Saturday, February 18, 2012

यूपी में बढ़े मतदान का मतलब


पंजाब में 78 प्रतिशत, मणिपुर में 82 प्रतिशत और उत्तरांचल में 70 प्रतिशत मतदान के बाद अब उत्तर प्रदेश में प्रथम तीन चरणों में पिछले विधानसभा चुनावों के मुकाबले 16-17 प्रतिशत अधिक मतदान होना भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है, लेकिन इससे राजनीतिक दलों के माथे पर शिकन और गहरा गई है। यह अनुमान लगाना मुश्किल हो रहा है कि इसका लाभ किसको मिलेगा। बढ़े मतदान प्रतिशत में सबसे ज्यादा योगदान उन नए युवा मतदाताओं का है जिन्होंने पहली बार उत्साहपूर्वक मतदान किया। नए युवा मतदाताओं के मतदान का क्या आधार हो सकता है? क्या वे एक युवा-वर्ग के रूप में मत देंगे या उनका मत बिखर जाएगा? क्या वे जाति और मजहब से ऊपर उठ पाएंगे? क्या उनकी प्राथमिकताएं विकास और सुशासन होंगीं? क्या उनका कोई रोल-मॉडल हो सकता है? इस दौर के चुनावों में हर राज्य में बढ़ा मतदान प्रतिशत 2014 के लोकसभा चुनावों के लिए तृतीय जन-उफान का संकेत जरूर है। यदि 1967 का प्रथम और 1989 का द्वितीय जन-उफान भारतीय लोकतंत्र के लिए मील का पत्थर माना जाता है तो 2012 के विधानसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश के युवा मतदाता भी कुछ गुल खिला सकते है। दोनों जन-उफानों में बढ़ा मतदान प्रतिशत तत्कालीन सत्तारूढ़ दल कांग्रेस के विरुद्ध गया था, लेकिन तृतीय जन-उफान क्या कांग्रेस के लिए कोई यू-टर्न लेगा? युवाओं की प्राथमिकताएं जो भी हों, लेकिन उनमें परिवर्तन की इच्छा अवश्य होती है, इसलिए बढ़ा मतदान सत्तारूढ़ दल के विरुद्ध जा सकता है। प्रश्न यह है कि ये युवा परिवर्तन की बागड़ोर सौपेंगे किसे? इन युवाओं में बिहार और गुजरात मॉडल के प्रति आकर्षण है। वे चाहते हैं कि उत्तर प्रदेश में भी वैसा ही विकास हो जैसा इन राज्यों में हुआ है। दोनों राज्यों में परिवर्तन का श्रेय मुख्यमंत्री को ही दिया जा रहा है। दोनों राज्यों में भाजपा शासन में है और उसे उत्तर प्रदेश में युवाओं की इस अभिलाषा का लाभ मिल सकता था, लेकिन भाजपा का दुर्भाग्य कि वह किसी सशक्त युवा नेतृत्व को प्रदेश में आगे न कर सकी। इस संबंध में सपा और कांग्रेस ने समय रहते सार्थक पहल की। सपा ने अखिलेश को तो कांग्रेस ने राहुल को आगे किया है। इन दोनों ही युवाओं ने चुनाव प्रचार में कड़ी मेहनत की है और मतदाताओं से जुड़ने और उनको अपने से जोड़ने की जी तोड़ कोशिश की है। इसका लाभ उनको मिल सकता है और यह संभव है कि युवा मतदाता इन दो दलों में बंट जाए और दोनों को ही अप्रत्याशित लाभ हो जाए, लेकिन राहुल का राष्ट्रीय व्यक्तित्व है; उनके मुकाबले अखिलेश का राजनीतिक कद काफी छोटा है। फिर जहां कांग्रेस में राहुल की भावी प्रधानमंत्री के रूप में छवि निर्विवाद है वहीं सपा में अखिलेश को प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाना जोखिम भरा हो सकता