाजपा को सांप्रदायिक कहकर उसे राजनीतिक रूप से अछूत बना रहे हैं उनका चरित्र भी काफी कुछ सांप्रदायिक है। ये सभी दल न केवल अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण करते हैं, बल्कि उनके समक्ष भय का भूत भी खड़ा करते हैं। वे उन राज्यों के मतदाताओं का अपमान भी करते हैं जहां भाजपा सत्ता में है। सपा ने विपक्षी दलों द्वारा बुलाए गए बंद में अपना सक्रिय सहयोग भी दिया और कुछ ही घंटों बाद सरकार को समर्थन देना जारी रखने की घोषणा कर खुद को सवालों से भी घेर लिया। इस समय संप्रग सरकार सपा की बैसाखी पर टिकी है, लेकिन यदि सपा सरकार के साथ नहीं होगी तो उसका स्थान बसपा ले सकती है, क्योंकि एक तो गठबंधन राजनीति का कोई धर्म-ईमान नहीं और दूसरे कांग्रेस मोल भाव करने में कहीं अधिक सक्षम है। इसके अलावा ऐसे दलों की भी कमी नहीं जो सौदेबाजी की राजनीति में माहिर हैं। यह लाजिमी है कि निकट भविष्य में सपा संप्रग को बाहर से समर्थन देने की कीमत वसूले। वह उत्तर प्रदेश के लिए तमाम पैकेज लेने में सफल हो सकती है, लेकिन बात तब बनेगी जब वह उत्तर प्रदेश में अपनी लोकप्रियता भी बढ़ा पाएगी। सपा इस समय तीसरे मोर्चे के गठन के लिए भी सक्रिय है, लेकिन वह यह भी स्पष्ट कर रही है कि ऐसा मोर्चा सदैव चुनाव के बाद आकार लेता है। इसका मतलब है कि तीसरे मोर्चे का कोई वैचारिक-सैद्धांतिक आधार नहीं। यदि वास्तव में ऐसा है तो यह तो गठबंधन राजनीति का और भी विचित्र रूप है। इसमें संदेह है कि तीसरा मोर्चा कोई ठोस आकार ले सकेगा, क्योंकि जनता यह समझ रही है कि ऐसा कोई मोर्चा कांग्रेस पर ही निर्भर रहेगा। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि सरकार के आर्थिक फैसलों के विरोध में भारत बंद का जो आयोजन किया गया वह विरोधी दलों का दिखावा ही अधिक था। विरोधी राजनीतिक दल जनता को यह बताना चाहते हैं कि उन्हें सरकार के महंगाई बढ़ाने वाले फैसले मंजूर नहीं, लेकिन वे यह नहीं बता पा रहे कि आखिर सरकार को क्या करना चाहिए था? जहां तक प्रमुख विपक्षी दल भाजपा का प्रश्न है तो वह खुद को सत्ता का दावेदार बता रही है, लेकिन वह अपने खाते में एक के बाद एक विफलताएं भी दर्ज करती जा रही है। जब सरकार को गिराने का मौका आया तो वह अपने साथ किसी भी दल को खड़ा नहीं कर पाई। आखिरकार उसे यह कहना पड़ा कि वह फिलहाल सरकार गिराने के पक्ष में नहीं। यह इसलिए आश्चर्यजनक है, क्योंकि दो हफ्ते पूर्व ही वह प्रधानमंत्री का इस्तीफा मांग रही थी। भाजपा की छवि सिर्फ विरोध के लिए विरोध करने वाले राजनीतिक दल की बनती जा रही है। कोयला ब्लाक आवंटन मामले में उसने संसद में बहस करने से इन्कार किया और संसद को चलने नहीं दिया। डीजल के मूल्य में वृद्धि, रसोई गैस के सब्सिडी वाले सिलेंडर सीमित करने और रिटेल में एफडीआइ के मामले में भारत बंद का आयोजन कर भाजपा ने सरकार को नाकाम भी बताया और फिर यह भी कहा कि फिलहाल उसकी दिलचस्पी सरकार गिराने में नहीं। इसका अर्थ है कि उसकी नजर