उत्तर प्रदेश चुनाव में जिन दो युवाओं ने सबका ध्यान खींचा है, वे हैं समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव और कांग्रेस पार्टी के महासचिव राहुल गांधी। हालांकि दोनों में समानता है तो केवल इतनी कि दोनों युवा हैं और दोनों को नेतृत्व उनके परिवार की पृष्ठभूमि से मिला है। दोनों की उच्च शिक्षा भी विदेश में हुई। कार्यशली की दृष्टि से देखें तो दोनों ने अपने चुनाव अभियान में सूचना तकनीक का प्रयोग किया है। दोनों अपने वार रूम से लगातार संपर्क में रहते हैं। फेसबुक पर लगातार अपडेट करते रहते हैं। जिस क्षेत्र में चुनावी सभा करनी है, वहां पहले के चुनावों के परिणाम, जनांकिकी, इतिहास, राजनीति के ऐसे लोग जिनका असर आज भी लोगों पर हो और वहां संपर्क करने योग्य नामों की जानकारी तत्क्षण वे प्राप्त करते हैं। अखिलेश फेसबुक, ट्विटर और वर्चुअल वर्ल्ड की हर सोशल नेटवर्किग साइट पर मौजूद हैं। अपनी हर सभा के पहले कहा जाता है कि वे इन पर खुद को अपडेट करते हैं। यही हाल राहुल गांधी का है। वैसे राहुल का वार रूम अखिलेश से ज्यादा शक्तिशाली है, जिसकी खोज-खबर वह खुद लेते रहते हैं। राहुल द्वारा चुनाव में हर प्रकार की आधुनिक तकनीक का उपयोग करना स्वाभाविक लगता है। इसके पहले के चुनावों में भी राहुल का सूचना तकनीकों से सुसज्जित वार रूम ऐसे ही सक्रिय था, लेकिन समाजवादी पार्टी के बारे में धारणा इसके विपरीत थी। अमर सिंह के प्रभाव से मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी में फिल्मी कलाकारों, नामी सोशलाइटों, उद्योग एवं व्यापार जगत की हस्तियों सहित हर प्रकार के ग्लैमर को तो स्वीकार किया, लेकिन विचारों के स्तर पर माना जाता है कि उनका कारवां डॉ. राममनोहर लोहिया के खांटी अंग्रेजी विरोध और देसी आचारण तक सीमित रहा। जाहिर है, अखिलेश ने समाजवादी पार्टी के साथ-साथ मुलायम सिंह की भी सोच बदली है। क्रांति यात्रा की तैयारी में सपा की वेबसाइट को अपग्रेड करके लांच करना भी शामिल था। इस समय सपा भी सोशल नेटवर्किग वेबसाइटों पर मौजूद है। यह सपा का अखिलेश संस्करण है। दोनों युवा नेताओं की इस शैली को चुनाव में कितना लाभ मिलता है, यह अलग से मूल्यांकन का विषय है। कह सकते हैं कि अखिलेश ने सूचना तकनीक के प्रयोग और साइबर स्पेस की दुनिया में सपा को भी कांग्रेस के मुकाबले खड़ा किया है। लेकिन राहुल गांधी की बढ़ी दाढ़ी तथा भंगिमा में गुस्सैल युवा दिखने की छवि अखिलेश से अलग है। 14 नवंबर 2011 को फूलपुर से अभियान की शुरुआत करते समय जब उन्होंने युवाओं को ललकारा कि क्यों दूसरे राज्यों में भीख मांगने जाते हो तो इसकी आलोचना भी हुई, पर दरअसल यह एक रणनीति थी, जिसके द्वारा यह प्रदर्शित किया गया था कि कांग्रेस के युवा नेता के अंदर उत्तर प्रदेश की दुर्दशा के कारण गुस्सा वैसे ही है, जैसे कि अन्य युवाओं के अंदर। वह आगे बढ़कर युवाओं के साथ मिलकर प्रदेश को बदलना चाहते हैं। फिर चुनावी सभा में घोषणा पत्रों को कागजी वादों की फेहरिस्त बताते हुए प्रतीक के तौर पर कागज का टुकड़ा फाड़कर राहुल ने यही प्रदर्शित किया कि उनके अंदर उत्तर प्रदेश की दुर्दशा को लेकर उन सारी पार्टियों के खिलाफ गुस्सा है, जिन्होंने सिर्फ वादे किए। जाहिर है, राहुल युवाओं को अपनी ओर खींचना चाहते हैं। 1970-80 के दशक में अमिताभ बच्चन की गुस्सैल युवा की फिल्मी छवि ने भारी संख्या में युवाओं को उनकी ओर खींचा था। राजनीति में यह सफल होगा या नहीं, इसका मूल्यांकन करना अभी जल्दबाजी होगी। अखिलेश भी विरोधियों पर हमला करते हैं, लेकिन उनके चेहरे से गुस्सा नहीं झलकता। वे शांत तरीके से अपनी बात रखते हैं। राहुल की इस भंगिमा पर उनकी टिप्पणी थी कि कांग्रेस के नेता अभी कागज फाड़ रहे हैं, आगे वह मंच से कूदने लगेंगे। वह शांति से कहते हैं कि उत्तर प्रदेश और देश की दुर्दशा के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेवार तो वही दल होगा, जिसने सबसे अधिक समय तक शासन किया। फिर