Saturday, February 18, 2012

आरक्षण का भूत


अन्ना हजारे का आंदोलन दम तोड़ रहा है और बाबा रामदेव का अभियान फिलहाल ठंडा पड़ा हुआ है, किंतु इससे घबराने की जरूरत नहीं है। दरअसल, हालिया तीन फैसलों से सुप्रीम कोर्ट ने सुनिश्चित कर दिया है कि कानून के लंबे हाथ घोटालेबाजों के गिरेबां तक पहुंच रहे हैं। इन फैसलों से कानून के शासन में नागरिकों का विश्वास बढ़ा है। ये तीन फैसले हैं-2जी स्पेक्ट्रम लाइसेंस रद कर नए सिरे से नीलामी, आम नागरिकों को भ्रष्ट मंत्रियों के खिलाफ मामला दर्ज करने का अधिकार और केंद्रीय सतर्कता आयुक्त का सशक्तिकरण। इन तीन फैसलों में सबसे प्रमुख है 2जी लाइसेंस आवंटन के संबंध में सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन, डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी और अन्य की याचिका पर फैसला। इस ऐतिहासिक फैसले में जस्टिस जीएस सिंघवी और अशोक कुमार गांगुली ने सरकार द्वारा आवंटित 122 लाइसेंसों को रद कर दिया है और अनेक कंपनियों पर जुर्माना भी लगाया है। फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने गैर सरकारी संगठनों और उन नागरिकों की सराहना की है, जो इस मामले को लेकर अदालत में पहुंचे। डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी बनाम मनमोहन सिंह व अन्य मामले में डॉ. स्वामी ने एक मंत्री पर मामला चलाने के अपने अधिकार पर जोर दिया। उन्होंने अदालत का ध्यान खींचा कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 2जी स्पेक्ट्रम मामले में पूर्व संचार मंत्री ए राजा के खिलाफ केस दर्ज करने की अनुमति देने संबंधी आवेदन पर कोई फैसला नहीं ले रहे हैं। अदालत के सामने मुद्दा यह था कि क्या एक नागरिक को भ्रष्टाचार निरोधक कानून 1988 के तहत जनसेवकों के खिलाफ मुकदमा चलाने का अधिकार है? और क्या सक्षम अधिसत्ता के लिए एक निश्चित समयसीमा में इस संबंध में फैसला लिया जाना आवश्यक है? जस्टिस जीएस सिंघवी और एके गांगुली की खंडपीठ ने डॉ. स्वामी के पक्ष में फैसला सुनाया। अदालत ने एटॉर्नी जनरल की इस दलील को ठुकरा दिया कि एक नागरिक जनसेवक के खिलाफ मुकदमा दर्ज नहीं कर सकता। उन्होंने कहा कि पहले भी एटॉर्नी जनरल की ऐसी ही एक दलील को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ अंतुले मामले में खारिज कर चुकी है। अदालत ने विनीत नारायण मामले में तीन सदस्यीय खंडपीठ के फैसले को उद्धृत किया। न्यायाधीशों ने कहा कि इस मामले में खंडपीठ ने व्यवस्था दी थी कि नागरिकों को अदालत में मामला दर्ज करने का अधिकार है। साथ ही सक्षम अधिसत्ता को एक निश्चित समयसीमा में फैसला लेने का आदेश दिया गया था। उस मामले में अदालत ने कहा था कि जनसेवकों के ईमानदारी से विमुख होने का कोई भी मामला विश्वासघात की श्रेणी में आता है और इससे कड़ाई से निपटा जाना चाहिए। अगर जनसेवकों का आचरण दोषपूर्ण है तो इसकी अविलंब जांच होनी चाहिए और अगर उसके खिलाफ प्रथम दृष्टतया मामला नजर आता है तो तुरंत मामला दर्ज होना चाहिए। अंतत: अदालत ने जनसेवकों पर मामला दर्ज करने के संदर्भ में सरकार को फैसला लेने की तीन माह की समयसीमा दी है। अदालत ने सरकार को इस समयसीमा का दृढ़ता से पालन करने को कहा है। हालांकि अगर किसी मामले में एटॉर्नी जनरल या किसी कानून अधिकारी से सलाह लेने की जरूरत है तो एक अतिरिक्त माह का समय और लिया जा