अमेठी में प्रियंका गांधी के पति रॉबर्ट वाड्रा ने जिस तरह जनता के बहाने अपनी महत्वाकांक्षाओं को जाहिर किया है, उससे साफ है कि देश के पहले राजनीतिक परिवार का रिश्तेदार होने के चलते उनके मन के किसी कोने में राजनीति में उतरने को लेकर दबी-ढकी आकांक्षा जरूर है। रॉबर्ट वाड्रा का यह कहना कि अगर जनता ने चाहा तो वह राजनीति में आ सकते हैं, कांग्रेसी राजनीति के गलियारों में इसे पत्रकारों के सवालों के फौरी जवाब के तौर पर बताकर टालने की कोशिशें तेज हो गई हैं। यह भी बताने की कोशिश हो रही है कि रॉबर्ट वाड्रा की कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं है, लेकिन इसे उनके सामान्य बयान की तरह खारिज नहीं किया जा सकता। हालांकि सबसे पहले उनके बयान को उनकी पत्नी प्रियंका गांधी ने ही खारिज किया। जैसा कि हर बार ऐसे बयानों में होता है कि पूरा दोष मीडिया पर थोप दिया जाता है। प्रियंका ने भी कुछ ऐसा ही कहा। उन्होंने मीडिया को जिम्मेदार ठहराते हुए कह दिया कि मीडिया ने उनसे सवाल पूछा और इसका उन्होंने जवाब दे दिया। प्रियंका ने कहा, लोग मुझे राजनेता के तौर पर देखना चाहते हैं, लेकिन मेरा और मेरे पति का फिलहाल सक्रिय राजनीति में आने का कोई इरादा नहीं है। हम राहुल गांधी के मिशन उत्तर प्रदेश को सफल बनाने के लिए काम कर रहे हैं। रॉबर्ट वाड्रा की राजनीति में आने की सचमुच कोई इच्छा है या नहीं, इसकी पड़ताल से पहले यह देखना जरूरी है कि प्रियंका को लेकर आम कांग्रेसी क्या सोचते हैं। कांग्रेस शायद ही इसे स्वीकार करे कि मौजूदा विधानसभा चुनावों में हाथ के पंजे के सहारे चुनाव मैदान में उतरे लोगों की एक ही चाहत रही है कि प्रियंका उनके यहां आएं, प्रचार करें। हर बार जब भी चुनाव आते हैं, कांग्रेसी हलकों में यह हसरत नए सिरे से परवान चढ़ने लगती है। अगर आम चुनाव हो रहे हों तो प्रियंका को लेकर लोगों में उत्सुकता बढ़ जाती है। कांग्रेसी कार्यकर्ता और नेता तो चाहते ही हैं कि प्रियंका सक्रिय राजनीति में आएं और उनकी नैया को चुनावी राजनीति से पार ले जाकर राजनीति की उस ऊंचाई पर पहुंचा दें, जो कम से कम अस्सी के दशक तक विकल्पहीन रही है। जिस विकल्पहीनता के चलते कांग्रेस इस देश की स्वाभाविक पार्टी रही है, कांग्रेस के सामान्य कार्यकर्ताओं और नेताओं का अब भी यही मानना है कि अतीत का उसका सियासी ऐश्वर्य कोई वापस दिला सकता है तो वह प्रियंका गांधी ही हैं। आम चुनाव और उत्तर प्रदेश के चुनावों के ठीक पहले इस तरह की हसरतें सिर्फ कांग्रेस का कार्यकर्ता या नेता ही पालना शुरू नहीं करता, बल्कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी इस हसरत को पूरा होते देखने के लिए मचल उठती है। यही वजह है कि कांग्रेस के चुनावी अभियान के तहत अमेठी और रायबरेली में उतरी प्रियंका गांधी की तरफ देश का प्रदर्शनकारी मीडिया दौड़ लगा पड़ता है। प्रदर्शनकारी मीडिया टीआरपी के दबावों का लाख हवाला दे, लेकिन हकीकत तो यही है कि उसके मन में भी कहीं न कहीं कांग्रेसी कार्यकर्ताओं जैसी हसरत रहती है। हो सकता है कि प्रदर्शनकारी मीडिया की दिलचस्पी कांग्रेस के गौरवमयी अतीत की वापसी में उतनी नहीं हो, लेकिन यह तय है कि प्रियंका के राजनीति में सक्रिय होने को लेकर हसरतमंद तो वह है ही। मीडिया का एक धड़ा अपनी इस प्रियंका प्रियता के तहत कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की चाहत को ही सार्वजनिक अभिव्यक्ति करार देता है। यही वजह है कि प्रियंका के रोड शो से लेकर रॉबर्ट वाड्रा तक के मोटरसाइकिल जुलूस को पूरा फोकस मिलता है। उत्तर प्रदेश के मौजूदा चुनाव में कई और लोग भी लगे हुए हैं। खुद समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव पूरा सूबा अपने क्रांति रथ के सहारे नाप चुके हैं, लेकिन मीडिया का उन्हें वह अटेंशन हासिल नहीं हो पाया है, जो प्रियंका या रॉबर्ट वाड्रा को मिल रहा है या मिला है। इसे लेकर बहस-मुबाहिसे होते रहे हैं, होते रहेंगे। लेकिन एक तथ्य तो साफ है कि प्रियंका की तरफ देश में एक खास तरह की उत्सुकता जरूर है। ऐसे माहौल में अगर राबर्ट वाड्रा कहते हैं कि जनता अगर चाहेगी तो वह भी सक्रिय राजनीति में आ सकते हैं तो दरअसल वह भी कांग्रेसी हसरतों को ही नई अभिव्यक्ति दे रहे होते हैं। इसमें उनकी राजनीति हसरतें भी ढूंढ़ी जा सकती हैं। उनकी हसरतों का चीरफाड़ होना जरूरी भी है, लेकिन सवाल यह है कि कांग्रेस का सर्वोच्च परिवार इस हसरत को कैसे लेता है। राजनीति में आने की रॉबर्ट वाड्रा की हसरतों को जिस तरह से तत्काल खारिज किया गया, उसके संकेत तो यही हैं कि फिलहाल कांग्रेस का सर्वोच्च परिवार अभी कोई ऐसा कदम नहीं उठाना चाहता, जिससे राहुल की सर्वस्वीकार्यता पर सवाल उठे और कांग्रेसी नेताओं में कोई गलत संकेत जाए। राहुल गांधी लाख कहें कि वह प्रधानमंत्री बनना नहीं चाहते। प्रियंका भी राजनीति में आने से लाख इनकार करें, लेकिन कांग्रेस का कार्यकर्ता तो यही मानता है कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनेंगे। उसे उम्मीद है कि प्रियंका राजनीति में जरूर आएंगी। विपक्ष के रस्मी विरोध को भी छोड़ दें तो वह भी राहुल को भावी प्रधानमंत्री के तौर पर देख रहा है। उसे भी लगता है कि अगर 2014 के चुनावों में कांग्रेस को बहुमत मिला या सरकार बनाने की हैसियत हासिल हुई तो निश्चित है कि राहुल गांधी ही प्रधानमंत्री होंगे। ऐसे में अगर रॉबर्ट वाड्रा अपनी राजनीतिक आकांक्षा को जाहिर करते हैं तो निश्चित तौर पर इसे राहुल के प्रतिद्वंद्वी के तौर पर देखे जाने की आशंका बढ़ सकती है और कांग्रेस आलाकमान इस तरह का खतरा क्यों उठाने लगा। वैसे भी राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को जिंदा करने के लिए जिस तरह से दिन-रात एक कर रखा है, उससे उनकी साख दांव पर लगी है। उत्तर प्रदेश में सुप्त पड़ी कांग्रेस में वे प्राण का संचार कर चुके हैं, लेकिन मौजूदा चुनावों में वह ताकतवर होकर उभरती है तो निश्चित तौर पर इसका पूरा श्रेय उन्हें ही जाएगा, जिसकी कांग्रेस आलाकमान को काफी दिनों से उम्मीद है। बिहार चुनावों में राहुल गांधी की तमाम मेहनत के बावजूद कांग्रेस कोई कमाल नहीं दिखा सकी, उलटे उसका प्रदर्शन शर्मनाक ही रहा। ऐसी हालत में उत्तर प्रदेश में अगर कांग्रेस उभर कर सामने आती है तो राहुल के खाते में चमत्कारिक नेतृत्व की एक उपलब्धि जुड़ सकती है, जो उनके प्रधानमंत्री बनने के लिए एक और मजबूत आधार मुहैया करा सकती है। लेकिन ठीक चुनावों के बीच रॉबर्ट द्वारा राजनीति में आने की इच्छा जाहिर करना राहुल की भावी कामयाबी को भी कमजोर कर सकता है। अगर कांग्रेस आलाकमान ने रॉबर्ट की आकांक्षाओं से सहमति जता दी तो इससे राहुल और प्रियंका के बीच सियासी तुलनाओं का दौर शुरू होने का खतरा बढ़ सकता है। निश्चित तौर पर यह कांग्रेस और उसके पहले परिवार के लिए मुफीद नहीं होगा, लेकिन राबर्ट ने एक तथ्य की ओर इशारा कर दिया है कि मौका मिले तो वे भी हाथ आजमाने को तैयार हैं। इन अर्थो में चुनावी राजनीति में उतरने को लेकर अपनी दावेदारी उन्होंने जता ही दी है, लेकिन कांग्रेस के मौजूदा क्रम में उन्हें राहुल को सर्वस्वीकार्य बनने तक इंतजार करना ही होगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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