पूछते हैं कि किसने सबसे अधिक राज किया? दोनों की शैली में अंतर साफ दिखता है। इसका कारण भी उत्तर प्रदेश की राजनीति में दोनों की और उनकी पार्टियों की हैसियत है। अखिलेश को प्रदेश में एक सशक्त जानाधार, पार्टी के पक्ष में एक मजबूत सामाजिक समीकरण तथा विधायकों, सांसदों, स्थानीय निकायों में जन प्रतिनिधियों के विशाल समूह के साथ एक सक्रिय और जीवंत पार्टी इकाई मिली है। इसके विपरीत राहुल को कांग्रेस का ऐसा जर्जर और नष्ट ढांचा मिला, जिसका जनाधार विलुप्त था। सामाजिक समीकरण तो न जाने कब का समाप्त हो चुका है। वस्तुत: जब राहुल ने कमान संभाली कांग्रेस मर चुकी थी। साथ ही प्रदेश में ऐसा कोई नेता भी नहीं मिला, जिसे आगे बढ़ाकर राहुल कांग्रेस को पुनजीर्वित करने की कोशिश करें। सब कुछ उनके अपने कंधे पर था और है। अखिलेश के पिता मुलायम सिंह यादव खुद अभी सक्रिय हैं और अन्य ऐसे नेता हैं, जिनका अपने-अपने क्षेत्रों में प्रभाव है। यही अंतर उत्तर प्रदेश में दोनों के बीच विषमता की खाई को रेखांकित करते हैं। आखिलेश जहां है, उन्हें उससे आगे बढ़ना है और इसलिए उन्होंने युवाओं को अपने साथ जोड़ने के लिए सोशल नेटवर्क का सहारा लेकर टैब्लेट, लैपटॉप और इंटरनेट कनेक्शन तक के वादे किए। अगर युवाओं का थोड़ा हिस्सा भी उनके साथ आ जाए तो फिर पिछले चुनाव की कमी की भरपाई हो जाएगी। राहुल के सामने पार्टी इकाई खड़ी करते हुए कांग्रेस को चुनावी सफलता दिलाना चुनौती है। इसके लिए हर वर्ग समूह से भारी संख्या में मतदाताओं को खींचने और ठोस समाजिक समीकरण विकसित करने की जरूरत है। लोकसभा चुनाव में हालांकि राहुल ने कांग्रेस के ग्राफ को काफी ऊंचा उछाल दिया, लेकिन वह एक अस्थाई प्रवृत्ति थी। वैसे उतने से भी राहुल गांधी का उत्तर प्रदेश मिशन पूरा नहीं होता। राहुल और अखिलेश में मूल अंतर यह भी है कि अखिलेश की सीमा उत्तर प्रदेश ही है, जबकि राहुल के लिए यह कांग्रेस को राष्ट्रीय राजनीति में शीर्ष पर लाने और बनाए रखने के मिशन का प्रमुख अंग है। उनकी सोच यह है कि उत्तर प्रदेश में जब तक कांग्रेस शीर्ष पर थी, राष्ट्रीय राजनीति पर भी उसका वर्चस्व था। उत्तर प्रदेश में शिखर से शून्य तक जाने के साथ ही राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस कमजोर हुई। राहुल को उस तरह का स्वाभाविक राजनीतिक प्रशिक्षण भी नहीं मिला, जैसा अखिलेश को मिला है। अखिलेश ने अपने पिता और उनके सहयोगियों की गतिविधियों को निकट से देखा-समझा है। उनके पिता उन्हें राजनीति में लाए और वह आज भी सक्रिय मार्गदर्शक के रूप में मौजूद हैं। उनके कारण अखिलेश का अपने-आप नेताओं और कार्यकर्ताओं से संपर्क बनता गया। दूसरी ओर 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद नेहरू परिवार की सुरक्षा व्यवस्था इतनी सख्त हुई कि खुलकर मिलना तक संभव नहीं रहा। जब राहुल विदेश में पढ़ाई कर रहे थे, उनके पिता राजीव गांधी की दुखद हत्या हो गई। उसके बाद सोनिया गांधी ने पूरे साढ़े छह वर्ष तक स्वयं और परिवार को सक्रिय सीधी राजनीति से दूर रखा। फलत: राहुल का न राजनीतिक प्रशिक्षण हुआ और न कार्यकर्ताओं-नेताओं से सीधा संपर्क ही। सोनिया गांधी ने जब दिसंबर 1997 से राजनीति की पारी आरंभ की तो वह मंच पर भाषण देने या फिर कांग्रेस की शीर्ष बैठकों तक सीमित रही। कुल मिलाकर राहुल को सब कुछ खुद करना पड़ा है। उन्हें गरीबी को समझने के लिए गरीब के पास जाना पड़ता है, उसके साथ रात बितानी पड़ती है। कई बार उन्हें स्थानीय भाषा समझने में कठिनाइयां आती हैं, जबकि अखिलेश के साथ ऐसा नहीं है। वैसे विदेशी शिक्षा के बावजूद अखिलेश के भाषणों और बोलने के अंदाज में स्थानीय बोली का प्रभाव साफ नजर आता है। राहुल इससे वंचित हैं। इन अंतरों के बावजूद दोनों ने अपनी-अपनी पार्टी को नए तेवर, नई शैली और संस्कार देने की कोशिश की है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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