सकता है। जजों ने कहा कि संविधान पीठ के फैसले के आलोक में डॉ. स्वामी को ए राजा के खिलाफ मामला दर्ज कराने का अधिकार है। कहानी यहीं खत्म नहीं हो जाती। यह पूरा मामला प्रधानमंत्री के आचरण और डॉ. स्वामी द्वारा लिखे गए अनेक पत्रों के संदर्भ में प्रधानमंत्री कार्यालय की प्रतिक्रिया के चारो ओर घूम रहा है। डॉ. स्वामी सुप्रीम कोर्ट इसलिए गए क्योंकि उच्च न्यायालय ने उनकी याचिका खारिज कर दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उच्च न्यायालय ने बिल्कुल मिथ्या अनुमान पर फैसला लिया कि इस मामले में प्रधानमंत्री ने सीबीआइ को जांच सौंपी हुई है। असल में 4 मई, 2009 को केंद्रीय सतर्कता आयुक्त ने जांच की थी और रिपोर्ट की प्रति सीबीआइ के निदेशक को भेजी थी कि कहीं 2जी स्पेक्ट्रम मामले में आपराधिक साजिश तो नहीं हुई? इसके बाद सीबीआइ ने एफआइआर दर्ज की। इसके करीब एक साल बाद तक मामला ठंडे बस्ते में पड़ा रहा और सीबीआइ ने तभी जांच आगे बढ़ाई जब अदालत ने इसमें दखल दिया। अदालत ने कहा कि साक्ष्यों से पता चलता है कि प्रधानमंत्री की पहल पर सीबीआइ ने न तो केस दर्ज किया और न ही जांच शुरू की। करीब एक साल पहले डॉ. स्वामी ने प्रधानमंत्री को अभिवेदन दिया था कि सीबीआइ द्वारा एफआइआर दर्ज कराई जाए और इस पर सतत निगरानी रखी जाए। प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा प्रस्तुत शपथपत्र में कहा गया है कि एक दिसंबर, 2008 को मामला प्रधानमंत्री के समक्ष प्रस्तुत किया गया और उन्होंने संबंधित अधिकारी को तथ्यों की विवेचना और पड़ताल करने को कहा। चौंकाने वाली बात यह है कि इन निर्देशों का पालन करने के बजाय अधिकारी ने अभिवेदन को संचार मंत्रालय में भेज दिया। उस समय तक यह मंत्रालय उन्हीं ए राजा के अधीन था, जिनके खिलाफ डॉ. स्वामी ने गंभीर आरोप लगाए थे। इन अधिकारियों ने प्रधानमंत्री को आरोपों की गंभीरता और मामले को चार माह के भीतर निपटाने के सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बारे में नहीं बताया। जस्टिस सिंघवी से सहमति प्रकट करते हुए जस्टिस गांगुली ने कहा कि आज देश में भ्रष्टाचार ने न केवल संवैधानिक शासन के सामने खतरा पैदा कर दिया है, बल्कि इसने भारतीय लोकतंत्र और कानून के शासन को भी खतरे में डाल दिया है। इसलिए यह अदालत का कर्तव्य है कि किसी भी भ्रष्टाचार विरोधी कानून की इस तरह व्याख्या करे जिससे भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग मजबूत हो। उन्होंने फैसला दिया कि अगर सरकार चार माह के भीतर जनसेवकों के खिलाफ मामला दर्ज करने के आवेदन पर फैसला नहीं करती तो यह मान लिया जाएगा कि सरकार ने मामला दर्ज करने की अनुमति दे दी है। तीसरे और अंतिम मामले में अदालत ने 2जी घोटाले की जांच पर स्वतंत्र निगरानी की अपील ठुकरा दी। हालांकि अदालत ने व्यवस्था दी कि भविष्य में सीबीआइ द्वारा की गई जांच की रिपोर्ट केंद्रीय सतर्कता आयुक्त को भेजी जाए और केंद्रीय सतर्कता आयुक्त एक सप्ताह के भीतर जांच की विवेचना कर अपने मत व सुझाव से अदालत को अवगत कराए। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन फैसलों से जनता का मनोबल और कानून के शासन के प्रति विश्वास बढ़ा है। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं) 12श्चश्रल्ल2@Aंॠ1ंल्ल.Yश्रे

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