है। अन्ना के आंदोलन में युवाओं की सक्रिय भूमिका से वर्तमान विधानसभा चुनावों में तृतीय जन-उफान का पूर्वानुमान संभवत: लग गया था और उसको कैप्चर करने की सबसे अच्छी तैयारी कांग्रेस और सपा की लगती है। कांग्रेस ने जहां एक ओर अन्ना-विरोध को निस्तेज कर दिया वहीं युवा जन-उफान को अपनी ओर करने के लिए युवा नेतृत्व के रूप में राहुल को कुछ एंग्री यंग मैन के रूप में पेश किया। सपा ने भी चुनावी प्रबंधन को लेकर आक्रामक रुख अख्तियार किया और अखिलेश के लिए समुचित प्रचार-प्रबंधन एवं इमेज-मैनेजमेंट किया। उत्तर प्रदेश में तृतीय जन-उफान में नए और युवा मतदाताओं को खीचने केलिए कांग्रेस और सपा विशेष प्रयास कर रही हैं। इस दौर में बसपा कुछ पिछड़ गई। संभवत: मायावती अपने सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूले से इतनी आत्म-मुग्ध रहीं कि उनको इसकी सुध ही न रही कि वे यह सुनिश्चित कर सकें कि ब्रांाणों के आगमन और दलितों के विस्थापन से दलितों में कोई रोष पैदा न होने पाए। पिछले पांच साल में पूर्ण बहुमत से शासन करने के बाद बसपा की सरकार यदि दलितों या अति-दलितों की दशा में सुधार नहीं कर पाई तो उनके पास मायावती को दोषी ठहराने के अलावा क्या विकल्प है? यह भी नहीं भूलना चाहिए कि मायावती केवल दलितों के वोट से चुनाव नहीं जीत सकतीं चाहे वे कितनी भी मजबूती के साथ उनके साथ खड़े क्यों न हों। ऐसा नहीं है कि बसपा के शासन में विकास नहीं हुआ या शांति व्यवस्था नहीं सुधरी, लेकिन बसपा और स्वयं मायावती की जनता से दूरी और संवादहीनता ने पार्टी के लिए अनावश्यक संकट पैदा कर दिया है। तृतीय जन-उफान में युवाओं के साथ-साथ वरिष्ठ नागरिक भी हैं। जहां युवाओं में शहरी और ग्रामीण मतदाताओं के सरोकार अलग-अलग हो सकते है वहीं महिला और पुरुष मतदाताओं की प्राथमिकताएं भी भिन्न हो सकती हैं। यही बात बुजुगरें पर भी लागू होती है। इस कारण बढ़े हुए मतदाताओं की दलीय निष्ठाएं भी भिन्न हो सकती हंै, लेकिन ग्रामीण अंचलों में हरिजन अधिनियम के दुरुपयोग से ब्रांाणों सहित वे उच्च जातियां बसपा से नाराज चल रही हंै जिनके समावेश से बसपा की सोशल इंजीनियरिंग रंग लाई थी। इस चुनाव में एक नूतन प्रवृत्ति देखने को मिल रही है- जहां लोग किसी राजनीतिक दल से नाराज हैं वहां या तो वे अपनी जाति के प्रत्याशी को वोट देना चाहते हैं या एक अच्छे प्रत्याशी को जो विकास करा सके। ताज्जुब है कि गांवों में अन्ना-प्रभाव तब दिखाई दे रहा है जब शहरों से उसका प्रभाव लगभग गायब हो चुका है। प्रथम जन-उफान से गैर-कांग्रेसवाद और द्वितीय से पहचान की राजनीति ने जन्म लिया। अब तृतीय जन-उफान संभवत: भारतीय लोकतंत्र को एक कदम आगे ले जाकर सुशासन एवं विकास पर स्थापित कर सके। (लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं) 12श्चश्रल्ल2@Aंॠ1ंल्ल.Yश्रे

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