आत्मावलोकन में ईमानदारी कांग्रेस के लिएफायदेमंद होती, लेकिन पार्टी ने यह अवसर खो दिया है।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपनी स्थापना के 125 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में जो किताब जारी की है, वह इतिहास को अपने हिसाब से पेशकरने का विलक्षण उदाहरण है। कांग्रेस ऐंड द मेकिंग ऑफ द नेशन नाम की इस किताब का सबसे चौंकाने वाला हिस्सा वह है, जिसमें आपातकाल के दौरान ज्यादतियों के लिए संजय गांधी को जिम्मेदार ठहराते हुए उनसे पल्ला झाड़ लिया गया है। यह स्थापित सत्य है कि आपातकाल के दौरान संजय गांधी के कुछ फैसलों ने आम जनता को कांग्रेस के खिलाफ कर दिया था। लेकिन अब तक कांग्रेस संजय गांधी के बारे में चुप्पी साधे हुई थी। सीधी-सी बात है कि चूंकि गांधी परिवार का हिस्सा होते हुए भी संजय गांधी के परिवारजन कांग्रेस का हिस्सा नहीं हैं, इसलिए कांग्रेस के लिए उन्हें निशाना बनाना आसान है। अगर ऐसा नहीं है, तो यह भी देखना होगा कि आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी सर्वेसर्वा थीं, संजय गांधी उन्हीं की छाया में थे। क्या यह माना जा सकता है कि उस दौरान सामान्य राजनीतिक प्रक्रिया के ठप हो जाने, मौलिक अधिकारों के स्थगित होने और न्यायपालिका की शक्ति घट जाने के पीछे उनकी कोई भूमिका नहीं थी? कुछ ऐसी ही स्थापना आजाद भारत के सबसे बड़े जननेता जयप्रकाश नारायण के बारे में है। उनकी ईमानदारी और नि:स्वार्थ भावना की प्रशंसा करते हुए भी यह किताब कहती है कि उनकी विचारधारा अस्पष्ट थी! मानो यही कम न हो, आगे कहा गया है कि जेपी आंदोलन संविधानेतर और अलोकतांत्रिक था! सचाई यह है कि हर सत्ता अपने विरोधियों को इसी नजर से देखती है और उनके कृत्यों को अलोकतांत्रिक बताती है। हालांकि राजीव गांधी और पीवी नरसिंह राव के मूल्यांकन में पूरी ईमानदारी बरती गई है, और यही इस किताब की उपलब्धि है। संगठन में अपेक्षित सुधार न कर पाने को जहां राजीव गांधी की विफलता बताया गया है, वहीं नरसिंह राव की उपलब्धियों को पार्टी ने पहली बार स्वीकारा है। नेहरू-गांधी परिवार के बाहर का होने के बावजूद पांच साल सरकार चला लेने के लिए उनकी प्रशंसा की गई है, तो आर्थिक नीतियों के प्रणेता के तौर पर भी उन्हें याद किया गया है। हालांकि यहां भी बाबरी विध्वंस का ठीकरा तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार और भाजपा नेताओं के सिर फोड़ा गया है, केंद्र में सरकार होने के कारण कांग्रेस की भूमिका पर चुप्पी है। इसी तरह उत्तर प्रदेश चुनाव में राहुल गांधी की मेहनत को किताब में जगह दी गई है, लेकिन बिहार चुनाव में पार्टी की दुर्दशा की अनदेखी कर दी गई है। आत्मावलोकन में ईमानदारी अंतत: पार्टी के लिए ही फायदेमंद होती, लेकिन पक्षपातपूर्ण इरादे ने एक महत्वपूर्ण अवसर खो दिया है।
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