जहां एक और चुनावों में मतदाताओं की हिस्सेदारी बढ़ाने को लेकर चौतरफा मुहिम छिड़ी है वहीं उसमें महिला प्रत्याशियों की घटती हिस्सेदारी पर सब मौन हैं। अभी चल रहे पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में जिस तरह महिला उम्मीदवारों की कम संख्या दिखी वह उनकी मतदाता के रूप में बेहतरीन सहभागिता के बिल्कुल विपरीत है। इस बार के चुनावों में पंजाब (93/1078) में साढ़े आठ प्रतिशत, उत्तर प्रदेश (482/5877) और उत्तराखंड (63/ 788) में आठ प्रतिशत, मणिपुर (15/279) में पांच प्रतिशत और गोवा (09/215) में केवल चार प्रतिशत महिला उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं। यह चिंता का विषय है। दो कारणों से यह चिंता और भी बढ़ जाती है। प्रथम, इतनी कम महिला प्रत्याशियों में मान्यता प्राप्त दलों के द्वारा उतारी गई महिला प्रत्याशियों की संख्या काफी कम है। ज्यादातर महिलाएं स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में लड़ रही हैं, जिनके जीतने की संभावना नगण्य है। द्वितीय, बीस साल से पंचायतों और नगरपालिकाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने के बाद भी राजनीतिक दलों के पास महिला उम्मीदवारों का टोटा क्यों है? या तो बीस साल तक लाखों महिलाओं को राजनीतिक अनुभव देने के बावजूद हम स्वीकार करें कि महिलाओं को आरक्षण द्वारा आगे करने का हमारा प्रयोग सफल नहीं रहा या फिर हमें कहना होगा कि हम महिलाओं को राजनीति में आगे करना ही नहीं चाहते। यहां हमें नहीं भूलना चाहिए कि इन सभी पांचों राच्यों में 2007 के विधानसभा चुनावों में मतदाता के रूप में महिलाओं की बड़ी जबरदस्त भागीदारी रही थी। 2012 के विधानसभा चुनावों में भी उनकी मतदाता के रूप में बहुत अच्छी साझेदारी रही है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 15 महिलाओं को राच्य द्वारा लिंग भेद के विरुद्ध मौलिक अधिकार देता है और संविधान की उद्देशिका महिलाओं सहित सभी नागरिकों को अवसर की समानता का आश्वासन देती है, पर राजनीति में पुरुषों के बराबर महिलाओं की सहभागिता एक स्वप्न सा होकर रह गई है। यह ठीक है कि महिलाओं की आबादी के हिसाब से उनका आधा प्रतिनिधित्व हो, यह जरूरी नहीं, पर उतनी भी कम नहीं होनी चाहिए जितनी अभी है। राजनीतिक दल महिलाओं के लिए चाहे जितनी भी बड़ी बड़ी बातें करें, लेकिन टिकट देने के वक्त वे उन्हें भूल जाते हैं। क्यों? हमारे लोकतंत्र में राजनीतिक दलों द्वारा सच्चे अर्थो में दलीय-लोकतंत्र नहीं लाया जा सका। गांवों, कस्बों, शहरों व नगरों में राजनीतिक दलों ने संगठन बनाने और कार्य करने की कोई लोकतांत्रिक शैली विकसित नहीं की। सभी दलों में सामंतवादी दलीय व्यवस्था पनपी है और उसी आधार पर ये राजनीतिक दल हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को चलाना चाहते हैं। यह कैसे संभव हो सकता है? यही मूल कारण है कि हमारे लोकतंत्र और राजनीति में अनेक विसंगतियां आ गई हैं। सबसे कठिन चुनौती राजनीतिक दलों के निष्ठावान कार्यकर्ताओं के समक्ष आ गई है. जो कार्यकर्ता दल के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर देते हैं उनको अपने ही दल में उस समय पीछे कर दिया जाता है जब संगठन में उनकी पदोन्नति होनी चाहिए या टिकट वितरण में उनको महत्व दिया जाना चाहिए। उस समय अक्सर कोई बाहरी या विरोधी दल से निकाला हुआ राजनीतिज्ञ आकर बाजी मार ले जाता है। इससे न केवल निष्ठावान कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटता है, वरन वे आगे के लिए यह सीख भी ग्रहण करते हैं कि संगठन के लिए काम करने से कुछ नहीं होता, बल्कि ऊपर के प्रभावशाली नेताओं के संपर्क में रहना ज्यादा लाभकारी होता है। इसी कारण चुनावों के समय सभी राजनीतिक दलों को टिकट वितरण में बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। उनको चुनावों में कोई ऐसा स्थानीय प्रत्याशी दिखाई नहीं देता जो प्रभावशाली हो और पार्टी को विजय दिलवा सके। अत: वे किसी जिताऊ उम्मीदवार की ओर टकटकी लगा कर देखते हैं जो पैसे और बाहुबल से संपन्न हो। जाहिर है कि महिलाएं इन कसौटियों पर खरी नहीं उतरतीं, इसलिए उनका प्रत्याशियों के रूप में चयन काफी कठिन हो जाता है। किसी भी सामाजिक वर्ग को आगे बढ़ाने के लिए आरक्षण को अपरिहार्य मान लिया गया है। महिलाओं को भी आरक्षण के जरिये राजनीति में आगे करने की बात की जाती है। यही बात इस चुनाव में मुसलमानों के लिए भी की जा रही है। क्या वास्तव में आरक्षण से कोई भी सामाजिक वर्ग पूरा का पूरा आगे बढ़ सकेगा? वास्तव में आरक्षण का सहारा लेकर हम बहुत दूर नहीं जा सकते। सरकारों को यह सोचना पड़ेगा कि आरक्षण को सुशासन और लोक-कल्याण का विकल्प नहीं बनाया जा सकता। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि आरक्षण से समाज में जो खेमेबाजी हो रही है वह जातिवाद और अब सांप्रदायिकता को और गहरा ही कर रही है। महिलाओं को राजनीति में आगे करने से पहले हमें उनको समाज में आगे करना पड़ेगा। पिछले पचास-साठ सालों में महिलाओं को लेकर परिस्थितियां बहुत बदली हैं। हमें ग्रामीण महिलाओं और मुस्लिम महिलाओं के बारे में खास तौर से सोचना चाहिए। उनकी शिक्षा के बारे में बहुत गंभीर होने की जरूरत है। हम सामाजिक व्यवस्था से डरकर अपनी महिलाओं को जितना ही घर के अंदर कैद करेंगे, महिला सशक्तीकरण का सफ़र उतना ही लंबा हो जाएगा। हमें इतनी महिलाओं को समाज में उतार देना होगा कि उनकी सामजिक उपस्थिति स्वयं उनमें आत्मविश्वास पैदा कर दे। महिलाओं को राजनीति में लाने का मतलब है कि उन्हें पुरुषों की तरह खट्टे-मीठे अनुभवों से दो-चार होना ही पड़ेगा। वह दिन भारतीय लोकतंत्र में बहुत महत्वपूर्ण होगा जब बिना आरक्षण के महिलाओं सहित समाज के सभी वर्गो की राजनीति में समुचित हिस्सेदारी होगी। (लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं) 1ी2श्चश्रल्ल2ी@Aंॠ1ंल्ल.Yश्रे
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