में यह सरकार चलती रहनी चाहिए। इस पर गौर करें कि यही सपा चाह रही है और अन्य अनेक राजनीतिक दल भी। राजनीतिक उथल-पुथल के इस दौर में भाजपा को केंद्र में होना चाहिए, लेकिन फिलहाल फोकस सपा एवं अन्य दलों पर है। भाजपा को अपनी राजनीति का विश्लेषण करना होगा। उसे अपने अंदर झांकना होगा कि वह किस दिशा में जा रही है? अगर राजग के अन्य घटक कंधे से कंधा मिलाकर उसके साथ नहीं खडे़ हो रहे हैं तो फिर वह राजग को और मजबूत कैसे बना पाएगी? यदि भाजपा तमाम चुनौतियों, आर्थिक विसंगतियों और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी सरकार को गिराने या उसके सामने कोई बड़ी चुनौती पेश करने में सक्षम नहीं तो इसका अर्थ है कि उसकी राजनीतिक ताकत नहीं बढ़ पा रही। इसमें दो राय नहीं कि केंद्र सरकार बेहद कमजोर नजर आ रही है, लेकिन ऐसी ही कमजोरी से मुख्य विपक्षी दल भाजपा भी ग्रस्त दिख रही है। वह अपने नेतृत्व में गठबंधन राजनीति को भी मजबूत नहीं बना पा रही है, जबकि आज यह आवश्यक हो गया है कि इस राजनीति के नियम-कानून बनाए जाएं। राजनीतिक दल जब तक गठबंधन राजनीति के नियम नहीं बनाते तब तक मोल भाव की राजनीति पर लगाम लगना संभव नहीं। मोल भाव की इस राजनीति के साथ भ्रष्टाचार भी बढ़ेगा। हालांकि राजनीतिक दल यह जानते हैं कि मोल भाव की राजनीति बंद होने पर ही भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगी, लेकिन वे गठबंधन राजनीति में सुधार लाने के लिए तैयार नहीं। शायद यही कारण है कि आम जनता अन्ना से उम्मीद लगाए हुए है। जब अन्ना ने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन छेड़ा तो हर राजनीतिक दल ने अपने को हाशिये पर महसूस किया। अन्ना हजारे या उनके जैसे अन्य लोगों की ओर से छेड़े जाने वाले आंदोलन भले ही कोई मजबूत राजनीतिक विकल्प न दे पाएं, लेकिन वे ऐसे हालात पैदा कर सकते हैं जिससे देश में शासन करना कठिन हो सकता है। अगर राजनीतिक दलों को अपनी विश्वसनीयता बनाए रखनी है तो फिर उन्हें गठबंधन राजनीति के नियम-कानून बनाने में और देरी नहीं करनी चाहिए

दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण पेज -7,23-9-2012 jktuhfr

राजनीति का विचित्र रूप





रिटेल बाजार में एफडीआइ, डीजल के मूल्यों में वृद्धि एवं सब्सिडी वाले घरेलू रसोई गैस के सिलेंडरों की संख्या सीमित करने के केंद्र सरकार के फैसलों के कारण तृणमूल कांग्रेस के संप्रग से अलग होने के बाद सपा ने जिस तरह उसकी नैया पार लगाई उससे हो सकता है कि देश में उठा राजनीतिक तूफान तात्कालिक रूप से थम जाए, लेकिन इससे देश में गठबंधन राजनीति के नाम पर मोल-भाव की प्रवृत्ति थमने के आसार दूर-दूर तक नजर नहीं आते। केंद्र सरकार में शामिल रही तृणमूल कांग्रेस ने सरकार के हाल के आर्थिक फैसलों को जनविरोधी बताते हुए न केवल अपने मंत्रियों के त्यागपत्र दिला दिए, बल्कि सरकार से अपना समर्थन भी वापस ले लिया। ममता बनर्जी के आर्थिक चिंतन से असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन उन्होंने यह साबित किया कि वह जो कहती हैं वही करती भी हैं। इसके विपरीत अन्य दलों को देखें तो ज्यादातर हाथी दांत की तरह से राजनीति कर रहे हैं-दिखाने के और, खाने के और। केंद्र सरकार के आर्थिक फैसलों के विरोध में करीब-करीब सभी विपक्षी दलों के साथ-साथ सरकार के सहयोगी दल भी सड़कों पर उतरे। इनमें सरकार को बाहर से समर्थन दे रही सपा भी थी और संप्रग में शामिल द्रमुक भी। इन दलों के पास इस सवाल का जवाब नहीं कि आखिर वे जिस सरकार को जनविरोधी और भ्रष्ट मान रहे हैं उसे सत्ता में क्यों बनाए हुए हैं? सपा ने सरकार को यह कह कर बचा लिया कि वह इस समय किसी सांप्रदायिक दल यानी भाजपा को सत्ता में आने से रोकना चाहती है। इस दलील से सहमत होना कठिन है। आज जो भी दल भाजपा को सांप्रदायिक कहकर उसे राजनीतिक रूप से अछूत बना रहे हैं उनका चरित्र भी काफी कुछ सांप्रदायिक है। ये सभी दल न केवल अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण करते हैं, बल्कि उनके समक्ष भय का भूत भी खड़ा करते हैं। वे उन राज्यों के मतदाताओं का अपमान भी करते हैं जहां भाजपा सत्ता में है। सपा ने विपक्षी दलों द्वारा बुलाए गए बंद में अपना सक्रिय सहयोग भी दिया और कुछ ही घंटों बाद सरकार को समर्थन देना जारी रखने की घोषणा कर खुद को सवालों से भी घेर लिया। इस समय संप्रग सरकार सपा की बैसाखी पर टिकी है, लेकिन यदि सपा सरकार के साथ नहीं होगी तो उसका स्थान बसपा ले सकती है, क्योंकि एक तो गठबंधन राजनीति का कोई धर्म-ईमान नहीं और दूसरे कांग्रेस मोल भाव करने में कहीं अधिक सक्षम है। इसके अलावा ऐसे दलों की भी कमी नहीं जो सौदेबाजी की राजनीति में माहिर हैं। यह लाजिमी है कि निकट भविष्य में सपा संप्रग को बाहर से समर्थन देने की कीमत वसूले। वह उत्तर प्रदेश के लिए तमाम पैकेज लेने में सफल हो सकती है, लेकिन बात तब बनेगी जब वह उत्तर प्रदेश में अपनी लोकप्रियता भी बढ़ा पाएगी। सपा इस समय तीसरे मोर्चे के गठन के लिए भी सक्रिय है, लेकिन वह यह भी स्पष्ट कर रही है कि ऐसा मोर्चा सदैव चुनाव के बाद आकार लेता है। इसका मतलब है कि तीसरे मोर्चे का कोई वैचारिक-सैद्धांतिक आधार नहीं। यदि वास्तव में ऐसा है तो यह तो गठबंधन राजनीति का और भी विचित्र रूप है। इसमें संदेह है कि तीसरा मोर्चा कोई ठोस आकार ले सकेगा, क्योंकि जनता यह समझ रही है कि ऐसा कोई मोर्चा कांग्रेस पर ही निर्भर रहेगा। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि सरकार के आर्थिक फैसलों के विरोध में भारत बंद का जो आयोजन किया गया वह विरोधी दलों का दिखावा ही अधिक था। विरोधी राजनीतिक दल जनता को यह बताना चाहते हैं कि उन्हें सरकार के महंगाई बढ़ाने वाले फैसले मंजूर नहीं, लेकिन वे यह नहीं बता पा रहे कि आखिर सरकार को क्या करना चाहिए था? जहां तक प्रमुख विपक्षी दल भाजपा का प्रश्न है तो वह खुद को सत्ता का दावेदार बता रही है, लेकिन वह अपने खाते में एक के बाद एक विफलताएं