मायावती सरकार में अब कुर्सियां ज्यादा और मंत्री कम रह गए हैं। 31 कुर्सियां शोभायमान हैं 26 खाली पड़ी हैं। अप्रैल 2011 से अब तक 20 मंत्री विदा किए जा चुके हैं और ज्यादातर भ्रष्टाचारी अथवा दागी होने के कारण। इनमें से छह तो लोकायुक्त की सिफारिश के बाद ही भ्रष्ट माने गए। अब लोकायुक्त न्यायमूर्ति एनके मेहरोत्रा ने सातवें और सबसे अहम माने जाने वाले मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी को भ्रष्टाचार में लिप्त मानकर उनके विरुद्ध सीबीआइ जांच की सिफारिश की है। क्या माया सबसे नजदीकी और राजनीतिक रूप से अहम मंत्री के विरुद्ध लोकायुक्त की सिफारिश को मानकर उन्हें बाहर का रास्ता दिखाएंगी? इस बार ऐसा होना मुश्किल नजर आता है। इसकी कई वजहें हैं। सबसे पहली तो यह है कि नसीमुद्दीन बसपा का मुस्लिम चेहरा कहे जाते हैं। विस चुनाव के अभी दो चरणों का मतदान बाकी है, जो मुस्लिम बहुल क्षेत्रों पश्चिमी उत्तर प्रदेश और रूहेलखंड में है। इन क्षेत्रों में इस समुदाय के मत 25 से 50 फीसदी के बीच हैं। यहां के वोटरों के बीच नसीमुद्दीन की चाहे जितनी पैठ हो, लेकिन संगठन और टिकट वितरण में उनकी अहम भूमिका रही है। उनको हटाने से सरकार की भ्रष्टाचार विरोधी छवि सुधरे न सुधरे, राजनीतिक उथल-पुथल तेज हो सकती है। दूसरी अहम वजह यह है कि इस सरकार में बाबू सिंह कुशवाहा और नसीमुद्दीन ही दो ऐसे मंत्री रहे हैं जिन्हें मायावती का बेहद नजदीकी माना जाता रहा है। दोनों की ही छवि पार्टी के फंड कलेक्टर की रही है और दोनों के खिलाफ भूमि घोटालों की भी लंबी फेहरिस्त है। कुशवाहा 7 अप्रैल 2011 को अंटू मिश्रा के साथ एनआरएचएम घोटाले में काम आ चुके हैं और भाजपा द्वारा अपनाए भी जा चुके हैं। अगर चुनाव के इस मौके पर मायावती नसीमुद्दीन के खिलाफ लोकायुक्त के फैसले को मंजूर करती हैं तो यह सरकार के शीर्ष पर हो रहे भ्रष्टाचार की स्वीकारोक्ति जैसी ही होगी। दो सबसे अहम मंत्री और मुख्यमंत्री के बेहद नजदीकी और दोनों भ्रष्ट? इस सवाल को विपक्ष जमकर उछालेगा और इसका जवाब देना माया के लिए असंभव सा ही होगा। सीबीआइ का सामना कर रहे कुशवाहा ने बसपा से हटने के बाद सरकार के जिन कारिंदों से जान को खतरा पाया था उनमें नसीमुद्दीन, कैबिनेट सचिव शशांक शेखर सिंह और पूर्व प्रमुख सचिव गृह कुंवर फतेहबहादुर के नाम प्रमुख थे। क्या चुनाव खत्म होते-होते और बड़ी कुर्सियां खाली होंगीं?
No comments:
Post a Comment