Monday, December 27, 2010

पश्चिम बंगाल में खतरनाक खेल

तृणमूल कांग्रेस कुछ महीने पहले स्थानीय निकाय चुनावों में अकेले लड़ते हुए भी वाम मोर्चे को मात देने में सफल रही थी लेकिन वे शहरी निकायों के चुनाव थे, जबकि विधानसभा चुनाव की मुख्य रणभूमि देहाती इलाके होंगे। वाम मोर्चे को उम्मीद इसी रणभूमि से है। मगर पश्चिम बंगाल में इस रण की तैयारी अभी जिन औजारों के साथ हो रही है, वह लोकतांत्रिक नहीं है, बल्कि नि:संदेह यह कहा जा सकता है कि यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक है
अमत्र्य सेन ने पश्चिम बंगाल में जारी राजनीतिक हिंसा को भयानक कहा है। राज्य के राज्यपाल एम.के. नारायणन ने कहा है कि वे वहां के हालात से बेहद चिंतित हैं। राज्य में बनती खतरनाक स्थिति के मद्देनजर इन दोनों की राय से शायद ही कोई असहमत हो। हालात ऐसे हैं कि बहुत से लोगों को 1970 के आपपास का जमाना आने लगा है, जब नक्सलबाड़ी विद्रोह की पृष्ठभूमि में राज्य के कॉलेज कैम्पसों से लेकर खेत-खलिहानों तक में अराजकता जैसी स्थिति बन गयी थी। लोगों को यह चिंता सता रही है कि क्या वही दिन अब वापस आ रहे हैं, क्या अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में सत्ता हड़पने और बचाने की कोशिश में जुटी पार्टयिां वैसे ही हालात पैदा करने पर आमादा हैं। राज्य में वैसे तो हिंसा का माहौल 2007 से बनता गया है, जब माओवादियों ने नंदीग्राम आंदोलन की आड़ में राज्य में कदम जमाये और सत्ताधारी मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से चार दशक पुराना अपना बदला चुकाना शुरू किया। इल्जाम रहे हैं कि इसमें उन्हें राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी तृणमूल कांग्रेस की छतछ्राया मिली और नयी राजनीतिक परिस्थिति में एक जगह इकट्ठे हुए तमाम वाम मोर्चा विरोधी राजनीतिक ताकतों का उन्हें समर्थन मिला। तब से सीपीएम और वाम मोर्चा की अन्य पार्टयिों के तकरीबन चार सौ कार्यकर्ता माओवादी हिंसा का शिकार हुए हैं। पिछले हफ्ते पुरुलिया जिले में फारवर्ड ब्लॉक के सात कार्यकर्ताओं की हत्या उस सिलसिले की सिर्फ ताजा कड़ी है। इस बढ़ते सामाजिक तनाव के बीच कॉलेजों के कैम्पस अभी कुछ समय पहले तक अपेक्षाकृत शांत थे, लेकिन अब तृणमूल कांग्रेस छात्र परिषद और सीपीएम से जुड़े स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) के बीच टकराव हिंसक मोड़ ले चुका है। पिछले गुरु वार को हावड़ा में एसएफआई के छात्र स्वप्न कोले की हत्या और दस छात्रों के घायल होने के बाद राज्य भर के कॉलेजों में तनाव बढ़ जाने की खबर है। इसी क्रम में चौबीस परगना जिले में तृणमूल समर्थक छात्र संजू मालाकार की हत्या से अब हालत और भड़क उठने का अंदेशा है। ऐसा लगता है कि दोनों ही पक्ष लाशों की सियासत पर उतर आए हैं। स्वप्न कोले की लाश को लेकर सीपीएम ने कोलकाता में जुलूस निकाला। उसके तीन दिन बाद बारी तृणमूल कांग्रेस की थी। पार्टी ने पश्चिम मिदनापुर जिले में मारे गये सनातन हेम्ब्रम के शव को लेकर जुलूस निकाला जबकि अभी इस बात पर विवाद है कि हेम्ब्रम का सम्बंध किस पार्टी से था। तृणमूल का दावा है कि हेम्ब्रम उसका सदस्य था। हालांकि पुलिस का कहना है कि हेम्ब्रम पहले झारखंड पार्टी का समर्थक था और बाद में माओवादियों के मोर्चा संगठन