भी दर्ज करती जा रही है। जब सरकार को गिराने का मौका आया तो वह अपने साथ किसी भी दल को खड़ा नहीं कर पाई। आखिरकार उसे यह कहना पड़ा कि वह फिलहाल सरकार गिराने के पक्ष में नहीं। यह इसलिए आश्चर्यजनक है, क्योंकि दो हफ्ते पूर्व ही वह प्रधानमंत्री का इस्तीफा मांग रही थी। भाजपा की छवि सिर्फ विरोध के लिए विरोध करने वाले राजनीतिक दल की बनती जा रही है। कोयला ब्लाक आवंटन मामले में उसने संसद में बहस करने से इन्कार किया और संसद को चलने नहीं दिया। डीजल के मूल्य में वृद्धि, रसोई गैस के सब्सिडी वाले सिलेंडर सीमित करने और रिटेल में एफडीआइ के मामले में भारत बंद का आयोजन कर भाजपा ने सरकार को नाकाम भी बताया और फिर यह भी कहा कि फिलहाल उसकी दिलचस्पी सरकार गिराने में नहीं। इसका अर्थ है कि उसकी नजर में यह सरकार चलती रहनी चाहिए। इस पर गौर करें कि यही सपा चाह रही है और अन्य अनेक राजनीतिक दल भी। राजनीतिक उथल-पुथल के इस दौर में भाजपा को केंद्र में होना चाहिए, लेकिन फिलहाल फोकस सपा एवं अन्य दलों पर है। भाजपा को अपनी राजनीति का विश्लेषण करना होगा। उसे अपने अंदर झांकना होगा कि वह किस दिशा में जा रही है? अगर राजग के अन्य घटक कंधे से कंधा मिलाकर उसके साथ नहीं खडे़ हो रहे हैं तो फिर वह राजग को और मजबूत कैसे बना पाएगी? यदि भाजपा तमाम चुनौतियों, आर्थिक विसंगतियों और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी सरकार को गिराने या उसके सामने कोई बड़ी चुनौती पेश करने में सक्षम नहीं तो इसका अर्थ है कि उसकी राजनीतिक ताकत नहीं बढ़ पा रही। इसमें दो राय नहीं कि केंद्र सरकार बेहद कमजोर नजर आ रही है, लेकिन ऐसी ही कमजोरी से मुख्य विपक्षी दल भाजपा भी ग्रस्त दिख रही है। वह अपने नेतृत्व में गठबंधन राजनीति को भी मजबूत नहीं बना पा रही है, जबकि आज यह आवश्यक हो गया है कि इस राजनीति के नियम-कानून बनाए जाएं। राजनीतिक दल जब तक गठबंधन राजनीति के नियम नहीं बनाते तब तक मोल भाव की राजनीति पर लगाम लगना संभव नहीं। मोल भाव की इस राजनीति के साथ भ्रष्टाचार भी बढ़ेगा। हालांकि राजनीतिक दल यह जानते हैं कि मोल भाव की राजनीति बंद होने पर ही भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगी, लेकिन वे गठबंधन राजनीति में सुधार लाने के लिए तैयार नहीं। शायद यही कारण है कि आम जनता अन्ना से उम्मीद लगाए हुए है। जब अन्ना ने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन छेड़ा तो हर राजनीतिक दल ने अपने को हाशिये पर महसूस किया। अन्ना हजारे या उनके जैसे अन्य लोगों की ओर से छेड़े जाने वाले आंदोलन भले ही कोई मजबूत राजनीतिक विकल्प न दे पाएं, लेकिन वे ऐसे हालात पैदा कर सकते हैं जिससे देश में शासन करना कठिन हो सकता है। अगर राजनीतिक दलों को अपनी विश्वसनीयता बनाए रखनी है तो फिर उन्हें गठबंधन राजनीति के नियम-कानून बनाने में और देरी नहीं करनी चाहिए

दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण पेज -7,23-9-2012 jktuhfr