Friday, December 24, 2010

राजनीति में आदर्श

आज चुनावों के दौरान वैचारिक बहस गायब हो गई है

बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व में जदयू-भाजपा गठबंधन को पिछले चुनाव में भारी सफलता मिली। सीटों के हिसाब से यह दो तिहाई से अधिक का बहुमत है। लेकिन मतों की संख्या पर विचार करने पर नीतीश हवाकी हवा निकल जाती है। जदयू-भाजपा गठबंधन को कुल डाले गए वोटों का मात्र 39 प्रतिशत प्राप्त हुआ है, जबकि 61 प्रतिशत लोगों ने इसके खिलाफ वोट दिया है। अगर इसमें उन 48 प्रतिशत मतदाताओं को भी शामिल कर लिया जाए, जिन्होंने किसी भी दल को समर्थन के योग्य न समझकर मतदान नहीं किया, तो नीतीश समर्थन का शोर और भी अर्थहीन लगेगा।
नीतीश कुमार की जीत का अगर कोई अर्थ निकाला जा सकता है, तो यही कि लोगों को किसी स्थापित दल पर भरोसा नहीं है और जाति आधारित या दूसरे तरह के जो गुट चुनाव मैदान में आए, उनमें से किसी को उन्होंने तात्कालिक कारणों से समर्थन दे दिया। भाजपा को इसका लाभ इसलिए मिला कि संघ के समर्थन से इसका एक सांगठनिक आधार लगातार बनता रहा है और बिखरे समूहों पर यह भारी पड़ा।
नीतीश कुमार की उपस्थिति सत्ता में होने के कारण सभी जगह थी। एंटी इन्कम्बेंसी फैक्टर के बजाय बिहार में विशेष स्थिति के कारण सत्तारूढ़ गठबंधन के पक्ष में रूझान बन गया। यह कुछ अचरज में डालने वाली बात लगती है। लेकिन थोड़ा विचार करने पर इसका तर्क समझ में आता है। दरअसल पिछले कुछ वर्षों से कई केंद्र प्रायोजित कल्याणकारी योजनाएं देश में चल रही हैं, जैसे गरीबी रेखा के नीचे के लोगों के लिए सस्ता अनाज या इंदिरा आवास के तहत घर या वृद्धा पेंशन योजना या मनरेगा के तहत रोजगार गारंटी योजना। इन्हें लागू करने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है और अपने त्रुटिपूर्ण और भ्रष्ट कार्यान्वयन के बावजूद गरीब लोगों को इसका लाभ दिखाई देता है। इसका पूरा श्रेय नीतीश कुमार को मिला। इसीलिए एक ऐसे समाज में, जहां राजनीति का नैतिक और वैचारिक आधार ध्वस्त हो चुका है, नीतीश और भाजपा गठबंधन औरों से अधिक समर्थन जुटा सका।
जिन लोगों ने आजादी के बाद के दो दशकों के चुनावों को देखा है, उन्हें याद होगा कि आपदाओं के बाद लोग कहा करते थे कि कांग्रेस की जीत अब सुनिश्चित है। दरअसल आपदाओं के बाद सरकार की ओर से राहत पहुंचाई जाती थी, जो आपदा से घिरे लोगों को प्रभावित करती थी। पिछले चुनाव में काफी हद तक जनहितकारी योजनाएं और बाढ़ राहत आदि राज्य के सत्ताधारी दल की लोकप्रियता बढ़ाने में सहायक हुई।
इन चीजों ने चुनाव को प्रभावित करने में निर्णायक भूमिका निभाई, तो इसकी वजह है वैचारिक बहस का पूर्ण अभाव। इस चुनाव में जातिगत गठबंधन और व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप ही असरदार रहे। लालू प्रसाद का राजद 18.84 प्रतिशत मत और 22 प्रत्याशियों की जीत से दूसरे स्थान पर रहा, तो इसलिए कि जातिगत समीकरण अभी पूरी तरह ध्वस्त नहीं हुआ है। भाकपा-माले समेत सभी कम्युनिस्ट पार्टियां ध्वस्त हो गईं। सिर्फ भाकपा को एक सीट पर कामयाबी मिली।
जैसे-जैसे आवास योजनाएं, सस्ता राशन देने जैसी जनहितकारी योजनाएं सभी दलों की नीति का हिस्सा बनेंगी, वैसे-वैसे इनसे मिलने वाला समर्थन नगण्य हो जाएगा। तब नीतियों या इसके अभाव का महत्व राजनीति में दिखाई देगा। वैसे में सबसे बड़ी चुनौती वाम दलों के सामने होगी। समाजवादी पार्टियां तो लगभग खत्म ही हो चुकी हैं। बुनियादी तौर पर ये सभी पार्टियां तथाकथित नव उदारवाद की मूल नीतियों का ही पोषण करती हैं। कमोबेश ये सभी दल केंद्रीय सत्ता में समय-समय पर भागीदार रहे हैं और नीति संबंधी कोई मतभेद इनमें नहीं दिखा है।
यह सच है कि लोकहितकारी नीतियों के मामले में मनमोहन सिंह ने पिछले दिनों कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। इसके कारण भी हैं। निर्बाध पूंजीपरस्त नीतियों के चलते एक तरफ देश में भयंकर कंगाली फैली है, दूसरी तरफ एक छोटा वर्ग अत्यधिक अमीर हो गया है। थोड़ी बहुत समृद्धि शहरी क्षेत्रों में ही फैली है। इससे गांवों और आदिवासी बहुल इलाकों से लोगों का नगरों की तरफ पलायन हो रहा है। इससे उबरने के लिए गांवों में कुछ राहत पहुंचाना अपरिहार्य था।
जो दल वर्तमान वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था और तथाकथित उदारीकरण की नीति को कुबूल नहीं करते, उनके सामने एक वैकल्पिक नीति विकसित करने की बड़ी चुनौती है। कम्युनिस्ट पार्टियों ने औद्योगीकरण की नीति को कुबूल कर लिया है। पश्चिम बंगाल में माकपा का संकट इसी का नतीजा है, जिससे वह उबर नहीं पा रही। लगता है कि कम्युनिस्ट धारा के लोग इस नतीजे पर पहुंच चुके हैं कि पूंजीवाद का चरम विकास करना ही उनका लक्ष्य है। एक छोटे और लगभग हाशिये पर पड़े समूह को छोड़ समाजवादियों ने भी वैकल्पिक समाज की चिंता छोड़ दी है।
इस तरह व्यापकता में देखें, तो बिहार का चुनावी नतीजा पूरे देश में फैले वैचारिक शून्य को ही रेखांकित करता है। समस्या सिर्फ आदर्शों की फिर से स्थापना की ही नहीं, बल्कि एक ऐसा सांगठनिक ढांचा विकसित करने की भी है, जिसमें बड़े पैमाने पर लोगों को इन आदर्शों के इर्द-गिर्द जोड़ा जा सके और राजनीति में बदलाव आए। शायद इन दबावों में लोगों को गांधी के स्वावलंबी ग्राम गणतंत्रों की बात समझ में आने लगे। आज वामपंथ इन्हीं भूले-बिसरे सूत्रों के आधार पर भारत के बहुसंख्य लोगों को जोड़ने वाली व्यापक नीति का विकास कर सकता है। बिहार का चुनाव परिणाम वाम दलों के लिए आत्ममंथन का एक अच्छा अवसर है।

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