उत्तर प्रदेश में प्रथम चरण के चुनाव प्रचार के अंतिम दिन नेहरू-गांधी परिवार के दामाद रॉबर्ट वाड्रा ने जिस तरह सक्रिय राजनीति में आने के संकेत दिए, उससे कांग्रेसी नीति-नियंताओं की पेशानी पर बल पड़ना स्वाभाविक ही था। कांग्रेस के गढ़ रायबरेली के अंतर्गत सुरक्षित सीट सलोन में कांग्रेस प्रत्याशी शिव बालक पासी के पक्ष में प्रचार करने उतरे रॉबर्ट वाड्रा ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा जाहिर कर यह संकेत तो दे ही दिए हैं कि आने वाले समय में वह गांधी-नेहरू परिवार की विरासत संभालने का माद्दा भी रखते हैं और ताकत भी। हालांकि प्रियंका ने अपने पति की राजनीतिक महत्वाकांक्षा को सिरे से नकारते हुए मीडिया पर ही इस मुद्दे के राजनीतिकरण का आरोप मढ़ दिया। अगर प्रियंका की बात का भरोसा भी किया जाए तो क्या रॉबर्ट सचमुच राजनीति में नहीं आएंगे? कम से कम रॉबर्ट वाड्रा के नजरिए से देखें तो प्रियंका गलत साबित होती नजर आती हैं। कोई हफ्ते भर पहले रॉबर्ट वाड्रा ने मीडिया के माध्यम से एक बार फिर बयान दिया कि यदि जनता उन्हें नेता के रूप में स्वीकार करना चाहे तो वह सक्रिय राजनीति में जरूर आएंगे। परिदृश्य साफ है, प्रियंका जहां अपने भाई राहुल के राजनीतिक सपनों की खातिर अपने राजनीतिक जीवन को तिलांजलि देने को आतुर हैं तो उन्हीं के पति रॉबर्ट की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं जमकर हिलोरें मार रही हैं। यानी आने वाला समय कांग्रेस के शीर्ष परिवार के लिए सत्ता संघर्ष का सबब भी बन सकता है। दरअसल, यह पहला मौका नहीं है, जब रॉबर्ट वाड्रा ने राजनीति में आने की अपनी मंशा का सार्वजनिक इजहार किया हो। दो साल पहले उन्होंने यह कहकर राजनीतिक सरगर्मियां बढ़ा दी थीं कि वह भारत के किसी भी क्षेत्र से चुनाव जीत सकते हैं। हालांकि तब उनकी बात को इतनी गंभीरता से नहीं लिया गया था, क्योंकि वह हमेशा अपनी पत्नी प्रियंका के साथ दिखते नजर आते थे, लेकिन इस बार चुनाव प्रचार से लेकर मोटरसाइकिल रैली तक में उन्होंने अपने स्वतंत्र वजूद को साबित कर राजनीतिज्ञ बनने की ओर अग्रसर होने पर सार्वजनिक रूप से मुहर लगा दी। रॉबर्ट ने मीडिया के सामने यह भी कहा कि अभी राहुल का वक्त है तो आने वाला वक्त प्रियंका का होगा। इससे तो यही साबित होता है कि वाड्रा अपनी पत्नी के नाम और गांधी-नेहरू परिवार की राजनीतिक विरासत की ऐतिहासिक महत्ता को भुनाना चाहते हैं। इतिहास के आईने से देखा जाए तो नेहरू परिवार से इतर राजनीति में आने की मंशा रखने वाले रॉबर्ट वाड्रा पहले व्यक्ति नहीं हैं। इंदिरा गांधी के पति स्व. फिरोज गांधी ने भी नेहरू परिवार की कर्मस्थली इलाहाबाद से अपने राजनीतिक सफर की शुरुआत की थी। मगर रॉबर्ट और फिरोज गांधी की राजनीतिक मंशा में जमीन-आसमान का अंतर है, था और हमेशा रहेगा। रॉबर्ट जहां राजनीति की चमकीली राहों पर चलने में स्वयं को मुफीद पाते हैं, वहीं फिरोज गांधी ने राजनीति में खुद को हमेशा नेहरू परिवार से इतर प्रासंगिक रखा। फिरोज पहले स्वतंत्रता सेनानी थे, बाद में कांग्रेस कार्यकर्ता बने और आखिर में नेहरू परिवार के दामाद। लेकिन रॉबर्ट ने का न तो देश के लिए कुछ योगदान है और न ही कांग्रेस कार्यकर्ता के रूप में उनकी मेहनत झलकती है। फिरोज गांधी ने 1930 में भारत की आजादी के लिए स्वतंत्रता की लड़ाई में कूदने का साहस दिखाया और कई बार जेल की यात्रा की। 1942 में वह प्रांतीय सदन से लोकसभा सदस्यता हासिल कर आगे बढ़ते गए। भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई में फिरोज ने नेहरू सरकार को ही कठघरे में खड़ा कर दिया था। क्या वर्तमान में रॉबर्ट वाड्रा के पास ऐसी इच्छाशक्ति है कि वह अपनी ही पार्टी की सरकार में हुए भ्रष्टाचार के मुद्दों पर मुखर होकर अपना विरोध जता सकें? बिलकुल नहीं। रॉबर्ट को राजनीति में आम से कोई लगाव नहीं है। वह हमेशा खास बनकर उन पर राज करना चाहते हैं। रॉबर्ट की दिनोदिन बढ़ती राजनीतिक हसरतों के बीच अब गेंद सोनिया के पाले में है कि उनके और राजीव गांधी के राजनीतिक वारिस अकेले उनके पुत्र राहुल होंगे या पुत्री और दामाद की भी उसमें हिस्सेदारी होगी। खैर, यह तो वक्त ही बताएगा कि रॉबर्ट राजनीति की उड़ान कितनी दूर तक भर पाते हैं, लेकिन यदि उनका राजनीति में पदार्पण गांधी-नेहरू परिवार के दामाद के रूप में हुआ तो यह परिवारवाद की ओर बढ़ाया गया एक और आत्मघाती कदम होगा। इसकी आंच राहुल सहित प्रियंका को भी झुलसा सकती है। रॉबर्ट की बढ़ती राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं ने गांधी-नेहरू परिवार के वारिसों के माथे पर शिकन तो ला ही दी है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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