पुलिस संत्रास विरोधी जनसाधारणोर कमेटी से जुड़ गया। वह कमेटी के अर्ध- सैनिक संगठन सिद्धू-कान्हू गण मिलिशिया का सदस्य था। जाहिर है, इस घटना से वाम मोर्चा को तृणमूल कांग्रेस और माओवादियों के बीच साठगांठ का आरोप फिर से लगाने का एक मौका मिल गया है। जानकार मानते हैं कि विधानसभा चुनाव के और करीब आने के साथ पश्चिम बंगाल में तनाव और टकराव के और बढ़ने का अंदेशा है। पिछले तीन साल में बनी सामाजिक और राजनीतिक स्थितियों की वजह से वाम मोर्चा पिछले साढ़े तीन दशक में सबसे कमजोर विकेट पर है और उसके विरोधी उसे उखाड़ फेंकने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते। दूसरी तरफ वाम मोर्चा भी अपना किला बचाने की जद्दोजहद में कोई तौर-तरीका छोड़ने को तैयार नहीं है। पिछले लोकसभा चुनाव के बाद हर स्तर के चुनाव में वाम मोर्चा को लगे झटकों की वजह से पार्टी के नेता और कार्यकर्ता हिले हुए हैं। हालांकि पार्टी का दावा है कि हाल में उसे कुछ सकारात्मक संकेत मिले हैं, और उसे बेहतर सम्भावनाओं में बदलने के लिए मोर्चे ने अपने को पूरी तरह से झोंक दिया है। वाम मोर्चे की उम्मीद कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के बीच बढ़ते तनाव से भी बढ़ी है। दिल्ली में हुए कांग्रेस के महाधिवेशन में राज्य के कांग्रेस नेताओं ने तृणमूल कांग्रेस पर सीधा हमला बोला। उसके बाद से तृणमूल नेता अकेले चुनाव में उतरने की तैयारी जता रहा हैं। ऐसे बयानों की वजह शायद सिर्फ यही नहीं है कि तृणमूल कांग्रेस अपनी सहयोगी पार्टी पर दबाव बनाना चाहती है, जिससे वह सीटों के बंटवारे के समय ज्यादा मांग न करे। बल्कि तृणमूल कांग्रेस की रणनीति केंद्र सरकार में रहने के सारे फायदे उठाने, लेकिन केंद्र के अलोकप्रिय फैसलों की कोई जिम्मेदारी न लेने की ज्यादा लगती है। पेट्रोल के दाम में लगातार इजाफा और प्याज की महंगाई से वाम मोर्चे को केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा करने का मौका मिला है। लेकिन तृणमूल नेता यह संदेश देने की कोशिश में हैं कि इन फैसलों के लिए कांग्रेस जिम्मेदार है। उधर कांग्रेस नेता समझते हैं कि अगर वे खामोश रहे तो ममता बनर्जी उनके सामने सीटों की वैसी ही अपमानजनक पेशकश कर सकती हैं, जैसा कभी बिहार में लालू प्रसाद यादव ने किया था। इसलिए उनकी रणनीति भी तापमान बढ़ाने की है। बहरहाल, किसी गठबंधन के भागीदारों में- खासकर जिस गठबंधन में ममता बनर्जी जैसी अस्थिर नेता हों- ऐसी जुबानी जंग असामान्य नहीं है और सम्भावना यही है कि आखिर में केंद्रीय नेताओं के दखल से दोनों पार्टयिां एक साथ ही चुनाव मैदान में उतरेंगी। इसलिए वाम मोर्चा ऐसी सम्भावनाओं से बहुत उम्मीद नहीं बांध सकता। दूसरी तरफ तृणमूल कांग्रेस कुछ महीने पहले स्थानीय निकाय चुनावों में अकेले लड़ते हुए भी वाम मोर्चे को मात देने में सफल रही थी लेकिन वे शहरी निकायों के चुनाव थे, जबकि विधानसभा चुनाव की मुख्य रणभूमि देहाती इलाके होंगे। वाम मोर्चे को उम्मीद इसी रणभूमि से है। मगर पश्चिम बंगाल में इस रण की तैयारी अभी जिन औजारों के साथ हो रही है, वह लोकतांत्रिक नहीं है, बल्कि नि:संदेह यह कहा जा सकता है कि यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक है।

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